बिहार में तेजस्वी यादव जीत सकते हैं अधिकतर सीटें !

बिहार में 14 नवम्बर को वोटों की गिनती होगी। चुनाव नतीजे मतदाताओं का विशेषाधिकार हैं। मैं अपनी भविष्यवाणी करके इसमें हस्तक्षेप की जुर्रत नहीं करना चाहता लेकिन मैं इतना तो कर ही सकता हूँ कि देखूं कि किस नेता और किस पार्टी के हाथ में इस समय कौन सा लड्डू है और किसका लड्डू बड़ा है, किसका छोटा है। मेरे इस आकलन की एक पृष्ठभूमि है जिसके ज़िक्र से मैं अपनी बात शुरू करूंगा। मेरा आकलन यह है कि बिहार के इस चुनाव में टक्कर दो के बीच नहीं बल्कि तीन के बीच है। गलत मत समझिये। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बिहार के इस चुनाव में टक्कर महागठबंधन, एनडीए और प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी के बीच में है। मैं कह यह रहा हूँ कि बिहार के इस चुनाव में टक्कर महागठबंधन, नितीश कुमार के जनता दल-युनाइटेड और भाजपा के बीच में है। हकीकत यह लग रही है कि एनडीए की दोनों बड़ी पार्टियां अपनी-अपनी गोटी लाल करने के लिए अलग-अलग स्वार्थों से, अलग-अलग एजेंडों के साथ लड़ती हुई दिखाई दी हैं। दोनों के पास बराबर-बराबर टिकट थे और दोनों एक-दूसरे के साथ होड़ में उलझी हुई थीं कि एनडीए का सिरमौर कौन बनेगा। महागठबंधन के साथ यह स्थिति नहीं थी। कई पार्टियों का यह गठजोड़ एकजुट होकर लड़ रहा था। यह ज़रूर है कि इसकी एकजुटता भी परफेक्ट नहीं थी। 9 सीटों पर इसमें भी तथाकथित दोस्ताना संघर्ष चल रहा था लेकिन यह दोस्ताना संघर्ष एनडीए की तरह घटक दलों के आपसी संघर्ष में पतित नहीं हुआ था। इसकी एक संरचनात्मक वज़ह रही। यह थी महागठबंधन में राजद की प्रधान भूमिका। राजद अकेला ही 154 सीटों पर लड़ रहा है। कोई पार्टी चाहे तो भी उससे होड़ नहीं कर सकती। सरकार अगर महागठबंधन की बनेगी, तो वहां इसमें भी कोई शक नहीं है कि उसका नेतृत्व कौन करेगा। बागडोर तेजस्वी को ही मिलेगी। एनडीए में यह तय होना अभी बाकी है कि अगर उसकी सरकार बनेगी तो बागडोर किसके हाथ में होगी। इस संरचनात्मक अंतर के कारण ही चुनावी मुहिम खत्म होने के साथ ही बिहार के क्षितिज पर तीन पार्टियों की होड़ उभर आई है, भले ही इसमें दो पार्टियां एक ही गठबंधन की क्यों न हों। 
मेरे आकलन के अनुसार सबसे बड़ा लड्डू तेजस्वी के एक हाथ में रहेगा। यानी, उनके हिस्से में सबसे ज्यादा सीटें आएंगी, याद रहे 2020 के चुनाव में भी यही हुआ था। तो क्या उनका दूसरा हाथ खाली रहेगा। नहीं उस हाथ में भी एक छोटा लड्डू होगा लेकिन उपयोगिता क्या होगी, यह चुनाव परिणामों पर निर्भर होगा। अगर एनडीए में भाजपा ज्यादा जीती, और नितीश कम जीते और तेजस्वी पहले की तरह अस्सी के आस-पास रह गए, उससे आगे न बढ़ पाए तो उनके दूसरे हाथ के छोटे लड्डू में अपने-आप नितीश के हाथ में चुनाव परिणामों द्वारा थमाया गया भाजपा के मुकाबले छोटा लड्डू शर्तिया जुड़ जाएगा, क्योंकि उस सूरत में भाजपा इस बार नितीश को किसी कीमत पर मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहेगी। वह अपनी पुरानी महत्त्वाकांक्षा पूरी करेगी और अपने किसी बंदे को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाएगी। सम्राट चौधरी के नाम को उसने घुमा फिरा कर आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है लेकिन इसकी संभावना कुछ क्षीण सी लग रही है क्योंकि भाजपा के हाथ का लड्डू सबसे छोटा होगा। एनडीए की दोनों पार्टियों के पहले चरण में प्रदर्शन की जो झलक मिली है उससे लगता है कि नितीश भाजपा से आगे रहेंगे। यह भाजपा की भी समझ में आ गया है। इसीलिए दूसरे चरण के प्रचार में उसने नितीश के प्रति अपना रवैया नरम किया है लेकिन यह नरमी इस हद तक नहीं गई है कि प्रधानमंत्री या गृहमंत्री उन्हें मुख्यमंत्री का अधिकृत चेहरा घोषित कर देते। मेरे आकलन का तीसरा बिंदु यह है कि भाजपा इस चुनाव में तीसरे नंबर पर रहने वाली है। आज की तारीख में भाजपा को भरोसा नहीं है कि नितीश के जनाधार ने इस बार 2020 की तरह ठीक से कमलछाप पर बटन दबाया है। यह भरोसा चिराग पासवान को भी नहीं है। एनडीए को इस बात का डर है कि कहीं नितीश का जनधार उनसे 2020 का बदला लेने पर न तुल जाए। चुनाव के संभावित परिणामों में नंबर एक पर तेजस्वी हैं, नंबर दो पर नितीश हैं, और नंबर तीन पर भाजपा है। 
यह चुनावी मुहिम तकरीबन महीने भर पहले नहीं, बल्कि मेरी समझ में उस समय शुरू हुई थी जब राहुल गांधी द्वारा बिहार की धरती पर वोटर अधिकार यात्रा का पहला कदम रखा गया था। दरअसल, चुनाव बदलना उसी दिन शुरू हुआ था। वरना उससे पहले हर तरह से देखने पर समझ में आने लगता था कि एनडीए आगे है। मेरे एक परिचित हैं, मुंबई में भाजपा के ही प्रवक्ता हैं। उन्होंने एक दिन फोन पर मुझसे कहा कि आप लोग जो चाहे कहते रहें, महागठबंधन नहीं जीतेगा। मैंने पूछा कि क्यों, तो उसने कहा कि देखिए, जब तक नितीश और भाजपा साथ रहेंगे, उन्हें कोई नहीं हरा सकता। महागठबंधन को मुसलमानों और यादवों को छोड़ कर कोई वोट नहीं देने वाला है। मोटे तौर पर मेरे इस परिचित की बात सही थी। भाजपा की ऊंची जातियां, नितीश के लव-कुश वोट और अति पिछड़े, चिराग के पासवान और जीतन राम मांझी के मुसहर वगैरह मिल कर एक ऐसा सामाजिक समीकरण बनाते दिख रहे थे कि एनडीए की जीत सुनिश्चित लग रही थी। इस तयशुदा हालात को हिलाने का काम किया राहुल गांधी ने। उनकी वोट अधिकार यात्रा ने बिहार में विपक्ष को उठा कर खड़ा कर दिया। महागठबंधन के कार्यकर्ताओं ने कमर कस ली और युद्ध के मैदान में कूद पड़े। उन्हें संघर्ष का एक मुहावरा मिला, एक नैरेटिव मिला, पहलकदमी मिली जो पहले नदारद थी। अधिकार यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि वह सामाजिक रणनीति थी जिसका ज़िक्र मैं पहले भी कर चुका हूं। इसके ज़रिये महागठबंधन लालू-नितीश युग में पहली बार एनडीए को अति पिछड़ा वोटों के दायरे में गोलबंदी की चुनौती देते हुए दिखा। इससे पहले होता यह था कि नितीश कुमार अति पिछड़ों के बीच अकेले ही बेरोकटोक अपनी नेतागीरी करते रहते थे। लालू का पार्टी राजद मुसलमान-यादव वोटों में खुश रहती थी लेकिन इस बार पहली बार नितीश को लगा कि राजद अपने एमवाई आधार में कुछ जोड़ना चाहता है और उसका यह जोड़ अगर कहीं से आएगा तो नितीश के अति पिछड़े वोटों में से ही आएगा।
जब चुनाव में फैसला कम अंतराल से होने वाला होता है, तो वह ज़्यादा कुछ इस पर निर्भर हो जाता है कि किसने अपना बंदोबस्त कैसा किया है। मेरा ख्याल है कि यह चुनाव भाजपा के बंदोबस्त और तेजस्वी के बंदोबस्त के बीच मुकाबले का चुनाव भी है। यह ऊंची जातियों के हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं और सामाजिक न्याय में भरोसा करने वाले पिछड़े और अल्पसंख्यक कार्यकर्ताओं की कार्ययोजना, जीवट और ज़िद का परिणाम भी होगा। नितीश अपने जनाधार रमे हुए हैं। उनका खेल खामोश और प्रभावी लग रहा है। उन्हें लग रहा है कि अगर वे अपने दायरे में ही ठीक से क्लिक कर गये तो अपने खिलाफ चल रही भाजपा और चिराग पासवान की साजिश को नाकाम कर देंगे। बीस साल तक शासन करने के बावजूद बिहार में उनका चुनाव के दौरान निंदक आम तौर पर ढूंढ़ने से भी नहीं मिला। इससे उन्हें भरोसा मिल रहा है। तेजस्वी को अपना प्रसार करना है अपने पारम्परिक जनाधार में प्लस-प्लस करना है। अगर नहीं कर पाए तो अपने हाथ में सबसे बड़े लड्डू के बावजूद वे सिंहासन पर नहीं बैठ पाएंगे। दोस्तो यह सवाल लाख टके का है कि किसी पिछड़े-अति पिछड़े नेता को मुख्यमंत्री बनाने का खुला और ठोस आश्वासन दिये बिना क्या ब्राह्मण-राजपूत-भूमिहार पार्टी बन चुकी भाजपा को इन तबकों के वोट मिल सकते हैं। 
अब आइए मतदान प्रतिशत के उछाल पर। इसके बारे में बड़ी-बड़ी बातें हुई हैं। क्या आपने कभी सुना है कि बीस साल से चल रही किसी सरकार को टिकाये रखने के लिए मतदाता एक अभूतपूर्व जोशोखरोश के साथ निकलें। लोग नितीश का सम्मान तो कर सकते हैं लेकिन जोश कैसा। ज़रा सोचिये कि बिहार एक ऐसा प्रदेश है जिसमें 58 प्रतिशत लोग 25 साल के कम आयु के हैं। बिहार में मध्य आयु या मीडियन एज को केवल 20 साल है। यानी बिहार देश का सबसे युवा राज्य है। क्या आपको लगता है कि मतदाताओं का यह विशाल युवा हिस्सा दो सबसे बूढ़े नेताओं की वापसी के लिए वोट करेगा। मोदी और नितीश के लिए। दोनों ही पार्टियों के पास दिखाने के लिए भी एक भी युवा नेता नहीं है। भाजपा वाले खुद भी मानते हैं कि बिहार के युवाओं में तेजस्वी के लिए विशेष रुझान है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो राहुल बिहार के युवाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। क्या यह पहलू नहीं बताता कि पहले चरण के मतदाने में आए उछाल में युवा पहलू सर्वाधिक प्रवाभी साबित हो सकता है। इसके साथ-साथ तेजस्वी ने हर परिवार को नौकरी देने का, साल भर में तीस हज़ार रुपये देने के जो वायदे किये हैं, उसने भी इसी 18 से 30 वर्ष के मतदाता को संबोधित किया है। मेरा विचार है कि बिहार की आबादी के युवा-पक्ष को चर्चा में लाये बिना उसके चुनाव पर कोई बात करना बेकार है। केवल बिहार का युवा ही तेजस्वी के हाथ के लड्डू को सबसे बड़ा, सबसे स्वादिष्ट और सत्ता तक पहुंचाने वाला बना सकता है। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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