इलैक्ट्रॉनिक संचार माध्यम के कठिन पथ

पंजाब में डबवाली के निकट गांव गिद्दड़खेड़ा से सितम्बर माह के अंतिम दिन की एक खबर अत्यंत चिन्ताजनक है। हरपाल सिंह नामक एक युवक द्वारा किए जा रहे मोबाइल के अंधाधुंध इस्तेमाल ने माता-पिता को इतना परेशान किया कि उन्होंने उससे मोबाइल छीन लिया। बदले में हरपाल ने माता मलकीत कौर तथा पिता जसवंत सिंह को नींद की गोलियां देकर बेहोश करके सबल के साथ दोनों की हत्या करके उनके शवों को आग लगा दी। देखने-सुनने वालों की कहा कि उन्होंने आत्महत्या की है। सच्चाई सामने आई तो पुलिस ने पुत्र को गिरफ्तार कर लिया तो भाइचारे में रोष की लहर फैल गई। इंटरनैट, गूगल तथा मोबाइल आदि इलैक्ट्रॉनिक विधियां पूरे विश्व में चर्चा का विषय बनी हुई हैं। इनके लाभ से इन्कार नहीं किया जा सकता, परन्तु इनका दुरुपयोग के कृत्य दिन-प्रतिनिद सामने आ रहे हैं। विशेषकर किशोर अवस्था एवं नादान बच्चों की पहुंच में आने के कारण। अब तो आनलाइन खेलों के प्रचलन ने राजनीतिक एवं सामाजित नेताओं का ध्यान भी अकर्षित कर लिया है। सैल्फी लेते हुए मौत होने के समाचार तो आम ही हैं। माता-पिता की हत्या नई बात है।
माता-पिता के एक बड़े हिस्से का मानना है कि बच्चों को अपने कम्प्यूटर तथा मोबाइल का ज़रूरत के अनुसार ही इस्तेमाल करना चाहिए और वास्तविक जीवन के अनुभव प्राप्त करने चाहिएं। ऑनलाइन अज्ञान लोगों से जुड़ने की बजाय बच्चों का आस-पास के क्षेत्र, बस्ती या गांव के जानकार लोगों से मिलना सामाजिक एवं भाषायी विकास में सहायक होगा। 
तमिलनाडु में लगभग 20 प्रतिशत विद्यार्थी ऑनलाइन खेलों के आदी हैं। वहां करवाए गए एक अध्ययन में स्कूल तथा उच्च शिक्षा के विद्यार्थी भी शामिल थे। जयपुर (राजस्थान) के एक मनोवैज्ञानिक अस्पताल ने इंटरनैट की लत के कारण बच्चों में व्यवहारिक बदलाव के बारे में अध्ययन किया है और दिल्ली, उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में माता-पिता, अध्यापकों तथा मनोवैज्ञानिकों ने अनुभव किया है कि बच्चों द्वारा लम्बे समय तक कम्प्यूटर-इंटरनैट का इस्तेमाल करने तथा लम्बे समय तक ऑनलाइन गेम खेलने के कारण मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक चुनौतियां पैदा हो रही हैं। दिल्ली तथा पड़ोसी राज्यों के अस्पतालों में दिमागी तथा सिर दर्द की समस्याओं से पीड़ित बच्चों की संख्या बढ़ रही है। बच्चों की नज़र कमज़ोर हो रही है और कमर दर्द भी बढ़ रहा है। यदि 12 से 18 वर्ष के बच्चों में ‘सक्रीन टाइम’ अधिक होने के कारण बेचैनी, अकेलापन, गुस्सा, इन्सोमनियां तथा पढ़ाई में रुचि की कमी जैसे लक्षण दिखाई देते हैं तो यह चिन्ता की बात है। यह अनुमान लगाया गया है कि यदि कोई बच्चा एक घंटे तक फोन का इस्तेमाल करता है, तो उसकी नींद 16 मिनट तक कम हो जाती है। जब नींद पूरी नहीं होती है, तो एकाग्रता एवं व्यवहार की कमी होगी और भाषा हमलावर हो सकती है। भाषा का हावी होना तो एक ओर रहा, बाहु-बल का इस्तेमाल भी बढ़ रहा है। माता-पिता की हत्या इसी का परिणाम है।
माता-पिता समझ नहीं पा रहे कि अपने बच्चों को शारीरिक स्वास्थ्य के लिए खेल के मैदान में कैसे भेजना है। तकनीक हमारे जीवन को कुछ आसान बना रही है, परन्तु बढ़ती हुई समस्याएं अब घर के भीतर दिखाई देने लग पड़ी हैं। आज के बच्चों का बाहरी संसार मुख्य तौर पर सोशल मीडिया के इर्द-गिर्द ही सीमित होता जा रहा है। वे इंस्टाग्राम तथा फेस बुक के ‘लाइक’ कारण खुश हो जाते हैं और यह बताना चाहते हैं कि उनका जीवन शानदार है और वे किसी की परवाह नहीं करते। बच्चों में हर किसी से कुछ भी मांगने का रुझान बढ़ता है, चाहे उस चीज़ की वास्तविक ज़रूरत हो या न हो। कुछ भी मांगने में अकेले बच्चे का दोष नहीं है। बच्चों के लिए सामान बनाने वाली कम्पनियां अब बच्चों को अपने ‘कर्मचारी ब्रांड अम्बैसडर’ के रूप में देखती हैं और उनके माध्यम से सोशल मीडिया पर ‘मार्किटिंग’ करती हैं। मनोवैज्ञानिकों की मदद से बच्चों के लिए ऐेसी ‘मार्किटिंग’ रणनीति बनाई जा रही है, जिसे आज के बच्चे माता-पिता की जानकारी के बिना ही ग्रहण कर लेते हैं। बच्चा किसी के घर में जन्म लेता है, परन्तु मीडिया, एप तथा खिलौना कम्पनियां उसे निशाना बनाने की विधियां ढूंढ लेती हैं। बच्चा बाज़ारी समाज के लिए बढ़िया उपभोक्ता बन जाता है। कम्पनियों के मालिक जानते हैं कि यहां वही चीज़ बिकेगी, जो बच्चे मांगते हैं। यह कोई ज़रूरी नहीं कि वह वस्तु बच्चे के काम आती है या नहीं।  यह मामला इतना ही नहीं, एकाग्रता का भंग होना कक्षा में भी विघ्न डालता है। यही कारण है कि यूनेस्को ने विश्व भर के स्कूलों में स्मार्ट फोन के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने की अपील की है, परन्तु इस पर भी एक-चौथाई देशों में कोई असर नहीं हुआ। 
2017-18 में ब्राज़ील की एक संस्था के अध्ययन के अनुसार तीन घंटे से अधिक फोन का लगातार इस्तेमाल बच्चों के लिए अत्यंत घातक है। 14 से 18 वर्ष की आयु के 2628 विद्यार्थियों पर किए गए इस अध्ययन ने बताया है कि 39 प्रतिशत लड़के तथा 55 प्रतिशत लड़कियां ‘बोरैसिस स्पाइन पेन’ (टी.एस.पी.) से पीड़ित थे। उनकी गर्दन से लेकर पीठ के निचले भाग तक दर्द रहता था। इस पीड़ा का समाधान भी आसान नहीं। बड़ी बात यह कि माता-पिता के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं। वे अपनी भूमिका नहीं निभा रहे। इस व्यस्तता भरे जीवन में माता-पिता अपने बच्चों को सुबह-शाम भी नहीं मिल पाते। अखिरकार, माता-पिता की बजाय बच्चे टीवी तथा कम्प्यूटर से नैतिकता सीख रहे हैं। माता-पिता के पास यह जानने तथा सुनने का समय नहीं है कि बच्चे इंटरनैट के माध्यम से किसके सम्पर्क में हैं, वे क्या देख रहे हैं और क्या कर रहे हैं? तकनीकी विकास द्वारा संचालित बाज़ार हमें कहां ले जा रहा है? आस्ट्रेलिया में 2011 के एक सर्वेक्षण के अनुसार बालिगों ने ‘ई-सुरक्षा’ बारे अपने अनुभव साझा किए, जिनमें अवांछित सामग्री भेजने से लेकर बिना अनुमति उनके खातों तक पहुंच करने की चिन्ताएं सामने आईं। इसी कारण आस्ट्रेलिया में बच्चों द्वारा सोशल मीडिया के इस्तेमाल करने का मुद्दा उठा है। इससे पहले यूरोपियन यूनियन ने भी ऐसी कोशिश की थी कि बच्चे एक विशेष आयु से पहले सोशल मीडिया का इस्तेमाल न करें, परन्तु बच्चों के ऑनलाइन अधिकारों की वकालत करने वाली संस्थाओं की आलोचना के कारण यूरोपियन यूनियन ने सोशल मीडिया के इस्तेमाल के लिए ऐसी कोई व्यवस्था लागू नहीं की। 
कुछ भी हो आज के दिन माता-पिता तथा अध्यापकों के अतिरिक्त अन्य कोई इस रुझान को नकेल डालने के योग्य नहीं। उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी संभालनी होगी। यदि घर-घर में यह नौबत आ गई, जिसका ज़िक्र लेख के आरम्भ में किया गया है, तो पानी सिर के ऊपर से गुज़र चुका होगा। सरकारों को भी घर से बाहर वाली खेलों की ओर ध्यान देना चाहिए। रोज़गार के साधन बढ़ाने सहित, तुरंत।
कुल्लू की मस्जिद से न्याय प्रणाली 
कुल्लू के अखाड़ा बाज़ार स्थित इमारत को प्राचीन तथा सही घोषित किए जाने ने वहां की दक्षिणपंथी हिन्दू आबादी द्वारा इसे अनियमितता बताए जाने वाले मुद्दे पर मिट्टी डाल दी है। कुल्लू के एस.डी.एम. विकास शुक्ला ने यह फैसला पंजाब वक्फ बोर्ड के रिकार्ड को आधार बना कर दिया है, जिसे चुनौती देना संभव नहीं। मस्जिद वालों ने मामूली-सा बदलाव अवश्य किया है जिस बारे टाऊन एंड कंट्री प्लानिंग विभाग शिमला, आवश्यक कार्रवाई कर रहा है। इस बात को लेकर प्राचीन जामा मस्जिद को अवैध कहना बिल्कुल ही गलत था। यह मस्जिद देश के विभाजन से पहले की है और वक्फ बोर्ड इस पर 1970 में भी सही पा चुका है। सरकारें तो समय के साथ बदलती रहती हैं, परन्तु धार्मिक स्थानों के नाम पर जनता को भड़काना बहुत बुरा है। यदि मुस्लिम आबादी पैसे की कमी के कारण इसे 2003 से अभी तक अपने पांवों पर खड़ा नहीं कर सकी तो इसे अनियमितता कहना और भी बुरी बात है। शिमला से आने वाले संदेश का इंतज़ार करना बनता है। 
मार्क्सवादी सोच का भविष्य
साथी सीतराम येचुरी के निधन ने वामपंथी सोच वालों को मार्क्सवादी दृष्टिकोण के भविष्य के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है। मुख्य ज़रूरत इस बात की है कि दक्षिणपंथी विचारधारा के खिलाफ एकजुट हुआ जाए। वरिष्ठ नेता प्रकाश कतार को चाहिए कि सांझी सोच वालों के साथ तालमेल करके ऐसा मंच तैयार करें जिससे गलत धारणा वालों का मुकाबला किया जा सके। अच्छे तथा ऊंचे लक्ष्य के लिए आपसी मतभेद कुर्बान करना भी बुरा नहीं होता। हो सकता है या नहीं, समय बताएगा।