एक घोषणा-प्रेमी देश के खाली हाथ
इस देश में जब-जब जो-जो होना है, तब-तब वह नहीं हो पाता। इस बार अगर मौसम वैज्ञानिकों ने यह घोषणा की थी, कि इस वर्ष बारिश सामान्य या थोड़ी-सी उससे अधिक होगी, तो बारिश समय से पहले चली आई, और इतनी अधिक हो गई कि जल-थल हो गया। आसमान में बादल घुमड़े नहीं फटे। नदी नालों में पानी आया नहीं अपितु प्रलयंकर बाढ़ें आईं। उनमें लोगों का जमा जत्था नहीं बहा, जानें ही नहीं गईं, बल्कि खेतों में खड़ी फसलें भी अपना रूप गुण बिगाड़ बैठीं, या बेमौसमी भीग कर किसानों के सपनों को रुदना राग हो गईं।
यहां दावों और घोषणाओं की बारात सजती है, लेकिन उनकी पूर्ति एक मिथ्या आंकड़ा बन कर पेश होती है। हम कहते हैं, देश ने महंगाई पर नियंत्रण कर लिया, लेकिन जब इससे उत्साहित होकर बाज़ारों में क्रेता बन कर अपनी मांग की तालिका ले कर जाओ, तो लालबुझक्कड़ सिद्ध हो जाते हैं। पता चलता है यहां बाज़ार का सच और कीमत सूचकांकों का सच अलग-अलग हो गया है। खुदरा की दुकानों में कमी का मनोविज्ञान पैदा करने वाले चतुर सुजान मिलते हैं। फिर चोर बाज़ारियों और ज़रूरत के अनुसार दाम बढ़ाने वालों की कमी नहीं। थोक कीमतों के शून्य से नीचे होने की घोषणा हो गई है, लेकिन खुदरा कीमतों को उनके साथ गिरने की आदत नहीं है। शून्य से कहीं ऊपर बनी रहती है, और मंडी के मिजाज़ के मुताबिक कीमतें उगाह ली जाती हैं। सूचकांक की कीमतें मुंह बिसूरती रहती हैं, और व्यापारी अपनी चोर कीमतों पर व्यापार करते हैं।
जी.एस.टी. घटा कीमतें कम करके मंदी को बनवास देने, और खरीददारी का तूफान पैदा करके मांग को अधिक रखने का प्रयास सरकार ने किया। उसके आंकड़े भी कहते हैं, कि मांग कम नहीं हुई, मंदी का तूफान हमने टाल दिया, लेकिन दुकानों में विक्रेता मक्खियां मारते नज़र आये। कीमतों की गिरावट चार दिन की चांदनी साबित होती है, क्योंकि मूल्य सूचकांक खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर निर्भर करता है। मौसम परिवर्तन के साथ जब उनकी आपूर्ति बढ़ती है, तो इन कीमतों के गिरते ही सूचकांकों में कीमतें सस्ती हो जाती हैं, थोक मंडियां इसका कुछ रुख भी दिखा दें, लेकिन खुदरा व्यापारी उसे अपनी अपनी मंडी में लाते हुए, इसे लाने की लागत के नाम पर कीमतों को कम करने का नाम नहीं लेते। इस बीच आपूर्ति गड़बड़ाने से अगर थोक मंडियों की स्थिति बदल जाए, तो परचून मंडियां और भी शेर हो जाती हैं, लेकिन मूल्य सूचकांक वह उतार-चढ़ाव नहीं दिखाता, वह उसी सस्ते रूप पर ठिठका रहता है। अत: कीमतों के कम हो जाने की घोषणाओं की बरसात में भी खरीददार अपनी जेब कटवाने के लिए विवश रहता है, और भू मंडियां कब बढ़ी मांग के रूप से परे हट कर पिछड़े दरवाज़े से वह मंदी ले आती हैं, कि जिसकी पूर्ति महंगाई नियंत्रण की घोषणा का कोई सुनहलापन नहीं कर पाता। हम अजब विरोधाभास में जीते हैं। महंगाई नियंत्रण की घोषणाओं के बीच खरीददारी न बदल पाने वाली बढ़ी कीमतों का दंश सहते रहते हैं, और उस खुशहाली को टटोलते रहते हैं, जिसकी घोषणा अखबार में हो गई, उसकी जेब के लिए क्यों नहीं हुई है। यहां वहां आपको चन्द लोग अपने राजनीतिक आकाओं के निर्देश पर महंगाई नियंत्रण का उत्सव मनाते नज़र आ जाते हैं। पूरा देश उत्सवधर्मी हो गया है, और उनका प्रिय काम है किसी भी आर्थिक सफलता की घोषणा पर रसलिल्लाह हो जाना, और फिर उस सफलता को अपने जीवन में तलाश करने की असफलता के बाद उसे अपने जीवन में न पा उसे अपना दुर्भाग्य मान लेना या पिछले जन्मों के पापों का फल।
इस देश की महान संस्कृति के सदैव स्मरण ने लोगों के ताज़ा ज़ख्मों पर फाहे रखे हैं। लोगों की दो रोटी का ठिकाना नहीं और यहां उपवास से आत्म शुद्धि की महिमा गाई जाती है। देश में सबसे तेज़ आर्थिक विकास दर है, और हम छलांग लगाते हुए अगले वर्ष तक दुनिया की सबसे ताकतवर तीसरे नम्बर की आर्थिक शक्ति बनने जा रहे हैं, लेकिन हमारे आम लोगों की खुशहाली के एशिया के देशों में सबसे निम्नतम रह जाने के सत्य को किसी ने पहचाना नहीं। खुशहाली का यह सूचकांक तो यह कहता है कि हमारे पड़ोसी देशों का औसत आदमी भी हमसे अधिक खुशहाल है। इस विडम्बना को हम केवल झेलते हैं, और उस आर्थिक तरक्की का जयगान बने रहते हैं, जो बहुमंज़िली इमारतों वाले धन-प्रासादों की बांदी बनी रहती है, और उन फुटपाथों, या अंधेरी कोठरियों तक कभी नहीं आती कि जहां इस तरक्की की सबसे अधिक तलाश है।
हमने तो अपने संविधान में भी इस देश को प्रजातांत्रिक समाजवादी देश बनने का शिलालेख लिखा था, लेकिन देश का प्रजातंत्र हर चुनाव के सफलता और शांतिपूर्वक सम्पन्न हो जाने के बाद भी अपने परिणामों में करोड़पति या द़ागी आरोपित उम्मीदवारों की विजय से घिरा रहता है। देश को परिवारवाद के चक्रव्यूह से बाहर निकालने का वायदा करने के बावजूद प्रशासन की कुर्सियां दिवंगत नेताओं के नाती-पोतों से भरी रहती हैं। भ्रष्टाचार को शून्य स्तर पर भी न सहने की घोषणाओं को दुहराने के बावजूद भ्रष्ट प्रशासकों और राजनेताओं की जुण्डली की तिजोरियों से बिन हिसाब करोड़ों की धन-सम्पदा निकलती है। भारत प्राकृतिक रूप से और अन्यथा भी एक अमीर देश है जिसमें अधिकांश गरीब बसते हैं। हमारे अध्यापक पचास साल पहले भी कक्षाओं में पढ़ाते थे, आज भी यही पढ़ाते हैं, और देश के समाजवादी हो जाने का नारा मंद पड़ता जा रहा है।



