गालिब की हवेली जहां दीवारें गुनगुनाती हैं शायरी
अगर आप दिल्ली या उसके आसपास कहीं रहते हैं और किसी हफ्ते आपके पास सैर-सपाटे के लिए मौका है और इसके लिए मन भी कर रहा है, तो क्यों न एक बार ़गालिब की हवेली घूम आएं। लेकिन यदि दिल्ली या इसके पास नहीं रहते और दिल्ली आये हुए हैं या अकसर आते रहते हैं, तो उर्दू, फारसी शायरी के इस पितामह से मिलने एक बार उनकी हवेली ज़रूर आएं।
मिर्जा ़गालिब की हवेली का सिर्फ ऐतिहासिक महत्वभर नहीं है। यह हमारे अंदर की चेतना और संवेदना की भी सूचक होती है। यदि हम किसी रोज़ यहां घूमने का मन बनाते हैं तो जान लें कि दिल्ली में मिर्जा ़गालिब की हवेली पहुंचना बहुत आसान है। हालांकि यह हवेली चांदनी चौक की जिस भीड़ भरी गालियों के बीच मौजूद है, वहां कहीं बाहर से आकर यकायक पहुंचने में समय लगता है, लेकिन पहुंचना मुश्किल नहीं है, क्योंकि यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा घोषित विरासत स्थल है। इसलिए चांदनी चौक की भीड़भाड़ के बीच ईंटों और स्तंभों से सजी इस इमारत की देखरेख अब बहुत अच्छे से की जा रही है और इसकी जर्जरता को भी काफी हद तक दुरुस्त कर लिया गया है, इसलिए समय निकालकर वास्तुकला की विशिष्ट मुगलशैली का दर्शन करने के लिए किसी दिन यहां ज़रूर आएं।
इसे दिल्ली सरकार द्वारा स्थायी स्मारक घोषित किया गया है। इस हवेली में एक संग्रहालय भी है, जो गालिब की किताबों, उनकी हाथ से लिखी कविताओं और उनके तथा उनके समकालीन कई उस्ताद शायरों के चित्र भी यहां आदमकद आकार में चमकते मिलेंगे। यह हवेली महज ईंट पत्थर का मकान भर नहीं है बल्कि ़गालिब की जीती जागती जीवनी है। यहां कवि के जीवन की झलक देने वाले अनेक चिन्ह बड़े जीवंत अंदाज में मौजूद है। लंबा कुर्ता और लंबे ही बालों में सजी ़गालिब की लंबी टोपी, इस हवेली में घुसते ही आपके अवचेतन का हिस्सा हो जाती है। यहां हम कुछ न देखें तो भी हमें ़गालिब की यह तस्वीर हमारे जेहन में घूमती दिखती है। जब हम यहां कुछ समय गुजारते हैं तो बिना कुछ कहे और सुने भी मन को आभाष होता है कि जैसे हम अपने उस्ताद शायर के साथ हैं। यहां गालिब की कई तरह यादें और निशानियां समेटी गई हैं। यह हवेली हर दिन सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक खुली रहती है और इसका निकटतम मेट्रो स्टेशन चावड़ी बाजार/चांदनी चौक है।
मिर्जा गालिब उर्दू भाषा के महान कवि होने के साथ-साथ वे फारसी भाषा में भी लिखते थे। जब वह अभी महज 11 साल की उम्र में थे कि तभी से उन्होंने इन दोनो भाषाओं में शायरी लिखनी शुरु कर दी थी। ़गालिब को मुख्य रूप से उर्दू की महान और आध्यात्मिकता से ओतप्रोत ़गज़लों के लिए जाना जाता है। गालिब का पूरा नाम मिर्जा असद-उल्लाह बेग खां था। इनका जन्म 27 दिसम्बर, 1797 को आगरा में हुआ था और वह मुगलकाल के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर के दरबारी कवि भी थे। ़गालिब शादी के बाद उत्तर प्रदेश के आगरा से दिल्ली आ गए थे। यहां आने के बाद करीब नौ साल तक वह इसी हवेली में रहे थे। यहां रहने के दौरान उन्होंने उर्दू शायरी में एक से बढ़कर एक नगीने जोड़े। उसी दौरान उन्होंने उर्दू और फारसी में ‘दीवान’ की रचना की। उनकी मृत्यु के बाद हवेली में साल 1999 तक बाज़ार लगता था और भी कई काम होते थे। इस वजह से लंबे-चौड़े क्षेत्रफल में फैली यह हवेली अपना वजूद ही खोने लगा था।
अंतत: एक समय बाद लोगों को और दिल्ली की सरकार को भी इस बात की सुध आयी कि यह ़गालिब की हवेली है, तब फिर लोगों ने सरकार से लगातार इसे संरक्षित करने का अनुरोध किया और अंतत: साल 1999 में सरकार ने इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया। इसके बाद हवेली का जीर्णोद्धार कराया गया ताकि मुगल सल्तनत की इस अनमोल धरोहर को इसके पूर्व रूप में वापस लाया जा सके। हवेली को विशेष लुक देने के लिए मुगल लखोरी ब्रिक्स, सैंड स्टोन और लकड़ी के दरवाजों का इस्तेमाल किया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस इमारत का ऐलान विरासत के तौर पर किया है।
सहेजे हुए है बहुत कुछ
बड़े से दरवाजे से होकर अंदर जाते ही सबसे पहले नज़र आती है गालिब का संगमरमरी बुत। इस बुत के हाथ में कई किताबें भी रखी गई हैं। ़गालिब और उनके परिवार द्वारा इस्तेमाल किए गए सामानों, बर्तनों और कपड़ों की शीशे के फ्रेमों में दर्शाया गया है। इसके अलावा चौसर, शतरंज की बिसातें भी यहां मौजूद हैं। हवेली के बड़े से गलियारे में ़गालिब की आदमकद पेंटिंग है, जिसमें वह हुक्का पीते हुए दिखते हैं। हवेली की दीवारों पर ़गालिब की उर्दू शायरियां मौजूद हैं। इस हवेली में गालिब के अलावा जिन और कई महान कवियों के कटआउट मौजूद हैं, उसमें उस्ताद जौक, हकीम मोमिन खां ‘मोमिन’ और अबू जफर भी शामिल हैं। यहां हर साल 27 दिसंबर को ़गालिब के जन्मदिन के मौके पर मुशायरे का आयोजन होता है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर