युद्ध, सीमाएं और तारबंदियां


लोग युद्ध नहीं चाहते। सरकारें युद्ध की भूमिका बनाती हैं और लड़ती हैं। लोग या तो युद्ध को झेलते हैं या देश भक्ति के नाम पर उसमें अपना हिस्सा देते हैं। युद्ध की रिपोर्ट आजकल टी.आर.पी. का आधार बनने लगी है। अमूमन ये रिपोर्टें सेना के बताए मुद्दों पर ही आधारित होती हैं। युद्ध खत्म हो जाने के बाद कोई सीमांत हलकों में जाकर जायज़ा नहीं लेता कि उनका कितना नुक्सान हुआ है। हिन्दी के कहानीकार मनोज रूपड़ा ने अपने लेख ‘सरहदी लड़ाइयां और कला की भूमिका’ में कुछ बातें काफी स्पष्टता से की हैं।
भारत-पाकिस्तान युद्ध को हमें कई बार झेलना पड़ा है। सीमापारीय आतंकवाद से हमारा निरंतर युद्ध चल ही रहा है। राजनीतिक माहौल में तनाव, अशांति जोश ज्यादा है। शांति कोशिशें बार-बार विफल होती देखी गई। युद्ध किसी विवाद, किसी तनाव का हल नहीं। यह भी न भूलें कि अब दोनों देश परमाणु शक्ति सम्पन्न हैं। दूरंदेश लोग सदा युद्ध को नकारते नज़र आएंगे। मनोज रूपड़ा कहते हैं कि बाद में सरहदी झड़पें कुछ दिनों के लिए शांत हो जाती हैं और इसके बाद कोई यह देखने नहीं जाता कि सरहदों के आस-पास लगे गांवों को इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ती है। मीडिया का काम जहां समाप्त होता है, वहीं से कला का काम शुरू होता है। क्योंकि सीमाओं के आस-पास सिर्फ युद्ध नहीं होता और भी बहुत कुछ होता है। लेकिन वहां और क्या होता है, यह सिर्फ वही जानते हैं जो सीमाओं के आस-पास रहते हैं या उस अनदिखते ‘बहुत कुछ’ पर जब किसी कलाकार की पैनी नज़र पड़ती है।
कहा ‘बंटवारा और बार्डर ये दोनों’ ऐसे शब्द हैं जो हमेशा साथ रहते हैं। लेकिन ये सिर्फ शब्द नहीं हैं। हम सब जानते हैं कि बंटवारे के दौरान क्या होता है और सीमाएं निर्धारित हो जाने के बाद क्या-क्या होता है।’ उनके अनुसार आम तौर पर बड़ी संख्या में होने वाली जनहानि की खबरें जन-संचार माध्यमों से हम तक पहुंचती हैं। लेकिन इन चीज़ों का व्यक्तिगत रूप से किसी आदमी की निजी ज़िन्दगी में क्या प्रभाव पड़ता है और उसकी सादकी इस प्रभाव से ग्रस्त होकर क्या रूप लेती है यह बात जन-संचार माध्यमों से नहीं, उन कहानियों से मालूम पड़ती है जो बाद में लिखी जाती है। इस बात को गहराने के लिए जिस कहानी को उन्होंने चुना, वह शायद हम सबने पढ़ी है। मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’, ‘बंटवारे के दुष्परिणामों’ के साइकोलॉजीकल इफैक्ट पर मंटो ‘टोबा टेक सिंह’ जैसी कहानी लिख चुके हैं जो सिर्फ बंटवारे की ही नहीं बल्कि एक मुकम्मल तारबंदी की भी कहानी है।
उनके द्वारा दिये बाड़मोर और जैसलमेर के रेगिस्तान इलाकों के खानाबदोश कबीलों का विवरण मार्मिक है। बंटवारे के बाद उन्हें इतना भी नहीं मालूम था कि उनके खानदान अब तक दो देशों में विभाजित हो चुके हैं। उनके बीच रोटी-बेटी के संबंध बंटवारे के बाद भी पहले की तरह जारी थे। जब तारबंदियां खड़ी की गईर्ं तो उन्हें सोचना पड़ा कि उन्हें उस तरफ जाने से क्यों रोका जा रहा है। ‘कुछ दिन तक वे तार मजबूती से तने रहते, फिर उस तरफ खड़ी मां और इस तरफ खड़ी बेटी को देख कर या उस तरफ खड़ी नानी और इस तरफ खड़ी नातिन को देखकर वे खुद-ब-खुद पीले पड़ने लगते। नानी इस ‘ढील’ से निकलकर नातिन से मिल आती और बेटी अपनी मां से।’ सरहद बन चुकने पर भी इनके मायके-ससुराल को हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में विभाजित न हो पाए। बताया कि कई बार रेगिस्तानी आंधी मेहरबानी का काम कर जाती। जब तारबंदियों का सैकड़ों फीट इलाका रेत से ढंप जाता, जिससे इन्सान ही नहीं। मवेशी भी पूरा हो जाते। इस पार के ऊंट उस पार की ऊंटनी से मिल आते पार की भेड़-बकरियां इधर की भेड़ बकरियों से मिल जातीं। लेकिन जब तनाव बढ़ता है, तारबंदियां सख्त हो जाती हैं, वे ऊंची भी हो जाती हैं। तब आंधियां भी बेबस हो जाती हैं। नतीजतन कबीलों की आवाजाही बंद। परम्पराओं का पालन करने वालों की दिक्कतें बढ़ गईं। पंद्रह-बीस समय से लड़के-लड़कियों के रिश्ते रुक गये। सगाई हो गई तो विवाह नहीं। लड़का यदि इधर है तो लड़की उधर। पूरी तारबंदी से पहले जो लड़की विवाह कर उधर चली गई। फिर मां-बाप से नहीं मिल सकी। हालात शांतिपूर्ण हों तो संदेह कम हो जाते हैं। परन्तु वे शांतिपूर्ण होंगे कब? बेहतर की उम्मीद करें।