भारत की लोक आत्मा का सबसे सुंदर उत्सव है पुष्कर मेला

भारत विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में अग्रणी है, जिसकी सांस्कृतिक धारा हजारों वर्षों से निरंतर प्रवाहित हो रही है। हमारे मेले इस निरंतरता का सबसे जीवंत और मनोहारी प्रतीक हैं। भारत के मेले केवल व्यापार के मंच नहीं बल्कि लोकजीवन के जीवंत उत्सव हैं, जो समाज की आत्मा में अपनत्व, एकता और उल्लास के रंग घोलते हैं। यही मेले हमारी परंपराओं को जीवित रखते हैं और यही हमारे सांस्कृतिक मूल्यों के प्रहरी हैं। इन्हीं में से एक है आस्था, संस्कृति और उत्सव का अनोखा संगम तीर्थराज पुष्कर का अंतर्राष्ट्रीय मेला, जो हर वर्ष कार्तिक मास में रेगिस्तान की सुनहरी रेत पर खिलता है। राजस्थान के अजमेर ज़िले में स्थित पुष्कर, जिसे जगतपिता ब्रह्मा की नगरी कहा जाता है, अपने पवित्र सरोवर और विश्व प्रसिद्ध ब्रह्मा मंदिर के लिए पूज्य है। हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर जब यहां मेला लगता है तो रेगिस्तान की रेत मानो रंगों के समुद्र में बदल जाती है। सुदूर क्षितिज पर रेत के टीलों के बीच पशु व्यापारियों, लोक कलाकारों और श्रद्धालुओं की चहल-पहल से पुष्कर की धरती एक जीवंत चित्रपट बन जाती है। पुष्कर मेले के दौरान सुबह की पहली किरण जब रेतीली धरती को छूती है, तब ऊंटों की घंटियों की मधुर झंकार के साथ पूरा वातावरण गूंज उठता है। इस वर्ष 30 अक्तूबर से 5 नवंबर तक आयोजित पुष्कर मेला केवल एक पारंपरिक आयोजन नहीं रहा बल्कि राजस्थान की जीवंत परंपराओं, नवाचारों और पर्यटन विकास का प्रतीक बनकर उभरा।
पुष्कर मेला केवल आस्था का नहीं बल्कि जीवन के उत्सव का प्रतीक है, जहां धर्म, संस्कृति और लोकजीवन एक साथ सांस लेते हैं। कहते हैं कि कार्तिक मास में पुष्कर झील में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी आस्था के साथ हजारों श्रद्धालु कार्तिक पूर्णिमा तक यहां स्नान, दान और पूजा में भाग लेते हैं। ब्रह्मा मंदिर में होने वाले यज्ञ और आरती के साथ जब झील के घाटों पर दीपों की कतारें जलती हैं तो पूरी नगरी एक दिव्य आलोक से नहाती प्रतीत होती है। यही वह क्षण होता है, जब प्रकृति, श्रद्धा और संस्कृति का संगम अपनी चरम सीमा पर होता है। तीर्थराज पुष्कर की मिट्टी में धर्म और संस्कृति का वह संगम बसा है, जो भारत की आत्मा का प्रतीक है और पुष्कर मेले के दौरान तो पूरी पुष्कर नगरी मानो एक विराट रंगमंच में बदल जाती है। झील के घाटों पर आरती की घंटियां बजती हैं, हवा में लोबान और चंदन की महक तैरती है और रेतीले मैदानों में ऊंट, घोड़े बैल, व्यापारी और पर्यटक, सब एक साझा उत्सव में भागीदार बन जाते हैं। पुष्कर का यह मेला सदियों से धार्मिक आस्था और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र रहा है, जहां श्रद्धालु ब्रह्मा सरोवर में स्नान करके मोक्ष की कामना करते हैं और व्यापारी पशु-व्यापार के जरिए अपनी आजीविका का नया अध्याय रचते हैं।
पुष्कर मेला राजस्थान की जीवंत संस्कृति का सबसे विराट मंच है, जहां ऊंटों की परेड, पशु सजावट प्रतियोगिताएं, लोकनृत्य, संगीत, हस्तशिल्प प्रदर्शनी और पारंपरिक खेलों का भव्य आयोजन होता है। इस वर्ष भी मेले की शुरुआत 30 अक्तूबर को भव्य ध्वजारोहण और शुभारंभ समारोह से हुई, जिसमें लोक कलाकारों की ढोल-नगाड़ों पर थिरकती प्रस्तुति ने वातावरण को मंत्रमुग्ध कर दिया। सैंड आर्ट गैलरी में कलाकारों ने रेत से अद्भुत मूर्तियां रच डाली, जो पुष्कर की धरती की कलात्मकता का जीवंत उदाहरण थी। झील के तट पर दीपदान के दृश्य हर शाम किसी स्वप्निल लोक का आभास कराते रहे। इस बार की ऊंट सजावट प्रतियोगिता और ऊंट दौड़ मेले का मुख्य आकर्षण रही। रंग-बिरंगे कपड़ों, मिररवर्क, घंटियों और पारंपरिक गोटे से सजे ऊंट मानो चलते-फिरते चित्र बन गए। कई ऊंट मालिक तो अपने पशुओं की सजावट में महीनों तक मेहनत करते हैं ताकि उनके ऊंट प्रतियोगिता में सम्मान अर्जित कर सकें। इसी तरह लॉन्गेस्ट मूंछ प्रतियोगिता, पगड़ी बांधने और मटका दौड़ जैसे पारंपरिक आयोजन भी मेले की शोभा बने रहे, जिनमें स्थानीय लोगों और विदेशी पर्यटकों दोनों ने उत्साह से भाग लिया। पुष्कर का माहौल रात के समय तो और भी जादुई हो उठता है। खुले आकाश के नीचे लोक कलाकारों की प्रस्तुतियां (कालबेलिया, घूमर, चकरी व भवाई नृत्य) राजस्थान की लोकधारा को जीवंत कर देते हैं। इस बार ‘राजस्थान फ्यूजन म्यूजिक फेस्ट’ और ‘बॉलीवुड नाइट’ ने पारंपरिक और आधुनिक संगीत के संगम को नया आयाम दिया। दर्शकों के लिए यह अनुभव केवल मनोरंजन नहीं बल्कि संस्कृति और समय के बीच संवाद जैसा था।
पुष्कर मेले का आर्थिक पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इस वर्ष पुष्कर मेले में हजारों पशुओं की भागीदारी रही। पशुपालन विभाग के संयुक्त निदेशक डा. सुनील घीया के अनुसार, 4957 घोड़े, 1576 ऊंट, 1113 गाय और 67 भैंस समेत कुल 6715 पशु मेले में लाए गए, जिनमें 800 से अधिक का क्रय-विक्रय हुआ। लगभग चार करोड़ रुपये से अधिक का व्यापार दर्ज हुआ, जिसमें घोड़ों की मांग ऊंटों से अधिक रही। यद्यपि इस वर्ष ऊंटों की संख्या कुछ कम रही पर लेन-देन ने राजस्थान की पशु-पारंपरिक अर्थव्यवस्था को नई ऊर्जा दी। पुष्कर का बाजार भी अपने आप में एक उत्सव है। यहां राजस्थान के हस्तशिल्प, बंधेज-लहरिया कपड़े, ब्लॉक प्रिंटेड परिधान, पारंपरिक आभूषण, ऊंट की खाल से बनी वस्तुएं और मिट्टी के बर्तन यात्रियों को आकर्षित करते हैं। हर स्टॉल राजस्थान की आत्मा को छूती हुई किसी कहानी की तरह है। मेले के दौरान सड़क किनारे की दुकानों से आती मिर्ची वड़े, दाल-बाटी-चूरमा और रसगुल्लों की खुशबू हर राहगीर को रुकने पर विवश कर देती है। पुष्कर पूरी तरह शाकाहारी नगर है, जहां मांसाहार और शराब वर्जित हैं। यही इसकी पवित्रता का आधार है। फोटोग्राफी के शौकीनों के लिए यह मेला किसी जीवंत संग्रहालय से कम नहीं होता। विदेशी पर्यटक यहां कैमरों में राजस्थान की आत्मा कैद करते नज़र आते हैं, रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे ग्रामीण, ऊंटों के काफिले और झील में झिलमिलाते दीप, सब मिलकर पुष्कर को एक विश्व मंच बना देते हैं।
इस वर्ष पुष्कर मेले का एक और उल्लेखनीय पहलू रहा ‘ग्रीन पुष्कर अभियान’। मेला क्षेत्र को पूर्णत: प्लास्टिक-मुक्त बनाया गया। प्रशासन ने पर्यटकों से पुन: प्रयोज्य बर्तनों और बोतलों के प्रयोग की अपील की। यह पहल न केवल पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण थी बल्कि सतत पर्यटन की अवधारणा को भी सशक्त बनाती है। कार्तिक पूर्णिमा का दिन मेले का सबसे पवित्र क्षण होता है। प्रात:काल जब सूर्य की पहली किरण झील के जल पर पड़ती है, लाखों श्रद्धालु घाटों पर स्नान करते हैं, मंदिरों की घंटियां बजती हैं और दीपों की सुनहरी आभा जल पर झिलमिलाती है। यह दृश्य केवल धार्मिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक एकात्मता का सजीव अनुभव होता है, जहां आस्था और प्रकृति एकाकार हो जाती हैं।
बहरहाल पुष्कर मेला अब केवल राजस्थान का नहीं, विश्व का उत्सव बन चुका है। ‘इनक्रेडिबल इंडिया’ और ‘राजस्थान टूरिज्म के अंतर्राष्ट्रीय अभियानों में इसे प्रमुखता से प्रदर्शित किया जाता है। यह आयोजन भारत की विविधता, सह-अस्तित्व और जीवंत लोक संस्कृति का प्रतीक है। यहां ग्रामीण और शहरी, स्थानीय और विदेशी, परंपरा और आधुनिकता सभी के बीच एक सहज संवाद स्थापित होता है। पुष्कर की पावन धरती हर आगंतुक को यह अहसास कराती है कि भारत का असली सौंदर्य उसकी विविधता और आत्मीयता में है। जो यहां आता है, वह केवल एक मेला देखकर नहीं लौटता बल्कि अपने भीतर भारत की आत्मा का स्पर्श लेकर लौटता है। यही पुष्कर की पहचान है, जहां हर रेतकण में आस्था है, हर गीत में संस्कृति है और हर मुस्कान में जीवन की सरल सुंदरता।

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