करुणा, सत्य और समानता की अमर ज्योति गुरु नानक देव
कार्तिक पूर्णिमा की निर्मल चांदनी में जब आध्यात्मिकता का उजास फैला होता है, सिख धर्म के प्रवर्तक और पहले गुरु श्री गुरु नानक देव जी के प्रकाश पर्व की ज्योति मानवता के अंतर्मन को आलोकित करने के लिए धरा पर उतरती है। वह न केवल सिख समुदाय के प्रेरणास्रोत हैं बल्कि सम्पूर्ण मानवता के पथप्रदर्शक भी हैं। उनकी वाणी, उनके कर्म और उनके उपदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने साढ़े पांच शताब्दियां पूर्व थे। उनके सिद्धांत ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी की कारा को तोड़कर प्रत्येक मनुष्य को प्रेम, करुणा और समानता की चादर ओढ़ाते हैं, जो युग-युगांतर तक समाज के लिए प्रासंगिक रहेंगे। उनके व्यक्तित्व से न केवल आध्यात्मिकता की सुवास मिलती है बल्कि मनुष्यत्व की गरिमा और समानता का संदेश भी झरता है। 1469 में तलवंडी नामक स्थान पर उनका जन्म हुआ, जो अब पाकिस्तान के ननकाना साहिब के रूप में प्रसिद्ध है। प्रतिवर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा को उनके जन्मदिवस के रूप में ‘प्रकाश पर्व’ मनाया जाता है। 5 नवम्बर 2025 को श्री गुरु नानक देव जी का 556वां प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है। यह दिन उनके जीवन से उत्पन्न उस ज्योति का प्रतीक है, जिसने अंधकार में भटकती मानवता को सत्य, प्रेम और एकता का मार्ग दिखाया।
गुरु नानक जी बचपन से ही विरले गुणों के धनी थे। जब अन्य बालक खिलौनों और खेलों में रमे रहते, नन्हे नानक ध्यान और कीर्तन में लीन रहते। ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा और सत्य की खोज ने उन्हें बचपन से ही भीड़ से अलग कर दिया था। विवाह के पश्चात भी उनके अंतर्मन में आध्यात्मिक साधना की आग और ईश्वर प्राप्ति की प्यास शांत नहीं हुई। सांसारिक मोह-माया से विमुख होकर उन्होंने अपनी जीवनयात्रा को लोककल्याण के लिए समर्पित कर दिया। जब उनके पिता ने उन्हें व्यापार हेतु कुछ धन प्रदान किया तो उन्होंने उस धन से भूखों को भोजन कराया और लौटकर कहा, ‘मैंने सच्चा सौदा कर लिया।’ इससे बढ़कर व्यापार और क्या हो सकता है, जिसमें आत्मिक तृप्ति और परोपकार की निधि प्राप्त हो। बाद में वही स्थान ‘गुरुद्वारा सच्चा सौदा’ कहलाया।
गुरु नानक का जीवन केवल उपदेशों की माला नहीं था बल्कि समाज के हर स्तर पर समानता और न्याय का जीवंत प्रयोग था। जब उन्हें शहर के अमीर भागो मलिक ने अपने यहां भोजन के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने उसका आमंत्रण अस्वीकार कर एक गरीब मजदूर के घर भोजन करना स्वीकार किया। जब उन्होंने मलिक भागो के व्यंजनों और मजदूर की रोटी को अलग-अलग रूप में दबाया तो रोटी से दूध और भागो के व्यंजन से रक्त की धारा निकली। यह दृश्य केवल चमत्कार नहीं बल्कि न्याय और करुणा का साक्षात् उपदेश था कि मनुष्य की श्रेष्ठता धन से नहीं, उसके कर्मों से होती है। उनकी शिक्षा थी कि भेदभाव के बिना सबको ईश्वर की संतान समझा जाए। वह कहा करते थे ‘एक पिता, एकस के हम बारिक।’ इसका तात्पर्य था कि सृष्टि में कोई ऊंच-नीच नहीं, सब समान हैं। वह जाति, सम्प्रदाय और धर्म के बंधनों से ऊपर उठकर ‘मानवता’ को धर्म का सर्वोच्च स्वरूप मानते थे।
वह जीवन भर हर कर्म में विवेक का आलोक भरते गए। कपूरथला के सुल्तानपुर लोधी में एक दिन उन्होंने वैन नदी में डुबकी लगाई और तीन दिन तक दृश्यमान नहीं हुए। जब वे प्रकट हुए तो उनके मुख से निकला ‘एक ओंकार सतनाम।’ यही वह क्षण था, जब उन्होंने ईश्वर के विराट स्वरूप का साक्षात्कार किया। उसी स्थान पर आज ‘गुरुद्वारा बेर साहिब’ स्थापित है, जहां उन्होंने एक बेर का पौधा लगाया था, जो आज भी श्रद्धा का प्रतीक बना खड़ा है। गुरु नानक जी की शिक्षाओं का सार प्रेम, सत्य और सेवा में निहित रहना है। उनके जीवन के प्रसंगों में यह स्पष्ट झलकता है कि उन्होंने दूसरों के कल्याण के लिए स्वयं का सुख त्यागने में कभी संकोच नहीं किया। उनकी यात्राएं, जिन्हें चार उदासियों के नाम से जाना जाता है, भारत ही नहीं बल्कि संसार के अनेक हिस्सों में फैलीं। वह जहां भी गए, वहां की जनता को भ्रमों से निकाल कर एक ईश्वर, एक मानवता के सिद्धांत से जोड़ा। उन्होंने कहा कि सत्य की राह पर चलना ही सच्ची भक्ति है और सेवा बिना धर्म अधूरा है।
उत्तराखंड का ‘रीठा साहिब’ गुरुद्वारा भी उनकी दिव्य यात्रा का अंश है। कहा जाता है कि जब वह मरदाना के साथ वहां पहुंचे तो उन्होंने कड़वे रीठे को आशीर्वाद से मीठा बना दिया। आज भी उस गुरुद्वारे में श्रद्धालुओं को प्रसाद स्वरूप वही मीठे रीठे दिए जाते हैं, जो उनकी करुणा और ईश्वरीय शक्ति की याद दिलाते हैं। यह स्थल बताता है कि गुरु नानक देव केवल संत नहीं, प्रेम और करुणा के सजीव प्रतीक थे, जिन्होंने जीवन के कड़वे अनुभवों को भी मधुरता में बदलने की सीख दी। उन्होंने जो जीवन जिया, वह आज की दुनिया के लिए सदैव प्रेरणा का स्रोत रहेगा। जब समाज ऊंच-नीच, धर्म और जाति के भेदभाव में उलझा हुआ है, तब गुरु नानक देव जी का संदेश और भी आवश्यक हो जाता है। उनकी वाणी गूंजती है, ‘ना कोई हिंदू, ना कोई मुसलमान, सब एक ही ज्योति से उत्पन्न हैं।’ इस विचार ने उस युग में मानवतावाद की नींव रखी, जब समाज वर्गों और मतों में बंटा हुआ था।
गुरु नानक देव जी का समूचा जीवन करुणा, सहिष्णुता और सत्य की तपस्वी गाथा है। उन्होंने दिखाया कि धर्म बाहरी चिन्हों में नहीं बल्कि भीतर की पवित्रता में बसता है। उनका सिद्धांत था, मेहनत करो, सच्चा जीवन जियो और ज़रूरतमंदों के साथ बांटो। ‘नाम जपो, किरत करो, वंड छको’ का मूल मंत्र आज भी हर इन्सान को नैतिक जीवन की राह दिखाता है। उनकी शिक्षाओं में न कोई काल की सीमा है और न स्थान की। गुरु नानक देव जी का प्रकाश केवल दीपों से नहीं बल्कि उन हृदयों से फैलता है, जो प्रेम, सेवा और सत्य के मार्ग पर चलते हैं। उनके उपदेश सदियों से मानवता को सिखाते रहे हैं कि सच्चा जीवन वही है, जो दूसरों के दु:ख को अपना मान कर उनके कल्याण के लिए समर्पित हो। उनकी शिक्षाएं केवल सिख धर्म की सीमा तक सीमित नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता की धरोहर हैं।



