देश की सबसे पुरानी रामलीला जिसे तुलसीदास ने शुरू करवाया 

क्या आप जानते हैं देश में सबसे पुरानी और सबसे पहली रामलीला कौन सी है? जी हां, यह उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के ऐशबाग की रामलीला है। इसका मंचन 500 सालों से भी ज्यादा पुराना है। इसके साथ जुड़ी सबसे खास बात यह है कि इसे खुद गोस्वामी तुलसीदास जी ने शुरु करवाया था। 16वीं शताब्दी में जब तुलसीदास जी ने अपना यह ग्रंथ पूरा किया था और इसे जन जन तक पहुंचाने की विभिन्न तरकीबें सोचा करते थे, उन्हीं दिनों एक बार वह चौमासा (बरसात के चार महीने) का प्रवास लखनऊ के मौजूदा ऐशबाग इलाके में किया और बारिश के दिनों में हर रोज़ वह अपनी लिखी हुई रामकथा (रामचरितमानस) को लोगों को सुनाया करते थे। इसी क्रम में उन्हें एक दिन यह ख्याल आया कि क्यों न जैसे वह कथा सुना रहे हैं, ऐसे ही उसका मंचन किया जाए, जिससे लोगों को आसानी से रामकथा समझ में आ जाए। 
इस विचार को उन्होंने अपने सायंकालीन कथा श्रोताओं से भी साझा किया। उन्हें भी यह विचार पसंद आया। मगर सवाल यह था कि आखिर जैसे बाबा तुलसीदास ने मानस लिखी थी, उसका वैसे ही मंचन कौन करे? वास्तव में आम लोगों के बीच तब यह कथा इतनी लोकप्रिय नहीं थी कि आम लोग इसको पूरी तरह से आत्मसात करते हुए, मंचन संभव कर सकें। यह साधु संतों के जरिये ही संभव था, क्योंकि साधु संत इस कथा से अच्छी तरह से परिचित थे। तुलसीदास बाबा ने इस संबंध में साधु संतों से चर्चा की तो वह भी खुशी-खुशी इसके लिए तैयार हो गये। इस तरह 16वीं शताब्दी में पहली बार रामलीला के मंचन की शुरुआत अयोध्या के खांटी साधु संतों के जरिये शुरु हुई। कहने की ज़रूरत नहीं है कि लोगों को यह बहुत पसंद आयी तथा उनका इसे जबर्दस्त समर्थन मिला। लोग रामकथा को अपनी आंखों के सामने स्टेज पर मंचित होते हुए देखकर अभिभूत हो गये। इस तरह देश में रामलीलाओं के मंचन का महान सांस्कृतिक अभियान शुरु हो गया। 
ये वे दिन थे, जब लखनऊ में गंगा-जमुनी तहजीब का खूब बोलबाला था। हिंदू और यहां के शिया मुसलमान बिना किसी धार्मिक भेदभाव के एक-दूसरे के साथ घुल मिलकर रहते थे। यही वजह है कि न सिर्फ शिया मुस्लिमों ने शुरुआत की रामलीला में विभिन्न किरदारों का अभिनय किया बल्कि अवध के तीसरे बादशाह अली शाह जिनके उत्तराधिकारी वाजिद अली शाह थे, उन्होंने तो शाही खजाने से इस रामलीला के मंचन के लिए मदद भी भेजी थी। इस तरह रामचरितमानस के रचिता गोस्वामी तुलसीदास जी की देख-रेख बल्कि कहना चाहिए उनके ही निर्देशन में रामलीला का मंचन शुरू हुआ। स्थानीय लोगों के साथ-साथ तत्कालीन लखनऊ के  मुस्लिम समाज ने भी इसमें भरपूर योगदान दिया। लेकिन इस रामलीला को अपने शिखर पर जिन लोगों ने पहुंचाया निश्चित रूप से वह साधु समाज था। अवध के नवाब आसिफुद्दौला ने इसके लिए भरपूर आर्थिक मदद दी। उन्होंने लखनऊ में ईदगाह और रामलीला दोनो के लिए साढे छह-छह एकड़ जमीन उपलब्ध करायी। रामलीला से उन्हें इस कदर प्रेम था कि वह खुद भी इसमें पाठ किया करते थे। 
लेकिन 1857 में जैसे ही इस देश में अंग्रेजों के विरूद्ध आज़ादी का आंदोलन शुरु हुआ कि माहौल पूरी तरह से अस्त व्यस्त हो गया, जिस कारण 1857 से 1859 तक ऐशबाग की यह ऐतिहासिक रामलीला बंद रही। जब 1860 में यह दोबारा से शुरु हुई तो इसका आधुनिक स्वरूप अस्तित्व में आया। इसके लिए ऐशबाग रामलीला कमेटी का गठन हुआ, जो तब से अब तक वैसे ही चली आ रही है। माना जाता है कि लखनऊ के ऐशबाग में रामलीला के मंचन के बाद ही तुलसी बाबा ने रामलीलाओं के मंचन का यह प्रयोग चित्रकूट और बनारस में किया। यह भी कहा जाता है कि ऐतिहासिक रामलीला के मंचन की शुरुआत के पहले बाबा तुलसीदास ने जहां चौमासा व्यतीत किया था, वहीं पर उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘विनय पत्रिका’ भी लिखी थी। अब इस जगह पर तुलसी शोध संस्थान की इमारत है, जिसे रामलीला कमेटी ने ही साल 2004 में बनवाया है। 
हालांकि 16वीं शताब्दी में जब रामलीला की शुरुआत हुई थी, तब से आजतक इसके मंचन में अनगिनत बदलाव हो चुके हैं, फिर भी रामलीलाओं की मूल संकल्पना वही है, जो 500 साल पहले गोस्वामी तुलसीदास जी ने तय किया था। इन रामलीलाओं में राम की कथा को सिलसिलेवार ढंग से मंचन किया जाता है। जाहिर है हर दौर में अभिव्यक्ति का तरीका बदल जाता है। क्योंकि पिछले 500 सालों में हमारी अभिव्यक्ति का तरीका बेहद उन्नत और आधुनिकता से भरपूर हो गया है, इसलिए 500 साल पहले की रामलीलाओं और आज की रामलीला में जमीन आसमान का फर्क है। फिर भी मूल पाठ एक ही है। ऐशबाग रामलीला के साथ सबसे खास बात यह है कि जहां देश में पहली बार रामलीला के मंचन का सौभाग्य नवाबों की नगरी के इस इलाके को हासिल हुआ, वहीं आज पूरे देश में सबसे हाईटैक रामलीला भी यही ऐशबाग की रामलीला है। 
ऐशबाग की यह रामलीला आज पूरी दुनिया में मशहूर है। यही वजह है कि हर साल इसे देखने के लिए देश के कोने-कोने से ही नहीं बल्कि दुनिया के कोने-कोने से सैकड़ों लोग आते हैं। इसका डिजिटल प्रसारण भी होता है। इस रामलीला में देश के जाने माने अभिनेता शामिल होते हैं, जो कई महीनों पहले से ही आजकल जूम के जरिये ऑनलाइन रिहर्सल शुरू कर देते हैं। इन कलाकारों की एक और खास बात है ये अभिनय के लिए कोई शुल्क नहीं लेते। यहीं तुलसी शोध संस्थान में मौजूद रामचरितमानस के 100 प्रसिद्ध संस्करणों के अध्ययन और शोध के लिए भी पूरी दुनिया से शोधार्थी आते हैं। पहले जहां रामलीला का मंचन मैदान के बीचोबीच बने एक ऊंचे टीले में होता था, वहीं आजकल इसका मंचन आधुनिक सुविधाओं से लैस सभागार में होता है। इस तरह देखा जाए तो देश की पहली रामलीला ने अपना सफर जबर्दस्त कामयाबी के साथ पूरा किया है। हालांकि आज देश ही नहीं बल्कि दुनिया की सैकड़ों जगहों पर रामकथाओं या राम की लीलाओं का मंचन हो रहा है और सच तो यह है कि कई देशों में इसके लिए दिन भी सुनिश्चित नहीं है बल्कि पूरे साल ही रामकथा का मंचन होता रहता है। लेकिन जब भी रामकथा के इतिहास के पन्ने पलटे जाते हैं, सबसे पहला जिक्र लखनऊ के ऐशबाग की रामलीला का ही होता है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर