वर्तमान स्थिति में पंजाब क्या करे ?

कदम कदम पे मेरे ख्वाब जल रहे हैं यहां,
मैं इस ज़मीन को जन्नत बनाने आया था।

समर कबीर के इस शे’अर का भावार्थ पंजाबियों की मनोदशा पर पूरी तरह चरितार्थ होता है। पंजाबी बाबा नानक की तौहीद की सदा (एकता की आवाज़) के कायल हैं और ‘सरबत दा भला’ मांगने वाले लोग हैं, परन्तु अफसोस कि समय की सरकारें चाहे वे कांगे्रसी थीं, चाहे संयुक्त सरकारें या फिर भाजपा की सरकारें, इन सभी में एक बात साझी है कि इनके कार्यों तथा नीतियों ने कदम-कदम पर पंजाबियों के सपनों को तोड़ा ही नहीं, अपितु पंजाबियों को एक बेगानगी तथा एक विशेष तरह की पीड़ा का एहसास भी करवाया है। पंजाब एक सीमांत राज्य है, जो लगातार पिछड़ता जा रहा है। साथ ही केन्द्रीय सरकारें पता नहीं क्यों दुश्मनी वाला व्यवहार करती हैं। केन्द्र स्वयं तो पंजाब में कोई बड़ा उद्योग लगाने के लिए तैयार नहीं, परन्तु इस प्रदेश के हालात भी ऐसे बना दिए गए हैं कि कोई निजी उद्योगपति भी यहां उद्योग लगाने के लिए तैयार नहीं। नये उद्योग की बात तो छोड़ दें, पहले लगे उद्योग भी नज़दीकी राज्यों में मिलती केन्द्रीय सुविधाओं के कारण पंजाब छोड़ रहे हैं। पंजाब जो वर्ष 2000 तक आर्थिक रूप से पहले स्थान पर तथा 2002-03 तक प्रति व्यक्ति आय में भी देश भर में शीर्ष पर था, अब जी.डी.पी. में देश में 16वें स्थान पर है और प्रति सदस्य जी.डी.पी. के लिहाज़ से 19वें स्थान तक फिसल गया है।
परन्तु बात अकेले आर्थिकता की ही नहीं, पंजाब से कदम-दर-कदम अन्याय किया गया है और किया जा रहा है। पंजाब को शायद स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में सबसे अधिक कुर्बानियां देने का यही सिला मिल रहा है। पंजाब की संस्कृति खत्म हो रही है। पंजाब देश का हरियाणा से साथ मिल कर एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जिनके पास अपनी राजधानी भी नहीं, अलग-अलग हाईकोर्ट भी नहीं। चंडीगढ़ का आबादी का संतुलन  इनता बदल दिया गया है कि अब वहां शायद वास्तव में पंजाबी दूसरी सबसे बड़ी भाषा भी न हो। हमारे डैम तथा बिजली छीन ली गई है। नदियों का पानी कानूनी रूप में हमारा होने के बावजूद हमारा नहीं। हरित क्रांति जो देश के लिए थी, के चक्कर में हम ऐसा उलझे हैं कि भू-जल भी हमने गंवा लिया है। कई पंजाबी भाषी क्षेत्र हमसे छीन लिए गए हैं। हमारी ज़मीनें देश का कोई भी नागरिक खरीद सकता है, परन्तु हम देश के कई राज्यों में ज़मीन खरीदने के हकदार नहीं। हमारा मंडीकरण ढांचा, लम्बे संघर्ष के बाद तीन कृषि कानून खत्म करवाये जाने के बावजूद खतरे में है। हमारे सामने है कि हमारे अपने रानजीतिज्ञ, पुलिस तथा अन्य अधिकारी पंजाब को लूट रहे हैं। बार-बार नये कानूनों के  ज़रिये हमें परखा जा रहा है कि कितना हौसला कितना जोश हम में बचा है। कभी-कभी तो न मानने योग्य अफवाहें भी सुनाई देती हैं कि यह सिर्फ इसलिए किया जा रहा है कि जब यह महसूस हो जाए कि अब पंजाबी संघर्ष के योग्य नहीं तो उस समय पंजाब को भी कश्मीर की भांति केन्द्रीय प्रदेश (यू.टी.) बनाने का फैसला हो सकता है। पंजाब की सीमाओं के 50 किलोमीटर तक केन्द्र पहले ही बी.एस.एफ. के ज़रिये काबिज़ तो हो ही चुका है। परन्तु याद रखें पंजाब ककनूस (फिनिक्स) परिन्दे जैसा है, जो अपनी राख में से भी नया जन्म लेने का सामर्थ्य रखता है। 
मेरा वजूद भी ककनूस से कम नहीं है मीयां,
यकीं ना आए तो पूरी तरह जला मुझ को।
(़गज़कनर)
पंजाब यूनिवर्सिटी का मामला 
जैसे ऊपर लिखा है कि शायद केन्द्र सरकार सुइयां चुभो-चुभो कर देखती है कि पंजाबियों की सोच में अभी कुछ जान शेष है या नहीं? उसी तरह पंजाब यूनिवर्सिटी का स्वरूप बदलने की कवायद भी एक नई सूई चुभने जैसी है। हालांकि पंजाब यूनिवर्सिटी से इस समय पंजाब तथा चंडीगढ़ के कालेज ही जुड़े हुए हैं, परन्तु इसे पहले तो इसका चांसलर देश के उप-राष्ट्रपति को बना कर सुत्ते-सिद्ध ही एक तरह से केन्द्रीय यूनिवर्सिटी बना दिया गया है। अब इसकी सीनेट की ताकत खत्म करके वाइस चांसलर को सर्वेसर्वा बनाने की योजना बना ली गई है। 
उल्लेखनीय है कि वैसे तो देश की लगभग सभी उच्च संस्थाओं पर ही धीरे-धीरे आर.एस.एस. की सोच के लोग बिठा दिए गए हैं, परन्तु यह घटनाक्रम शिक्षा संस्थानों में अधिक स्पष्ट दिखाई देता है और यह घटनाक्रम कोई 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से शुरू नहीं हुआ, अपितु यह लम्बे समय से जारी है और कांग्रेस सरकारों ने या तो यह होने दिया या फिर उन्हें कुछ पता ही नहीं चला कि क्या हो रहा है। यह घटनाक्रम ‘एक देश-एक भाषा’ के लक्ष्य की पूर्ति के लिए एक सफल तरीका-ए-कार है। 
यहां पंजाब यूनिवर्सिटी का संक्षिप्त इतिहास जानना आवश्यक है ताकि पता चल सके कि पंजाब यूनिवर्सिटी में इतने अधिक सीनेटर लोगों में से क्यों लिए जाते थे। अंग्रेज़ सरकार 1856 में पंजाब में पश्चिमी तज़र् की शिक्षा के प्रसार के लिए ज़मीदारों पर एक प्रतिशत सैस लगाया था, जिससे 456 प्राइमरी स्कूल खोले गए। 1864 में लाहौर कालेज बना, जो कलकत्ता यूनिवर्सिटी से जोड़ा गया। सर दियाल सिंह मजीठा तथा अंजुमन-ए-पंजाब नाम के संगठन ने पंजाब में यूनिवर्सिटी बनाने के लिए संघर्ष शुरू किया। इसके प्रभाव में लाहौर कालेज का नाम बदल के यूनिवर्सिटी कालेज किया गया। इसे 21000 रुपये की ग्रांट भी दी गई जबकि पंजाबियों ने उस ज़माने में एक लाख का दान दिया था। अंत में 1882 में लाहौर में पंजाब यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई। 21 अक्तूबर, 1882 को इसका गज़ट नोटिफिकेशन प्रकाशित हुआ। पहले वाइस चांसलर सर विलियम ली-वार्नर नियुक्त किये गये। इस यूनिवर्सिटी की विशेषता यह थी कि एक जन-तहरीक के दबाव में बनने के कारण इसकी सीनेट में 50 प्रतिशत सदस्य पंजाबी थे, जो अलग-अलग क्षेत्रों में से चुने अथवा नामज़द किये जाते थे। यह यूनिवर्सिटी अंग्रेज़ी के साथ-साथ उर्र्दू, पंजाबी तथा हिन्दी भाषाओं में भी पढ़ाती थी। विभाजन के समय इस यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार एम. जी. सिंह दंगों में मारे गए। 27 सितम्बर, 1947 को एक लैजिसलेशन आर्डिनेंस से यह पंजाब में फिर शुरू की गई। 4 अक्तूबर को जस्टिस तेजा सिंह इसके पहले वी.सी. बने। कुछ समय शिमला तथा सोलन में रहने के बाद 1950 के दशक में यह चंडीगढ़ में स्थापित की गई जहां इस समय इसके पास खरबों की जायदाद है, जिसमें चंडीगढ़ में 550 एकड़ ज़मीन भी है। 
हैरानी की बात है कि केन्द्र सरकार ने लगातार बढ़ते विरोध को देखते हुए इसकी सीनेट लगभग खत्म करने का नोटिफिकेशन रद्द करने के लिए नया नोटिफिकेशन जारी करने के साथ-साथ ही एक और नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया, जिसका साफ अर्थ है कि केन्द्र सरकार द्वारा सीनेट को लगभग अप्रभावी करने का फैसला रद्द नहीं हुआ। बस, सामयिक रूप में स्थगित किया गया है। जब विरोध कुछ थम जाएगा तो यह चुपचाप इसे लागू कर दिया जाएगा। यह एक फरेब नहीं तो और क्या है?
अलाह-रे फरेब-ए-मशीयत कि आज तक
दुनिया के ज़ुल्म सहते रहे ़खामोशी से हम। 
(साहिर लुधियानवी)
(फरेब-ए-मशीयत=किस्मत का फरेब)
क्या करे अब पंजाब 
आंख में पानी रखो, होठों पे चिंगारी रखो
ज़िन्दा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो।
(राहत इंदौरी)
नि:संदेह ज़िन्दा रहने के लिए बहुत-सी तरकीबों की ज़रूरत होती है और ऐसे अन्याय के समय चाहे सबको न्याय के लिए पहली तरकीब के रूप में याद अदालत की ही आती है, परन्तु यहां मैं पंजाब के पिछले अनुभवों को देखते हुए सचेत करना चाहता हूं कि इस मामले को कोई पंजाबी पक्ष अदालत में न लेकर जाए। हमारे सामने है कि पंजाब के किसी भी मामले पर किसी भी अदालत से हमें अभी तक न्याय नहीं मिला। फिर इसका एकमात्र समाधान दिखाई देता है कि शांतमयी तरीके से जन-संघर्ष। पंजाब के मुख्यमंत्री को चाहिए कि इसके विरोध में अपनी पार्टी के सभी विधायकों तथा सांसदों के साथ-साथ शेष पंजाबी विधायकों तथा सांसदों को भी आमंत्रित कर दिल्ली में तब तक धरना देने का कार्यक्रम बनाए, जब तक यह नोटिफिकेशन पूरी तरह रद्द न हो जाए। विधायकों तथा सांसदों का धरना जनप्रतिनिधियों का धरना होगा और इसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव पड़ेगा। 
अमरीकी मेयरों के चुनाव तथा सबक 
भारतीय राजनीतिज्ञों विशेषकर शासकों को हाल ही में अमरीका में हुए मेयरों के चुनावों के नतीजों से सबक लेने की ज़रूरत है। हमारी जानकारी के अनुसार अमरीका में रिपब्लिकिन सरकार के बावजूद लोगों ने 80 प्रतिशत से अधिक मेयर विरोधी डेमोक्रेटिक पार्टी के जिता दिये हैं। सभी बड़े शहरों, जिनमें न्यूयार्क सिटी, मिनी एपोलिस, अटलांटा, बोस्टन, सैनट पाल, सीएटल शहर जैसे शामिल हैं, में डेमोक्रेट विजयी रहे। रिपब्लिकन तो कुछ छोटे-छोटे शहरों में ही जीत सके। न्यूयार्क सिटी जहां स्वयं अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प शहरवासियों को कई तरह की धमकियां भी देते रहे, के लोगों ने भारतीय मूल के एक मुसलमान युवा ज़ोरहान ममदानी को भारी अंतर से विजायी बना दिया। अत: सबक साफ है कि धक्के का राष्ट्रवाद लोगों पर लम्बा समय प्रभाव नहीं डालता, लोकतंत्र में न्याय ज़रूरी है : 
पछताओगे बहुत मेरे दिल को उजाड़ कर
इस घर में और कौन है महिमां तुम्हीं तो हो। 
(द़ाग देहलवी) 

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