लघु कथा-अनोखा मामेरा

‘अरे सुनीता देख विवाह के सारे रीति-रिवाज हो गए गणेश पूजन माता पूजन और आज मंडप भी।’ सुनीता ने बेटी की शादी के रीति-रिवाज संपन्न करने के लिए अपनी बुआ जी को बुलवाया था।
‘आज मामेरा मंडप के नीचे होगा जाकर कच्चा खाना कडी भात बगैरा बना लो।’
‘हां जी बुआ जी सब तैयारी करती हूं।’
बोल तो दिया पर मन ही मन सोच रही थी....मेरा तो कोई भाई नहीं है और मां पिताजी भी स्वर्ग सिधार गए है मामेरा की शगुन की चूनर उसे कौन उड़ायेगा...?
‘अम्मा.. अम्मा... जल्दी बाहर आओ देखो दो-तीन किन्नर मंडप में ढोलक बजाते हुए आए हैं।’
बेटी की आवाज सूनकर सुनीता दौड़कर बाहर आकर आंगन में खड़े रामप्रसाद भैया को देख कर चकित रह जाती है।
‘सुनीता बहना तुमने तो मुझे संकोच के कारण नहीं बुलाया लेकिन मैं बेटी का मामा हूँ तुम्हारी वह राखी मैं कैसे भूल सकता हूँ।’
सुनीता के सामने बचपन का वह चित्र चलचित्र की भांति घुमने लगा जब वह घर में राखी की थाली सजा बैठी थी, और उसका कोई भाई नहीं था, मां से जिद करती मै भी राखी बांधूगीं।
‘सावन का शगुन दे दो।’
‘कि आवाज के साथ उसे जोर-जोर से ताली बजाने की आवाज़ आई तो वह दौड़ कर दरवाजे पर गई।’
‘हमारा कोई भाई नहीं है हम शगुन नहीं देंगे।’
यह कहकर वह दरवाजा बंद कर रही थी इतने में बड़े प्यार से रामप्रसाद काका बोले-‘तो बेटा मुझे राखी बांध दो।’
सुनीता ने झटपट बिना सोचे रामप्रसाद काका को राखी बांध दी। जब तक मां बाहर आती तब तक वह आशीर्वाद दे रहे थे...‘बेटा खूब खुश रहो, दूधो नहाओ पूतो फलो। आशीर्वांद इनका खाली नहीं जाता, मां ऐसा सोच कर कुछ नहीं बोली! उस दिन उन्होंने शगुन लिया नहीं वरन उसे दिया।
इतने सालों के बाद बात आई गई हो गईं। आज अचानक मामेरा के लिए आए भाई को देखकर सुनीता के आंखों से झर झर आंसू बहने लगे।
वे सबको कपड़े पहनाने का शगुन कर रहे थे और साथी गण तथा महिलाएं ढोलक पर भात गा रही थी-
बहना चल मंडप के बीच अनोखा भात भराऊगा...

.(सुमन सागर)
 

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