एक बहुरूपी यात्रा के रंग-ढंग
मेरा स्वास्थ्य अब ज़्यादा यात्रा करने की इजाज़त नहीं देता। फिर भी जब घर और अस्पतालों में शरण लेते हुए मन थक जाता है तो किसी बहाने आस-पास की दुनिया देखने का मन करता है। पिछले सप्ताह दिल्ली की मेरी यात्रा कुछ ऐसी ही रही। रास्ते में धान की फसलों की कहानी के दृश्य भी और बारिश से क्षतिग्रस्त मार्गों की सम्भाल के कारक भी देखे। सबसे अच्छी बात यह लगी कि सड़क के बाएं और दाएं तरफ जो पौधे तीस-चालीस साल पहले छोटे-छोटे थे, अब लहलहाते पेड़ बन कर राहगीरों को छाया और आश्रय दे रहे थे।
इस बार के पंजाबी भवन, नई दिल्ली में दिए गए भापा प्रीतम सिंह स्मृति भाषण का विषय भी मेहनत की कमाई पर ज़ोर देने वाला था, जिसकी जड़ें भी गुरबख्श सिंह प्रीत लड़ी की कब्ज़ा नहीं, पहचान वाली प्रीत भावना वाली ही थीं। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता मंगोलिया में पूर्व राजदूत एस.पी. सिंह ने की और भाषण देने वाला सुकीरत भी गुरबख्श सिंह की बेटी उर्मिला आनंद का बेटा है। प्रीतम सिंह ने भी यह भावना गुरबख्श सिंह के छापाखाने का कर्ता-धर्ता होते हुए ग्रहण की थी।
सुकीरत का भाषण प्रीतम सिंह के छापक से प्रकाशक और फिर संपादक प्रकाशक के सफर तक ही सीमित नहीं था। इसमें भी घूमकर स्फेशपोशी को प्रचारित करने वाली भावना शामिल थी। आजकल मेरा प्रत्येक दिल्ली दौरा मुझे उन मित्रों के परिवारों के पास भी ले जाता है जिनका कोई सदस्य पूर्ण जीवन जीकर इस दुनिया को अलविदा कह चुका होता है। इस बार दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर गुरदयाल सिंह मंडेर और दीवान सिंह काले पानी का बेटा हरवंत सिंह ढिल्लों इस मार्ग गए होने के कारण उनके परिवारों से मिलना भी उतना ही ज़रूरी था जितनी अन्य व्यस्तता। वे दोनों मेरे हमउम्र और समकालीन होने के कारण मेरे दिल्ली प्रवास के 35 वर्षों में मेरे अच्छे साथी रहे थे।
वापसी के दौरान इस तरह की भावना पूर्व आईएएस अधिकारी विजय देव के घर जाते समय हुई, जो चंडीगढ़ से दिल्ली जाकर वहां के मुख्य सचिव रह चुके थे। बड़ी बात यह है कि भारत सरकार ने उनके किए कार्यों से प्रभावित होकर उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद राज्य चुनाव आयुक्त का कार्य सौंप दिया है, जहां वह पांच साल तक तैनात रहेंगे।
उनके घर पर मुझे उनकी पुर्तगीज़ पत्नी सोनिया सोनियावी मिली और उनकी बेटी वरालिका और दामाद जो सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं।
मैं इस बार 30 अक्तूबर से 2 नवम्बर तक चंडीगढ़ से बाहर रहा। लौट कर अख़बार पढ़े तो 1984 के सिख नरसंहार संबंधी समाचारों से भरे पड़े थे। इस नरसंहार में मेरे हमउम्र मामा शमशेर सिंह भंगू मारे गए थे। उनके पूर्वज बाबा मेहताब सिंह ने भाई सुखा सिंह के साथ मिलकर हरिमंदिर साहिब की बेअदबी करने वाले मस्सा रंगड़ की हत्या की थी। और मैं खुद भारत सरकार की नौकरी छोड़ने के बाद पंजाबी ट्रिब्यून की नौकरी पर समय पर उपस्थित नहीं हो पाया था। उस नरसंहार की गूंज 41 साल बीत जाने पर भी सिखों के मन में बनी हुई है।
अंतिका
(बदायूंनी)
नहीं आती तो उनकी याद महीनों भर नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं।



