मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण से आखिर क्या होगा हासिल ?

चुनाव आयोग ने बिहार में कराई गई एसआईआर पर उठाये गये सवालों के जवाब दिये बिना देश के 12 राज्यों में भी एसआईआर कराने का फरमान जारी कर दिया है। आखिरकार भारतीय जनता पार्टी, केंद्र सरकार और चुनाव आयोग मिल कर करना क्या चाहते हैं? मुझे साफ तौर पर ऐसा लगता है कि यह एक संगीन तिकड़म है जो तीनों मिल कर हमारे लोकतंत्र के खिलाफ करने में लगे हुए हैं। 2024 में बहुमत खोने से सकते में आने के बाद मोदी, संघ और उनके रणनीतिकार किसी ऐसे हथकंडे की तलाश में थे जो चुनाव में उनकी जीत सुनिश्चित कर सके। ज्ञानेश कुमार के नेतृत्व में चुनाव आयोग उनकी इस योजना को लागू करने में जुटा हुआ है। इसी जगह मुझे राष्ट्रीय जनता दल की युवा प्रवक्ता प्रियंका भारती की कल की सटीक टिप्पणी याद आ रही है जिसमें उन्होंने कहा था कि भाजपा वाकई में नॉनबायोलोजिकलों की पार्टी है। तभी तो ज्ञानेश जी की आत्मा अमित शाह में घुस जाती है और अमित शाह जी की आत्मा ज्ञानेश जी में। गृहमंत्री, मुख्य चुनाव आयुक्त घुसपैठिया खोज रहे हैं। एक फेज़ में चुनाव कराएंगे, इसकी घोषणा कर रहे हैं। एक-दूसरे का काम कर रहे हैं दोनों और दोनों ही फेल हैं।  
इस संगीन तिकड़म के दो आयाम हैं.. पहला है एसआईआर और दूसरा है घुसपैठिया। वोटर लिस्टों से घुसपैठियों को निकालना है इसलिए एसआईआर करना ज़रूरी है। सब कुछ घुसपैठियों के नाम पर हो रहा है। यह घुसपैठिया है कहां? क्या यह देख कर ताज्जुब नहीं होता कि बिहार में इतनी बड़ी एसआईआर की कवायद के बाद भी आज तक एक भी घुसपैठिये की अधिकारिक शिनाख्त नहीं हुई है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी द्वारा और गृहमंत्री अमित शाह द्वारा बार-बार घुसपैठियों को निकालने के लिए एसआईआर की कवायद करने का दावा किया जा रहा है। ध्यान रहे कि यह वही सरकार है जिसका रिकॉर्ड पिछले 11 साल में घुसपैठियों की शिनाख्त करने, उन्हें पकड़ने और डिपोर्ट करने के मामले में बेहद खराब रहा है। इस सरकार ने पिछले 11 साल में कुल मिला कर 5 से 6 हज़ार के बीच घुसपैठिये पकड़ कर डिपोर्ट किये हैं। जबकि पिछली कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने 82 हज़ार से ज़्यादा घुसपैठिये पकड़ कर डिपोर्ट किये थे। उम्मीद थी कि 30 सितम्बर के बाद जारी अंतिम मतदाता सूची से पता चल जाएगा कि आयोग को बिहार में कितने घुसपैठिये मिले लेकिन अभी तक यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने भी आयोग से घुसपैठियों की विस्तृत जानकारी मांगी थी, लेकिन वह भी नहीं दी गई। 
ख़ास बात यह है कि भाजपा के सभी लोग, शीर्ष नेताओं से लेकर आम प्रवक्ताओं तक, सभी घुसपैठियों का रोना रो रहे हैं लेकिन यह कोई नहीं बताता कि पिछले 11 साल में इस सरकार ने अपनी कोई घुसपैठिया पॉलिसी क्यों नहीं बनाई, कोई मैकेनिज़म क्यों तैयार नहीं किया, कोई ऐसी टीम क्यों नहीं बनाई जिसका काम केवल घुसपैठियों को पकड़ना और वापिस भेजना होता। मेरे एक दोस्त ने ठीक ही कहा है कि भाजपा के शासन काल में घुसपैठिया नामक एक चुनावी पर्यटक पैदा हो गया है। जैसे ही चुनाव आता है भाजपा घुसपैठिया-घुसपैठिया चिल्लाने लगती है। चुनाव खत्म होते ही यह पर्यटक गायब हो जाता है। उस दोस्त का यह भी कहना था कि छह महीने बाद घुसपैठिया शब्द सुनने को भी नहीं मिलेगा क्योंकि तब तक ज्यादातर विधानसभा चुनाव हो चुकेंगे। जब नये चुनाव आएंगे तो फिर से घुसपैठिया प्रकट किया जाएगा। भाजपा को पूरा विश्वास है कि भले ही वह एक-दो चुनाव हार जाए लेकिन अंतत: घुसपैठियों का डर दिखा कर वह एसआईआर करने की दलील मतदाताओं के गले के नीचे उतार देगी। झारखंड के चुनाव में भी उसे घुसपैठियों का मसला जोरदारी से उठाया था लेकिन हार गई। ज़ाहिर है कि वह विधानसभा चुनाव हारना कबूल कर सकती है लेकिन लोकसभा चुनाव हारना नहीं। उसके रणनीतिकारों को यकीन है कि इसी तरह से घुसपैठियों के नाम पर एसआईआर करके वह वह ऐसी मतदाता सूची तैयार कर सकती है जिसके ज़रिये वह ज्यादा आसानी से चुनाव जीत सकेगी।
इसीलिए मुख्य चुनाव आयुक्त ने बिहार एसआईआर पर उठाये गये सवालों का जवाब देने की जहमत नहीं उठाई, और 12 राज्यों में एसआईआर करने का ऐलान कर दिया। बिहार में स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन के दौरान कई सवाल उठे, जिनमें से अधिकांश चुनाव आयोग द्वारा आजतक अनुत्तरित ही रहे हैं। ये सवाल मुख्य रूप से वोटर लिस्ट से 47 लाख नाम हटाने, नए वोटरों को जोड़ने, अवैध प्रवासियों की पहचान और प्रक्रिया की पारदर्शिता से जुड़े हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी 7 और 8 अक्तूबर को से नाम हटाने के कारणों और सूची सार्वजनिक करने का निर्देश दियाए लेकिन अभी तक कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी गई। यह सवाल बार-बार पूछा जाना चाहिए कि 47 लाख नाम हटाने के कारणों का विस्तृत ब्रेकअप क्यों नहीं दिया गया? आयोग ने बताया कि नाम हटाए गए (मृत, स्थानांतरित, अनट्रेसेबल आदि श्रेणियों में), लेकिन सटीक संख्या और कारणों की सूची सार्वजनिक नहीं की। सुप्रीम कोर्ट ने हटाए गए नामों और कारणों की सूची प्रकाशित करने को कहा, लेकिन अक्तूबर तक इसका अनुपालन नहीं हुआ। यह भी पता नहीं चला कि ड्राफ्ट लिस्ट से फाइनल लिस्ट में 3.66 लाख नाम क्यों हटाए गए? ये नाम ड्राफ्ट में शामिल थे लेकिन दस्तावेजों की कमी या अन्य कारणों से हटा दिए गए। आयोग ने स्पष्ट नहीं किया कि ये कितने वैध थे और क्या वे बिना दस्तावेज जोड़े गए थे। किसी को नहीं पता है कि कितने ‘अवैध विदेशी प्रवासी’ पाए गए? ईसीआई ने एसआईआर की ज़रूरत एक बड़ा कारण अवैध प्रवासियों की मौजूदगी बताया था, लेकिन कोई संख्या या सूची जारी नहीं की। बांग्लादेशी/म्यांमार नागरिकों की पहचान पर भी चुप्पी रखी गई। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद आधार को वैध दस्तावेज क्यों नहीं माना जा रहा है? वोटर क्लेम्स के लिए आधार स्वीकार्य क्यों नहीं है, जबकि अन्य दस्तावेज हैं? यह भी आज तक रहस्य बना हुआ है कि एसआईआर का फैसला कैसे लिया गया? कोई फाइलेंध्रिकॉर्ड क्यों नहीं? राजनीतिक दलों से परामर्श क्यों नहीं किया गया? 2021-22 का सिद्धांत क्यों छोड़ा? विधानसभा चुनाव से पहले एसआईआर न करने का पुराना नियम क्यों तोड़ा।
12 राज्यों में एसआईआर के फैसले की आलोचना करते हुए योगेंद्र यादव ने ठीक ही कहा है कि जो पहले तुगलकी फरमान था वह अब एक शातिर तिकड़म में बदल गया है। एसआईआर के दूसरे चरण की घोषणा से साफ है कि जो पहले बम था, इधर-उधर तहस-नहस करने वाला था, अब उसे बंदूक-पिस्तौल में बदल दिया गया है ताकि निशाना एकदम हिट किया जा सके। योगेंद्र जी का कहना है कि चरित्र वही है, स्वरूप बदल गया है। साफ है कि चुनाव आयोग को इस वोटर लिस्ट की सफाई में दिलचस्पी नहीं है। एसआईआर वोटर लिस्ट की सफाई नहीं सफाया है, कैंची चलाने का तरीका है। योगेंद्र जी ने कहा कि आज की प्रेस कांफ्रैंस से साफ था कि चुनाव आयोग को डिडुप्लीकेशन में कोई दिलचस्पी नहीं है। कम्प्यूटर का इस्तेमाल करके जो जंक नाम हैं, ऊटपटांग चीज़ें हैं, उनकी सफाई करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। क्योंकि वह उद्देश्य नहीं है। उद्देश्य है वोटर लिस्ट से कुछ खास नामों को काटना। हां, इतना ज़रूर है कि चुनाव आयोग ने जो बेवकूफियां की थीं, जिससे उसे खुद नुकसान हुए थे बिहार में, वे कम हो गए हैं। अब ज़रा तैयारी के साथ करेंगे। जिनका नाम काटना नहीं है, उन सब लोगों से  डॉक्युमेंट लेने की ज़रूरत क्या है। उनसे डॉक्युमेंट नहीं मांगे जाएंगे। और पहले से तैयारी करके लोगों के नाम को 2002-03 से जोड़ दिया जाएगा। और चुनाव आयोग सहूलियत के लिए बीएलए को सहूलियत दे दी गई है कि आप भी एन्युमरेशन फॉर्म जमा कर सकते हैं। लेकिन जो बेसिक चरित्र है, वह नहीं बदला है। पहली और सबसे गड़बड़ चीज़ चल रही है, वह यही है कि आपको वोट का अधिकार तभी मिलेगा जब आप एन्युमरेशन फॉर्म को एक महीने के भीतर जमा कराएंगे, अगर नहीं कराएंगे तो कोई नोटिस नहीं, कोई हियरिंग नहीं, कोई अपील नहीं, आपका नाम कट जाएगा। डॉक्युमेंट्स थोड़े लोगों से मांगे जाएंगे लेकिन वही डॉक्युमेंट्स मांगे जाएंगे जो पहले थे। न राशन कार्ड, न चुनाव आयोग का एपिक कार्ड, न ड्राइविंग लाइसेंस, न पेन कार्ड और आधार पर भी चुनाव आयोग तैयार नहीं है सुप्रीम कोर्ट की बात मानने के लिए। 
इस लेख उपसंहार योगेंद्र जी के इस कथन से ही किया जाना चाहिए कि यह कवायद मूलत: सिटीज़नशिप चैक करने की कवायद है। क्योंकि, किस नियम के तहत दस्तावेज़ों को चैक किया जाएगा, उसमें कोई स्पष्टता नहीं है। यह मनमर्जी से होगा, मनमर्जी मतलब, रूलिंग पार्टी की मर्जी से। नाम सिटीज़न का लेंगे, नाम फोरनर का लेंगे, लेकिन बताएंगे नहीं कि बिहार में कितने फोरनर पकड़े गये। ज़ाहिर है कि अभी भी एसआईआर लोकतंत्र का जो मूलभूत सिद्धांत है यानी युनिवर्सल एडल्ट ़फ्रेंचाइज़ के खिलाफ है और इसके खिलाफ संघर्ष जारी रहेगा। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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