सिक्योरिटी गार्ड
‘बदलते जमाने की तासीर है... मैंने तो बहुत दुनिया देखी है।’ बूढ़े अंकल यह बात अक्सर कहा करते थे।
वह कहते, ‘तुम लोग नहीं मानोगे... कोई नहीं मानेगा। मेरे पैर कभी फर्श पर नहीं पड़े थे, सिर्फ संगमरमर पर चलते थे। नंगे पांव में जब कांटे और पत्थर चुभे, तब लुट जाने के बाद इन हाथों से झाड़ू उठाना पड़ा।’
सुबह की धुंधली रोशनी में जब सब सो रहे होते थे, बूढ़े अंकल अपने छोटे-से सोने के कोने में, बिल्डिंग की सीढ़ियों की नीचे की जगह को संवारने लगते थे। सब्जियों के छिलके कौओं के लिए फेंकते, झाड़ू से धूल झाड़ते, अपने एकमात्र मैले-कुचैले कंबल को झाड़ कर उसमें से मच्छर उड़ाते। फिर थके घुटनों और डोलती चाल के साथ चौथे माले की ओर सीढ़ियां चढ़ने लगते। हर सीढ़ी उन्हें और ऊंची लगती थी। ऊपर पहुंच कर वह अपनी गठरी बांधते। उनका दुर्बल शरीर मानो किसी भी दिशा से एक जैसा लगता था।
बूढ़े अंकल की आवाज अब भी भारी थी, कर्कश, फटी हुई, लेकिन दर्द से भरी। उनकी हर कहानी दंगे के दिनों से शुरू होती, जब वह इस हालत में आए, अपना सबकुछ खो कर।
‘पत्नी, एक बेटा, एक बेटी, दो मंजिला कोठी, जिसकी ऊपरी मंजिल पर वह परिवार के साथ रहते थे। चांदनी चौक की साड़़ियों की बहुत बड़ी दुकान, सब कुछ हाथ से निकल गया था।
कभी-कभी पूरी बिल्डिंग को दंगे से पहले की अपनी कहानी सुनाते हुए कहते कि उनका जीवन कितना सुखी था। छोटे भाई के साथ कारोबार था। बढ़िया दो मंजिला कोठी थी। गाड़ी थी। कोठी में नीचे छोटे भाई का परिवार रहता था। ऊपर की मंजिल में उनका परिवार रहता था।
उस रात जब दंगाइयों ने हमला बोला तो छोटे भाई का परिवार नीचे होने की वजह से भाग गया था। उनका परिवार नीचे उतर पाता, उसके पहले ही दंगाइयों ने कोठी में आग लगा दी थी। जिसमें केवल वही बचे थे। जान तो बच गई थी, पर सदमे में अर्धविक्षिप्त हो गए थे। भाई ने कोठी और कारोबार पर कब्ज़ा कर लिया था। उसने वह कोठी बेच कर दूसरी जगह मकान बनवा लिया था। कभी वह अपनी दुकान पर जाते तो उन्हें खाना खिला कर भगा देता था। उनकी कोई सुनने वाला नहीं था। भाई के मुंह मोड़ लेने के बाद उनका अब इस दुनिया में था ही कौन? रिश्तेदार भी भाई के पक्ष में हो गए थे। इस हालत में वह भटकते हुए इस बिल्डिंग में आए तो फिर यहीं के होकर रह गए।
पास से गुजरने वाले पुरुष मुस्करा देते तो बच्चे हंसते।
‘बूढ़े अंकल कल ही तो आपने कहा था कि आप के पास सब कुछ था, आज कह रहे हो कि सब जल गया।’
वह जवाब देते, ‘अगर मानना है तो मान लो बेटा। न मानना हो तो मत मानो। मेरे ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ता।’
उनकी कहानियों के कितने ही रूप होते, पर हर रूप में सच्चाई की झलक होती थी। दंगे के बाद की पीड़ा का धुंधलका उनके हर वाक्य में झलकता था।
बूढ़े अंकल उस इमारत के सिक्योरिटी गार्ड थे यानी चौकीदार और सफाई वाले भी। दिन भर वह दालान, सीढ़ियां, गेट सब चमका कर रखते थे। कोई फेरीवाला या अजनबी दिखाई देता तो उसकी खबर रखते। बच्चे मजाक में कहते, ‘नाम बूढ़े अंकल है मेरा, सबकी खबर रखता हूं।’
गुस्से में दी गई उनकी डांट भी हंसी में उड़ा दी जाती थी। सीढ़ियों के नीचे लोहे की जाली उनका आशियाना थी। वहां वह झाड़ू, डिब्बा, बाल्टी और अपने पुराने कंबल के साथ रहते थे। रात में गेट बंद होते ही वह वहीं बैठ जाते सिक्योरिटी गार्ड की तरह। बूढ़े अंकल के काम में कोई कमी नहीं थी। लेकिन कभी-कभी जब कोई निवासी दया दिखाता, ‘बूढ़े अंकल, इतनी पुरानी गुदड़ी में कैसे सोते हो? मैं पुराना गद्दा दे दूं?’
तब वह तुरंत कहते, ‘नहीं रे, नहीं चाहिए। मेरी गुदड़ी किसी की गंदी चादर से बेहतर है। अरे, कहां वह रेशमी तकिया, कहां यह गंदा फर्श... तुम नहीं मानोगे।’
मिसेज दलाल को उनसे सच्चा अपनापन था। वह कभी-कभी खाना देतीं, साबुन या तेल ला कर देतीं। बदले में बूढ़े अंकल उनके घर का छोटा-मोटा काम कर देते।
एक दिन मिसेज दलाल ने कहा, ‘बूढ़े अंकल, सर्दियां आ रही हैं। इस दिवाली पर एक रजाई दे दूंगी।’ बूढ़े अंकल मुस्कराए, ‘तुम नहीं मानोगी, कोई नहीं मानेगा, पहले मैं गरीबों को अपने हाथ से कंबल बांटा करता था।’
वक्त बीतता गया। इमारत के मिस्टर दलाल को प्रमोशन मिला। उन्होंने नया सिंक और नल लगवाया। बूढ़े अंकल ने ही उसका उद्घाटन किया। सब ने उनकी सफाई की तारीफ की। वह बोले, ‘अरे, मैं तो गुलाबजल और इत्र से नहाता था कभी। तुम नहीं मानोगे।’
धीरे-धीरे इमारत में प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी। किस के घर ज्यादा आधुनिक हैं, किसकी सजावट बेहतर है।
मिस्टर दलाल छुट्टियों पर शिमला चले गए। जाते हुए बोले, ‘बूढ़े अंकल, घर का ध्यान रखना। तुम्हारे लिए एक स्वेटर लाएंगे।’ बूढ़े अंकल ने गेट से हाथ हिला कर उन्हें विदा दी। उनके जाते ही सब ने घरों में काम शुरू करवा दिए, रंगाई, पालिश, मुरम्मत। अब दिन-रात शोर, धूल और लोगों की आवाजाही से बूढ़े अंकल परेशान रहने लगे। वह अपने कोने से दूर छत पर सोने लगे। फिर एक दिन उनकी जमा-पूंजी, जो उन्होंने सालों में बचाई थी, एक लड़का छीन कर भाग गया।
उन्होंने दौड़ने की कोशिश की, मगर घुटने जवाब दे गए। रोते, हांफते वह वापस लौटे तो फ्लैट के लोग उन पर ही चिल्ला रहे थे। दालान से नया सिंक चोरी हो गया था। किसी ने आरोप लगाया, ‘यही बुढ़ा चोर है। इसी ने चोरों को खबर दी होगी।’
बूढ़े अंकल कांपती आवाज में बोले, ‘मैंने कुछ नहीं किया... मैं खुद लुटा हूं, दो-दो बार... पहले ज़िंदगी में, अब यहां।’
किसी ने उनकी नहीं सुनी। किसी ने उनकी गुदड़ी और बाल्टी बाहर फेंक दी। गेट बंद कर दिया गया। बूढ़े अंकल बाहर खड़े झाड़ू देखते रहे, वही उनका आखिरी साथी था।
आंखों में आंसू, होंठों पर आखिरी शब्द, ‘माना मेरा, मैं खानदान वाला हूं... मैं चोर नहीं हूं...’
गेट की जाली बंद हो गई। बूढ़े अंकल की परछाई धीर-धीरे गलियों में विलीन हो गई। सिर्फ उनका सिर हिलता रहा, बाकी सब स्थिर था।
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