सूर्योपासना का महा पर्व छठ पूजा
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि पर देश के कई राज्यों में छठ पूजा का पर्व मनाया जाता है। इस दिन सूर्योपासना का विशेष महत्त्व होता है। दीपावली के छह दिनों बाद मनाए जाने वाले छठ महापर्व का हिन्दू धर्म में विशेष महत्त्व है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी में व्रत करने का प्रावधान है। यह व्रत अत्यंत ही नियम व निष्ठा से पूरे परिवार द्वारा किया जाता है। इसमें तीन दिन तक कठोर उपवास रखा जाता है। इस व्रत को करने वाली श्रद्धालु स्त्रियां पंचमी को एक बार नमक रहित भोजन करती हैं तथा षष्ठी को निर्जल रहकर व्रत करती पड़ती हैं। षष्ठी को अस्त होते सूर्य देवता की विधिपूर्वक पूजा कर अर्घ्य दिया जाता है तो सप्तमी के दिन प्रात:काल नदी या तालाब पर जाकर स्नान करने की परम्परा है। जैसे ही सूर्योदय होता है, अर्घ्य देने के पश्चात जल ग्रहण कर व्रत खोला जाता है। छठ पूजा का व्रत लोक आस्था ही नहीं अपितु सामाजिक समरसता का भी पर्व है। आदिदेव भगवान भास्कर की आराधना का यह महापर्व असल में प्रकृति की आराधना का भी त्योहार है। छठ पूजा बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश की कृषक सभ्यता का भी पर्व माना गया है। सूर्य देव को अर्घ्य देने के लिए जो भी वस्तुएं लाई जाती हैं, वे आसानी से किसानों के घर में सहज ही मिल जाती हैं। दीपावली के बाद भैयादूज के तीसरे दिन से छठ पर्व आरंभ हो जाता है। पर्व के प्रथम दिन सेंधा नमक, घी से बना हुआ अरवा अचावल और कद्दू की सब्जी का प्रसाद ग्रहण किया जाता। अगले दिन उपवास आरंभ होता है। इस दिन रात में खीर बनने का प्रावधान है, जिसे व्रतधारी ग्रहण करते हैं। तीसरे दिन डूबते सूर्य को स्त्रियां अर्घ्य चढ़ाती हैं। पूजा अर्चना के दौरान पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है व इन दिनों लहसुन,प्याज व तामसिक भोजन वर्जित माना जाता है। छठ पर्व की पूजा की परंपरा में अब बदलाव भी आने लग गया है। नदी, तालाबों में जाकर अर्घ्य देने की जगह अब कई व्रती अपने अपने घर पर कुएं या हौज में पानी भरकर भगवान भास्कर का ध्यान कर अर्घ्य देती हैं। इसका मुख्य कारण तालाब व नदियों के तट गंदगी से दूषित हो गए हैं। इस व्रत को करने से सामाजिक समरसता का भाव पैदा होता है। लोग बैरभाव भूलकर सहयोग के लिए आगे आते हैं। इस व्रत के दौरान व्रती के हाथों प्रसाद व आशीर्वाद लेना शुभ माना जाता है। छठ पूजा का असली रूप बिहार में देखने को मिलता है जहां का लोक जीवन सामाजिक, धार्मिक व जातीय खांचों में बंटा हुआ है, लेकिन इस सब के बीच उत्सव धर्मिता बंटे हुए जनजीवन के बीच सेतु का काम करती है। इस पर्व की खासियत ही यही है कि यह कर्मकांडों की जटिलता से ऊपर है। त्यौहार सभी तबके के लोगों को करीब लाते हैं। समस्त व्रतियों के प्रति लोगों में आदर व श्रद्धा सामान्य होती है। छठ पर्व का इतिहास भले ही समृद्धि की ऊंचाई पर है लेकिन इस पर्व का भूगोल भी बिहार के पूर्वी उत्तर प्रदेश से बाहर निकला है। बिहार से बाहर अन्य राज्यों में बसे यहां के लोग छठ पर्व मनाने के लिए देश के नदी तालाब के घाटों पर इसे पूरी श्रद्धा के साथ मनाकर सूर्य देव की पूजा करते हैं। छठ पर्व के दौरान नदियों के घाटों पर विशेष रूप से उत्साह देखने को मिलता है जहां घाटों पर मेले आयोजित किये जाते हैं व दूर-दराज से ग्रामीण व शहरी श्रद्धालु जुटते हैं। छठ पूजा करने से घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है तथा परिवारों में सुख समृद्धि का भी आगमन होता है। इस व्रत को करने से चर्म तथा नेत्ररोग से भी मुक्ति मिलती है। महाभारत काल में माता कुंती ने भी सूर्योपासना के द्वारा ही अत्यंत तेजस्वी पुत्र कर्ण की प्राप्ति की थी। इससे भी पूर्व इस व्रत को च्यवन मुनि की पत्नी सुकन्या ने अपने जराजीर्ण पति के स्वस्थ होने व नेत्र ज्योति प्राप्त करने हेतु किया था। भगवान राम ने अयोध्या लौट कर अपने राज्याभिषेक के बाद माता सीता सहित कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को सूर्य देवता की व्रतोपासना की थी। छठ पर्व की महत्ता दिन ब दिन बढ़ने से न केवल बिहार अपितु झारखंड, उत्तर प्रदेश एवं भारत के पड़ोसी देश नेपाल में भी निष्ठापूर्वक उदीयमान सूर्य की अर्घ्य के साथ पूजा अर्चना की जाती है। (युवराज)
—चेतन चौहान