औद्योगिक विकास की धीमी गति के लिए ज़िम्मेदार कौन ?

हमारे प्राकृतिक, मानवीय और आर्थिक संसाधन किसी भी विकसित देश से कम नहीं हैं, बल्कि अनेक क्षेत्रों में हमारा वर्चस्व है, जैसे कि हिमालय पर्वत शृंखला, नदियों की विशालता, मूल्यवान खनिज पदार्थ, घने जंगल, वैकल्पिक ऊर्जा के अक्षय भंडार तथा सभी तरह के मौसम। सबसे अधिक युवाओं की संख्या है। उनके व्यापार करने, औद्योगिक इकाइयां बनाने और घरेलू उपभोग और निर्यात के लिए वैश्विक बाज़ार में प्रतियोगी बनने की अपार संभावनाएं हैं। इतना कुछ होते हुए भी भारत पर अविकसित या विकासशील देश होने का ठप्पा लगा हुआ है। ऐसा क्यों है?
उद्योगों की स्थिति और उद्यमियों के अनुभव : देश में उद्यमिता का विकास और अपना लघु, मध्यम और बड़ा उद्योग लगाने के लिए अनेक योजनाएं लगातार बनाई जाती रही हैं लेकिन घोषणा करने के बाद सरकार भूल जाती है कि उन पर अमल भी करना और करवाना होता है। आंकड़ों के अनुसार इन योजनाओं के ज़रिए जो इकाइयां शुरू हुईं, युवाओं के सपनों का आधार बनीं और विश्व स्तरीय उत्पाद बनाने में अग्रणी बनने का सपना संजोए हुई थीं, उनमें से 60 प्रतिशत से अधिक और कुछ क्षेत्रों में 95 प्रतिशत तक बंद हो गईं। घाटे के कारण बीमारू बन गईं तथा उनके संचालक कज़र्दार होकर सब कुछ बेच कर किसी नौकरी की तलाश करने लगे। परिणामय उद्योगों की विकास दर 4 प्रतिशत से कम हो गई जबकि विकसित देश कहलाने के लिए यह 10 से 20 प्रतिशत वार्षिक होनी चाहिए थी। प्रदेशों की राजधानियों और प्रमुख शहरों में औद्योगिक विकास प्राधिकरण स्थापित हैं। इनकी कार्यप्रणाली समझने के लिए एक युवा उद्यमी का अनुभव इस प्रकार है—एक अथॉरिटी सन् 2016-17 में एक औद्योगिक सेक्टर में ज़मीन प्राप्त करने के लिए विज्ञापन देती है। लोग आवेदन करते हैं, ज़रूरी राशि जमा करते हैं और ड्रा होने पर जो सफल होते हैं, वे आगे की योजना बनाने लगते हैं। उसे जब आवंटन हुआ तो वह खुश ही नहीं हुआ, बल्कि सुनहरे भविष्य की कल्पना करने लगा। सेक्टर में जाता है तो देखता है कि वहां जंगल जैसा वातावरण है, मवेशी घूम रहे हैं और पास में बसे गांवों के लोग उस जगह का इस्तेमाल कूड़ा फैंकने के लिए कर रहे थे। उसने बैंक से कज़र् लेकर निर्माण के लिए ज़रूरी प्रबंध करके लगभग तीन वर्षों में अपने प्लाट को पहचान के योग्य बनाया। उसके बाद कोरोना के कारण सब कुछ बंद हो गया। इस सब में 5-6 वर्ष निकल गए,  2022-23 तक कुछ उद्यमियों ने निर्माण किया और शेष भी करने की योजना बनाने लगे क्योंकि अथॉरिटी द्वारा निर्माण के लिए दी गई समय-सीमा समाप्त होने वाली थी। उसके बाद इसे बढ़ाने के लिए मोटा शुल्क देकर मंज़ूरी का इंतज़ार करना था। इस बीच अथॉरिटी अपनी सभी राशि जैसे कि किश्तों में प्लॉट की भारी ब्याज सहित पूरी रकम, वार्षिक लीज रेंट और अनेक मदों के अंतर्गत भुगतान जैसे बिजली, पानी, सीवर आदि के लिए वसूल चुकी थी और उद्यमी बैंक के कज़र्दार बन चुके थे। किसी तरह सन् 2024-25 तक काफी यूनिट तैयार हो गईं। 
इस व्यक्ति ने सोचा था कि 2 साल में यूनिट लग जाएगी और बैंक की किश्तें और अन्य खर्च निकलने लगेंगे और जीवन खुशहाली की तरफ बढ़ने लगेगा, परन्तु बैंक की देनदारी बढ़ गई और सोचने लगा किसी तरह यूनिट चालू हो जाए। अथॉरिटी को इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि उद्यमी की मुश्किलें आसान की जायें। उसे अपनी वसूली से मतलब था। स्थिति यह थी कि यूनिट तक कर्मचारियों का पहुंचना आसान नहीं था। न मेट्रो, न बस या कोई और आने-जाने का साधन। न सुरक्षा व्यवस्था, न कोई स्वास्थ्य सुविधा, न ही कोई दुकान या कोई रेस्टोरेंट और न ही कोई इमरजेंसी सेवा, ऐसे में अधिक वेतन का लालच भी काम नहीं करता।
प्रशासन की हकीकत : नक्शा पास कराने में और सभी औपचारिकताएं पूरी करने में एक से डेढ़ साल लगना मामूली बात है। अथॉरिटी एक बार में सभी कमियां नहीं बताती। सम्पूर्ण सर्टीफिकेट लेने के लिए 6 महीने से एक साल तक लग जाता है। फिर कार्यशील सर्टिफिकेट के लिए यही प्रक्रिया अपनाई जाती है। कहा जाता है कि कारोबार करना बहुत आसान है, सब कुछ ऑनलाइन है, सिंगल विंडो क्लीयरेंस है, अगर कोई शिकायत है तो सीधे मुख्यमंत्री के पोर्टल पर दर्ज कीजिए, कार्यवाही होगी। जो युवा अपनी उम्र के 7-8 साल अपनी यूनिट स्थापित करने में गंवा चुका है, करोड़ों की देनदारी अपने सिर पर ढो रहा है, वह क्या शिकायत करने की हिम्मत करेगा?
होना तो यह चाहिए था कि औद्योगिक सेक्टर में प्लॉट आवंटन से पहले ही सड़क, आवागमन के साधन, बिजली, पानी आपूर्ति की व्यवस्था, सीवर कनेक्शन आदि हो जाना चाहिए था। क्या कभी कोई मुख्यमंत्री इस स्थिति का मुआयना और प्रशासनिक लापरवाही के लिए किसी को दंडित करेगा? नियम ऐसे हैं कि युवा उद्यमियों के लिए समझना और पूरा करना टेढ़ी खीर है परंतु पालन करना मजबूरी है। पांच घंटे में होने वाला काम पांच दिन में हो जाए तो समझ सकते हैं लेकिन पांच महीने से ज़्यादा या अनेक वर्ष लगना मामूली बात है। 
आर्थिक शक्ति बनने का सपना : औद्योगिक विकास ही विकसित देशों की श्रेणी में ला सकता है। विनिर्माण, रोज़गार सृजन और निर्यातक देशों में अपनी पहचान उद्योगों द्वारा आधुनिक टेक्नोलॉजी अपनाने से ही बन सकती है।  इसके लिए बंद हो चुकी और घाटे में डूबी इकाईयों के पुनरुद्धार की ज़रूरत है। इससे करोड़ों श्रमिकों का भविष्य सुरक्षित होगा, अपने घोषित स्मार्ट औद्योगिक नगरों की स्थापना के लक्ष्य को पूरा करना आसान होगा। अभी लगभग 40 प्रतिशत इकाइयां बीमार हैं, आर्थिक मंदी का शिकार हैं, उनके पास वित्तीय संसाधन नहीं हैं, कुशल और प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव उनकी मुसीबत बढ़ा रहा है, प्रोडक्शन और मार्केटिंग के लिए कोई चैनल नहीं है।  
इस विकट स्थिति का लाभ बड़े और समर्थ उद्योगपतियों को मिल रहा है। वे औने-पौने दामों पर इन यूनिटों की खरीद कर रहे हैं और जो सुविधा सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) को मिलनी थी, उसे वे ले रहे हैं। बड़े उद्योगपतियों के साम्राज्य का बिना किसी प्रतियोगिता के विस्तार हो रहा है। उनकी नेटवर्थ भारत ही नहीं दुनिया में नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है। यह सब हमारे एमएसएमई सेक्टर का विनाश करने की नीति पर चलकर ही संभव हो रहा है। सरकार यह सब जानती है। कोई भी उद्यमी अपनी यूनिट जानबूझकर बंद नहीं करता बल्कि मज़बूती से डटे रहने का हर संभव प्रयास करता है लेकिन जो बड़े उद्योगपति हैं, वे उसे निगलने में कामयाब हो ही जाते हैं। उनके लाखों करोड़ के कज़र् माफ हो जाते हैं और सीएसआर गतिविधियां शुरू करने के नाम पर सरकार उन्हें सम्मानित भी करती है। प्रश्न यही है कि क्या यह स्थिति कभी बदलेगी?

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