केन्द्रीय जांच ब्यूरो का भीतरी विवाद विश्वसनीयता पर आघात


देश की एक प्रतिष्ठाजनक जांच एजेंसी केन्द्रीय जांच ब्यूरो के अधिकारियों एवं सत्ता व्यवस्था के बीच विगत कुछ समय से जारी खींच-तान को लेकर उपजे विवाद से जहां एजेंसी की अपनी विश्वसनीयता को आघात पहुंचा है, वहीं पर्दे के पीछे से उठते धुएं से ऐसा भी प्रतीत होता है, कि इतने महत्त्वपूर्ण संस्थानों में भी सरकारी हस्तक्षेप के आरोप पूर्णतया निराधार तो नहीं हैं। केन्द्रीय जांच ब्यूरो में यह विवाद किन मुद्दों को लेकर उपजा, इसे लेकर कई तरह की चर्चाएं हो सकती हैं, परन्तु इस विवाद ने इस संस्था के अधिकारियों के बीच भी भेदभाव और अविश्वास के बीज बो दिये हैं। यहां तक कि, कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत हुआ है कि इस अति अहम संस्था के काम-काज पर भी स्वार्थ-परक राजनीति के काले साये मंडराने लगे हैं। नि:संदेह इससे एक ओर राष्ट्रीय महत्त्व के निर्णयों के प्रभावित होने का खतरा पैदा हुआ है, तो दूसरी ओर देश की सुरक्षा-व्यवस्था पर भी प्रश्न-चिन्ह उभरे हैं। केन्द्रीय जांच ब्यूरो की साख पर एक और बड़ा प्रहार आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू और पं. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने भी किया जब उन्होंने इस एजेंसी के किसी सदस्य के उनके प्रदेश में बिना आज्ञा प्रवेश पर पाबन्दी लगा दी। इसकी पृष्ठभूमि में भी यही विवाद रहा बताया जाता है।
इस विवाद की शुरुआत इस एजेंसी के निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच उपजे मतभेदों और एक-दूसरे के विरुद्ध की गई छींटा-कशी को लेकर हुई मानी जाती है। यह चिंगारी धीरे-धीरे सुलगते हुए एक ऐसी अग्नि में परिवर्तित होती गई जिसने इन दोनों अधिकारियों की सम्पूर्ण कार्य-प्रणाली और संस्था की तमाम तरह की विश्वसनीयता के पांव घायल कर दिये। एक समय ऐसा भी आया जब सरकार ने अपने हाथों को सेंक लगने से बचाने के लिए दोनों को जब्री छुट्टी पर भेज दिया, परन्तु अब इस एजेंसी के डी.आई.जी. मनीष कुमार सिन्हा द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई एक याचिका ने इस मामले को सीधे प्रधानमंत्री की चौखट पर ला स्थापित किया है। इस याचिका में स्पष्ट तौर पर आरोप लगाया गया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल एजेंसी द्वारा अपने ही विशेष निदेशक के विरुद्ध जांच किये जाने के निर्णय को प्रभावित करने के लिए प्रत्यक्ष दखलन्दाज़ी कर रहे हैं। इससे यह लड़ाई सीधे सड़क पर उतर आई है। आश्चर्य इस बात का भी है कि इतने दिनों से यह विवाद राख के ढेर में दबी चिंगारी की भांति सुलगता रहा है, परन्तु सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय तक सम्पर्क रखने वाली इस एजेंसी की लाज की चिंता किसी ने भी नहीं की। इसका नतीजा यह हुआ है कि अब किसी धमाके की आशंका को पूर्णतया निर्मूल तो नहीं कहा जा सकता। इस मामले का एक त्रासद पक्ष यह भी है कि विवाद के केन्द्र-बिन्दू में दोनों अधिकारियों ने एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये हैं, और स्वयं अदालत ने भी इस पूरे मुद्दे पर किसी को क्लीन चिट देने से इन्कार किया है। इससे पूर्व आलोक वर्मा भी अपने अधिकारों के छिनने और बलात् छुट्टी पर भेजे जाने के निर्णय को चुनौती दे चुके हैं। ऐसे में मनीष कुमार सिन्हा के सील बंद लिफाफों में दर्ज आरोपों के लीक हो जाने, और उसके समाचार-पत्रों में प्रकाशन पर सर्वोच्च अदालत ने कड़ी नाराज़गी जताई है।
इस मामले का एक और बड़ा त्रासद पक्ष यह भी है कि केन्द्रीय सतर्कता ब्यूरो और एक केन्द्रीय मंत्री भी इस विवाद से जुड़े प्रतीत हुए हैं। हम समझते हैं कि बेशक दूध और पानी को अलग तो बेशक अदालत ही करेगी, परन्तु इस विवाद ने विदेशों में देश की छवि पर भी स्याही की एक छींट उड़ाई तो है। गम्भीरतम मामलों की सुनवाई कर अहम निर्णय देने वाली इस संस्था के अधिकारियों की भीतरी दूषणबाज़ी और एक-दूसरे के वस्त्रों के भीतर झांकने की लम्बी प्रक्रिया ने ऐसा जताया है मानो देश में सर्वत्र भ्रष्टाचार ही व्याप्त है। तथापि हैदराबाद के एक व्यापारी द्वारा एक केन्द्रीय मंत्री को करोड़ों रुपए की रिश्वत देने का लगाया गया खुला आरोप केन्द्र सरकार की चादर को द़ागदार तो करता ही है।
हम समझते हैं कि बेशक इस मामले को लेकर राजनीतिक नेताओं की एक-दूसरे के विरुद्ध छींटाकशी कह कर हाशिये पर किया जा सकता है, परन्तु सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियां तो अवश्य कुछ सोचने पर विवश करती हैं। देश का आम आदमी अब यह सोचने पर विवश है कि राजनीति और प्रशासन के भ्रष्ट तंत्र की जांच हेतु गठित इन बड़ी एजेंसियों की नींव में भी यदि खट्टा डाले जाने लगा है, तो फिर भविष्य में किस पर निर्भर किया जा सकता है। तकिया  बने पत्ते ही जब हवा देने लगेंगे तो फिर आग से कौन साफ बच पाएगा। मामला अब सर्वोच्च अदालत में है, और उसी पर अब पूरे राष्ट्र की नज़र है कि वह कैसे दूध और पानी को अलग करवाएगी। इस बात को समझने में अधिक यत्नों की ज़रूरत नहीं कि देश की इस प्रतिष्ठाजनक संस्था की विश्वसनीयता और इसके अधिकारियों की छवि के बेदाग साबित करने में कुछ अतिरिक्त श्रम तो करना ही पड़ेगा। आम लोगों को इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि कौन कितना भ्रष्ट है। उसे तो यह बताया जाना चाहिए, कि भ्रष्टाचार इतना ऊंचे क्यों उठा और देश के तंत्र को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने के लिए अब क्या किया जा सकता है। सवाल अब राहजनी अथवा राहजनों का नहीं, राहबरों की अपनी प्रतिष्ठा का है जिनका अपना दामन भी इस आग में झुलसा है। हम समझते हैं कि देश के हित-चिन्तक जितनी शीघ्र इस मामले को हल करेंगे, उतना ही देश और देशवासियों के हित में होगा।