क्या नक्सलवाद का अंत हो जाएगा ?
मोदी सरकार जब सत्ता में आई थी, तब आतंकवाद और नक्सलवाद के रूप में देश की सुरक्षा के लिए दो बड़े खतरे थे लेकिन 11 साल बाद इन दोनों खतरों से यह सरकार सफलतापूर्वक निपट रही है। दो साल पहले गृहमंत्री अमित शाह ने देश को नक्सलवाद से मुक्त करने के लिए 31 मार्च, 2026 की तारीख तय की थी। उनका कहना था कि मोदी सरकार इस तारीख तक देश को नक्सलवाद से मुक्त करवा देगी। उनके इस दावे पर यकीन करना मुश्किल था हालांकि उस समय भी नक्सलवाद पर सरकार काफी हद तक नियंत्रण चुकी थी। वर्ष 2022 तक नक्सली हिंसा में काफी कमी आ गयी थी लेकिन नक्सली खत्म नहीं हुए थे, सिर्फ उनके हमले कम हो गए थे। अमित शाह के दावे के अनुरूप इस समय सरकार नक्सलवाद पर जबरदस्त प्रहार कर रही है। मोदी सरकार ने नक्सलवाद के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई हुई है जिसके कारण नक्सलियों में भय का माहौल है। पिछले कुछ दिनों से बड़ी मात्रा में नक्सलियों द्वारा आत्मसमर्पण किया जा रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि आत्मसमर्पण करने वालों में अनेक बड़े-बड़े नेता शामिल हो रहे हैं। हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि नक्सलियों का नेतृत्व ही खत्म होता जा रहा है।
सरकार ने नक्सलियों को खत्म करने की अपनी नीति में भारी दबाव के बावजूद कोई बदलाव नहीं किया है। कई सामाजिक संगठनों ने सरकार पर नक्सलियों की आढ़ में आदिवासियों की हत्या करने का आरोप लगाया लेकिन सरकार ने उनकी कोई परवाह नहीं की। सरकार का कहना है कि ये लोग नक्सली समर्थक हैं, इसलिए शोर मचा रहे हैं। इसके बाद इन संगठनों ने सरकार के सामने मांग रखी कि सरकार युद्ध-विराम कर दे ताकि नक्सलियों को समझाने का समय मिल जाये लेकिन सरकार ने इस मांग को भी मानने से मना कर दिया। सरकार का कहना है कि नक्सली इसलिए युद्ध-विराम चाहते हैं ताकि उन्हें तैयारी करने का मौका मिल जाये और वो लोग दोबारा संगठित होकर बड़े हमले कर सकें। आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए सरकार एक पुनर्वास योजना लेकर आई है ताकि वो सम्मान के साथ शेष जीवन बिता सकें। ऐसा लग रहा है कि नक्सलियों को यह रास्ता बहुत पसंद आ रहा है।
नक्सलियों के लिए आत्मसमर्पण करना फायदेमंद साबित हो रहा है और सरकार भी चाहती है कि नक्सलियों को मारने से बचा जाए क्योंकि वो हमारे ही आदिवासी भाई हैं। सरकार की कोशिश रंग ला रही है और नक्सली सरकारी योजना का लाभ उठाने के लिए हथियार डाल रहे हैं। गृह मंत्रालय का कहना है कि अब देश में सिर्फ सात ज़िले ही सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित रह गए हैं। छत्तीसगढ़ के तीन ज़िले, बीजापुर, नारायणपुर और सुकमा सबसे ज्यादा प्रभावित हैं जबकि कांकेर (छत्तीसगढ़), बालाघाट (म.प्र.), पश्चिमी सिंहभूम (झारखंड) व गढ़चिरौली (महाराष्ट्र) ज़िलों की स्थिति भी चिंताजनक है। मध्य प्रदेश के नक्सल प्रभावित बालाघाट ज़िले में छत्तीसगढ़ के बीजापुर की महिला माओवादी सुनिता ओयाम ने आत्मसमर्पण किया है। पर तीन राज्यों ने 14 लाख रुपये का इनाम रखा हुआ है। गढ़चिरौली के भूपति ने भी हथियार डालकर अपने साथियों से अपील की है कि वो मुख्यधारा में शामिल हो जायें।
सिर्फ कुछ दिनों में 400 से ज्यादा नक्सलियों ने हथियार डाल दिए हैं। सरकार का कहना है कि इस साल अभी तक 1225 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण कर दिया है और यह क्रिया अभी जारी है। 2023 में 1045 और 2024 में 881 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया था। सरकार का कहना है कि सिर्फ 38 ज़िले ऐसे बचे हैं जहां नक्सलियों का प्रभाव है। माओवादियों के शीर्ष नेताओं और बड़ी संख्या में उनके कैडर के आत्मसमर्पण के बाद सरकार 26 जनवरी, 2026 को भारत को नक्सल मुक्त घोषित कर सकती है, हालांकि सरकार ने इसके लिए 31 मार्च, 2026 का लक्ष्य रखा है। पहले प्रधानमंत्री मोदी इस मुद्दे पर बात नहीं करते थे लेकिन अब वो कई बार कह चुके हैं कि सरकार देश को नक्सल मुक्त करने जा रही है। इससे पता चलता है कि सरकार इस काम को बहुत गंभीरता से ले रही है।
सवाल यह है कि सरकार को नक्सलियों को खत्म करने में इतनी सफलता कैसे मिल रही है? ऐसा नहीं है कि नक्सलियों में मानवता जाग गई है या उनका अपनी विचारधारा से विश्वास उठ गया है। वास्तव में पहले राज्य पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बल नक्सलियों से लड़ रहे थे लेकिन 2008 में छत्तीसगढ़ सरकार ने उनसे निपटने के लिए एक नए बल ज़िला रिजर्व गार्ड (डीआरजी) की स्थापना की। इसमें स्थानीय आदिवासी युवकों को भर्ती किया गया। आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को भी इसका हिस्सा बनाया गया। इनसे सामान्य पुलिस का काम नहीं लिया गया ताकि ये लोग नक्सलियों के खिलाफ कार्यवाही करते रहें। इस काम में इन्हें अपने जवानों को भी खोना पड़ा है लेकिन इनकी कार्यवाही से नक्सलियों में खौफ पैदा हो गया है। डीआरजी ने कई बड़े महत्वपूर्ण ऑपरेशन किये हैं, जिसके कारण छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की कमर टूट गई और पूरे नक्सलवाद पर उसका असर पड़ा है।
इस बल की स्थापना सलवा जुडूम के विकल्प के रूप में कई गयी थी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम पर रोक लगा दी थी। इसमें पुराने नक्सली हैं, जो नक्सलियों की कार्यप्रणाली को अच्छी तरह से जानते हैं। इसके अलावा स्थानीय अदिवासी युवा और पूर्व नक्सली नक्सलियों के इलाके को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, जिसके कारण ये लोग नक्सलियों के खिलाफ असरदार कार्यवाही करने में सक्षम होते हैं और नुकसान भी कम होता है। इन्होंने ही नक्सलियों के दुर्गम अड्डों तक पहुंचकर उनके नेताओं को निशाना बनाया। ये नियमित पुलिस बल नहीं है, इसलिए सवाल उठता है कि अगर नक्सलवाद खत्म हो जाता है तो इनका सरकार क्या करेगी। सरकार को उनके पुनर्वास का इंतजाम करना होगा।
बेशक नक्सलवाद को खत्म करना ज़रूरी है लेकिन यह दोबारा उभरने न पाए, इसके लिए भी कोशिश करनी होगी। यह तभी संभव होगा, जब आदिवासी अपने आपको उपेक्षित महसूस न करें। आदिवासी समाज को लोकतांत्रिक तरीकों से अपना अधिकार पाने की शिक्षा देनी होगी। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा व्यवस्था को कुछ सालों तक कायम रखना होगा ताकि दोबारा वहां कोई संगठन अपने अड्डे न बना सके। मोदी सरकार को नक्सलवाद के खिलाफ की गई कार्यवाही के लिए भारत का इतिहास याद रखेगा। देखा जाए तो नक्सलवाद, आतंकवाद से भी बड़ा खतरा है, क्योंकि इसका विस्तार ऐसे इलाकों में है, जहां पुलिस के लिए कार्यवाही करना आसान नहीं। आतंकवादियों से ज्यादा खून नक्सलियों ने बहाया है और इनका वैचारिक आधार भी मज़बूत है। इसके लिए किसी दूसरे देश को दोष नहीं दिया जा सकता। सरकार की सफलता को छोटा नहीं समझा जाना चाहिए और स्वीकार करना चाहिए कि सरकार ने देश हित में बड़ी सफलता हासिल की है।



