कश्मीर समस्या को उलझाने में ब्रिटेन व अमरीका का रहा बड़ा हाथ

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा सहित संपूर्ण संघ परिवार जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर की समस्या के लिए उत्तरदायी मानते हैं। अभी हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ऐसी राय व्यक्त की थी। हालांकि कश्मीर समस्या के इतिहास का गहन अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि समस्या को उलझाने में ब्रिटेन व अमरीका की साज़िशों की मुख्य भूमिका थी। अमरीका और ब्रिटेन, खासकर ब्रिटेन यह चाहता था कि जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो जाए। भारत के विभाजन के पूर्व ब्रिटेन के आखिरी वायसराय और गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने पूरा प्रयास किया कि कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो जाए। 
इस बीच कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने यह घोषणा कर दी कि वह कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बनाकर उसे एशिया का स्विट्ज़रलैंड बनाना चाहते हैं। इस बात का पता चलने के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। हमला पाक सेना ने नहीं बल्कि कबीलाई पठानों ने किया। इस हमले की निंदा करते हुए कश्मीर के सर्वमान्य नेता शेख अब्दुल्ला ने कहा कि ये हमलावर हथियारों से लैस थे। इन हमलावरों ने भयानक तबाही मचाई। लोगों को लूटा और कुरान तक का अपमान भी किया। ये वे अपराधी थे जिन्हें कुछ लोग कश्मीर को आज़ाद करवाने वाले शहीद बताते थे। ब्रिटेन के अप्रत्यक्ष समर्थन से हुए पठानों के इस हमले के बावजूद जब कश्मीर को पाकिस्तान में नहीं मिलाया जा सका तो जनमत संग्रह की बात की जाने लगी। परंतु माउंटबेटन को लगा कि यदि उस कश्मीर में जनमत संग्रह होगा, जिसका पहले ही भारत में विलय हो चुका है तो उसका नतीजा भारत के पक्ष में ही होगा। इसके बाद माउंटबेटन लाहौर गए और वहां उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना से मुलाकात की। जिन्ना ने सुझाव दिया कि दोनों देशों की सेनाओं को कश्मीर से पीछे हट जाना चाहिए। इस पर माउंटबेटन ने पूछा कि आक्रमणकारी पठानों को वहां से कैसे हटाया जाएगा। इस पर जिन्ना ने कहा कि यदि आप उन्हें हटाएंगे तो समझो कि अब किसी भी प्रकार की बातचीत नहीं होगी। 
उल्लेखनीय है कि भारत-पाक विभाजन के पहले जिन्ना कश्मीर गए थे तो उन्होंने कोशिश की थी कि कश्मीर के मुसलमान उनका साथ दें, परंतु कश्मीर के मुसलमानों ने स्पष्ट कर दिया कि वे भारत के आज़ादी के आंदोलन के साथ हैं तथा द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के भी विरोधी हैं। इस बीच माउंटबेटन ने सुझाव दिया कि कश्मीर का पूरा मामला संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दिया जाए। 1 जनवरी, 1948 को यह मामला संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद को सौंप दिया गया। जैसे ही मामला सुरक्षा परिषद के पास गया तो ब्रिटेन ने भारत के विरूद्ध बोलना आरंभ कर दिया। 
इस बीच ब्रिटेन व अमरीका ने भारत की हमले की शिकायत को भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद का रूप दे दिया। सुरक्षा परिषद की बैठक में ब्रिटेन ने भारत की तीव्र शब्दों में निंदा की। इस बीच ब्रिटेन ने भारत पर युद्धविराम का प्रस्ताव मंजूर करने का दबाव बनाया। ऐसा उस समय किया गया जब भारतीय सेना आक्रमणकारियों को पूरी तरह से खदेड़ने की स्थिति में थी, परंतु ब्रिटेन व अमरीका जानते थे कि यदि भारत ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया तो कश्मीर की समस्या सदा के लिए समाप्त हो जाएगी। इसलिए उन्होंने दबाव बनाकर जबरन युद्धविराम करवा दिया। युद्धविराम का नतीजा यह हुआ कि कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्ज़े में चला गया। 
इस बीच जनमत संग्रह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया, परंतु उसके साथ यह शर्त रखी गई कि पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना हटाने साथ ही उन कबीलाई नागरिकों को वहां से हटाने का प्रयास करेगा जो पाकिस्तान की ओर से युद्ध कर रहे थे। पाकिस्तान ने इस प्रस्ताव को स्वीकार तो कर लिया परंतु ब्रिटेन व अमरीका ने पाकिस्तान पर इस शर्त को लागू करने के लिए दबाव नहीं डाला। इसका कारण यह था कि ये दोनों देश जानते थे कि यदि पाकिस्तान द्वारा कश्मीर से अपनी सैना हटा ली जाएगी तो वहां होने वाले जनमत संग्रह के नतीजे भारत के पक्ष में होंगे। 
जब यह स्पष्ट हो गया कि जनमत संग्रह के माध्यम से ब्रिटेन व अमरीका कश्मीर पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना दबदबा नहीं रख पाएंगे तो उन्होंने एक नई चाल चली। दोनों देशों ने सुझाव दिया कि कश्मीर के मामले का हल मध्यस्थता के माध्यम से निकाला जाए। इस संबंध में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली और अमरीका के राष्ट्रपति हैरी ट्रूमेन ने औपचारिक प्रस्ताव भेजा। दोनों देशों ने नेहरू पर इतना दबाव बनाया कि उन्हें सार्वजनिक रूप से अपनी असहमति ज़ाहिर करनी पड़ी। नेहरू ने यह आरोप लगाया कि ये दोनों देश समस्या को सुलझाना नहीं चाहते बल्कि अपने कुछ छिपे इरादों को पूरा करना चाहते हैं। 
बाद में यह भी पता लगा कि मध्यस्थता के माध्यम से ब्रिटेन और अमरीका कश्मीर में विदेशी सेना भेजना चाहते थे। इस मामले की गंभीरता को समझते हुए सोवियत संघ ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना आवश्यक समझा। सन् 1952 के प्रारंभ में सुरक्षा परिषद को संबोधित करते हुए सोवियत संघ के प्रतिनिधि याकोव मौलिक ने कहा था कि पिछले चार वर्षों से कश्मीर की समस्या इसलिए हल नहीं हो पा रही है क्योंकि ब्रिटेन व अमरीका अपने साम्राज्यवादी इरादों को पूरा करने के लिए कश्मीर को अपने कब्ज़े में रखना चाहते हैं, इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से ऐसे प्रस्ताव रख रहे हैं जिनसे कश्मीर इनका सैन्य अड्डा बन जाए। इसके बाद सोवियत संघ ने ब्रिटेन और  अमरीका के उन प्रस्तावों को वीटो का उपयोग करते हुए निरस्त करवा दिया जिनके माध्यम से ये दोनों देश कश्मीर को अपना उपनिवेश बनाना चाहते थे। 
सन् 1957 में सुरक्षा परिषद में कश्मीर के सवाल पर फिर एक लंबी बहस हुई। बहस में भाग लेते हुए सोवियत प्रतिनिधि ए.एस. सोवोलेव ने दावा किया कि कश्मीर की समस्या का बहुत पहले समाधान हो चुका है, वहां की जनता ने हल निकाल लिया है और फैसला किया है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।
इस बीच अनेक ऐसे मौके आए जब जवाहरलाल नेहरू ने कड़े शब्दों में ब्रिटेन व अमरीका की निंदा की तो अमरीका ने पाकिस्तान को भारी भरकम सैन्य सहायता देना प्रारंभ कर दिया। नेहरू ने बार-बार कहा कि वह किसी हालत में इन साम्राज्यवादी ताकतों के दबाव के आगे न अब और न ही भविष्य में कभी झुकेंगे।
अक्तूबर 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया तो अमरीका व ब्रिटेन ने भारत की नाममात्र सहायता इस शर्त पर दी कि भारत कश्मीर समस्या का समाधान करे। अमरीका के सवेरोल हैरीमेन और ब्रिटेन के डंकन सेन्डर्स दिल्ली आए। दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होंने चीनी हमले की चर्चा कम की और कश्मीर की ज्यादा। भारत की मुश्किलों का लाभ उठाते हुए अमरीका ने मांग की कि भारत में ‘वाइस ऑफ अमेरिका’ का ट्रांसमीटर स्थापित करने की अनुमति दी जाए और सोवियत संघ से की गई संधि तोड़ दी जाए।
कश्मीर के मुद्दे पर अमरीका व ब्रिटेन ने अपने संकीर्ण स्वार्थों की खातिर भारत की बजाय पाकिस्तान का साथ दिया। यदि ये दोनों देश भारत का समर्थन करते तो कश्मीर की समस्या कब की हल हो गई होती। (संवाद)

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