संयुक्त राष्ट्र में भारी होता भारत का पलड़ा

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन किया है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र निकाय के विस्तार की वकालत की है। मैक्रों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में कहा कि फ्रांस सुरक्षा परिषद के विस्तार के पक्ष में है। जर्मनी, जापान, भारत और ब्राज़ील को परिषद का स्थायी सदस्य होना चाहिए। साथ ही दो ऐसे देश भी होने चाहिए, जिन्हें अफ्रीका प्रतिनिधित्व के लिए अनुशंसा करे। दूसरी तरफ पाकिस्तान से दोस्ती और भारत विरोधी रुख के लिए चर्चित तुर्किये के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगान ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान को झटका दिया है। उन्होंने गाज़ा युद्ध को लेकर जम कर हमला बोला, लेकिन इस बार कश्मीर का ज़िक्र तक नहीं किया। साल 2019 के बाद पहली बार ऐसा हुआ है, जब एर्दोगान ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मुद्दे पर किनारा किया है। इससे पहले उन्होंने साल 2020, 2021, 2022 और 2023 में कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में उठाया था। अब ऐसे लगता है कि भारत की स्थायी सदस्यता के लिए सहमति बढ़ रही है। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वैश्विक प्रभाव और सफल कूटनीति के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
भारत के संयुक्त राष्ट्र में भारी होते पलड़े के संदर्भ में विदेश नीति के विषेशज्ञों का मानना है कि तुर्किये ब्रिक्स का सदस्य देश बनना चाहता है। इस हेतु उसे भारत की मदद ज़रूरी है। यदि भारत असहमति देता है तो उसे सदस्यता मिलना मुश्किल है। ब्रिक्स में इस वक्त ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ्रीका शामिल हैं। भारत इसमें प्रमुख सदस्यों में से एक है। इस बीच खबर यह भी है कि तुर्किये को नाटो देशों के समूह से बाहर निकाला जा सकता है। इसलिए तुर्किये ब्रिक्स देशों की सदस्यता चाहता है। एर्दोगान ने कहा है कि हम ब्रिक्स देशों के साथ अपने संबंध बेहतर करना चाहते हैं। ब्रिक्स के देश दुनिया की उभरती आर्थिक शक्ति है। इसलिए हम उनके साथ संबंध मजबूत और विश्वसनीय बनाने के पक्षधर है। एर्दोगान ने यह झटका तब दिया है, जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ  ने पूरी तैयारी कर रखी थी कि महासभा में कश्मीर में हो रहे चुनाव का मुद्दा उठाया जाए और इस चुनाव प्रक्रिया को अलोकतांत्रिक बताया जाए, परन्तु दुनिया की सबसे बड़ी तीसरी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे भारत का डंका विश्व की प्रत्येक लोकतांत्रिक और मानवाधिकार हितों की पैरवी करने वाली संस्थाओं में बजता दिख रहा है।
इस परिप्रेक्ष्य में भारत की दलील है कि 1945 में स्थापित 15 देशों की सुरक्षा परिषद 21वीं सदी की लक्ष्यपूर्तियों के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें समकालीन भूराजनीतिक वास्तविकताओं का प्रतिबिंब दिखाई नहीं दे रहा है। वर्तमान में सुरक्षा परिषद में पांच स्थायी सदस्य और 10 अस्थायी सदस्य देश शामिल हैं। जिन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा दो साल के कार्यकाल के लिए चुना जाता है, परंतु पांच स्थायी सदस्य रूस, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस और अमरीका हैं, इनमें से प्रत्येक देश के पास ऐसी शक्ति हैं, जो किसी भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर वीटो लगा सकता है। भारत 2021-22 में संयुक्त राष्ट्र की उच्च परिषद में अस्थायी सदस्य के रूप में चुना गया था। किंतु दुनिया का जो वर्तमान परिदृष्य हैं, उससे निपटने के लिए स्थायी सदस्यों की संख्या दुनिया का हित साधने के लिए बढ़ाई जानी चाहिए। इसीलिए मैक्रों को कहना पड़ा, ‘सुरक्षा परिषद के काम काज के तरीकों में बदलाव, सामूहिक अपराधों के मामलों में वीटों के अधीकार को सीमित करने और शांति बनाए रखने के लिए ज़रूरी फैसलों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। अतएव धरातल पर बेहतर और बेहिचक तरीके से काम करने की दृष्टि से दक्षता हासिल करने का समय आ गया है। मैक्रों की यह टिप्पणी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा 22 सितम्बर, 2024 को ‘भविष्य के शिखर सम्मेलन’ को संबोधित करने के कुछ दिन बाद आई। इसमें मोदी ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि वैश्विक शांति और विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में सुधार आवश्यक है। उन्होंने कहा था कि सुधार प्रासंगिकता की कुंजी है। वाकई इस समय संस्थाएं अपनी प्रासंगिकता खोती दिखाई दे रही हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटारेस ने 15 सदस्य देशों की सुरक्षा परिषद को भी पुरानी व्यवस्था का हिस्सा बताकर आलोचना की। उन्होंने स्पष्ट कहा कि अगर इसकी संरचना और कार्य प्रणाली में सुधार नहीं होता है तो इस संस्था से दुनिया का भरोसा उठ जाएगा।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का गठन हुआ था। इसका मुख्य मकसद भविष्य की पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका और आतंकवाद से सुरक्षित रखना था। याद रहे चीन जवाहरलाल नेहरू की अनुकंपा से सुरक्षा परिषद का सदस्य बना था। कांग्रेस नेता और द्धशह्म्ह्म्शह्म् में अवर महासचिव रहे शशि थरूर की किताब ‘नेहरू-द इन्वेंशन ऑफ  इंडिया’ में थरूर ने लिखा है कि1953 के आसपास भारत को संयुक्त राष्ट्र्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला था. लेकिन उन्होंने चीन को दे दिया। थरूर ने लिखा है कि भारतीय राजनयिकों ने वह फाइल देखी थी, जिस पर नेहरू के इन्कार का ज़िक्र है। नेहरू ने ताइवान के बाद इस सदस्यता को चीन को दे देने की पैरवी की थी। अतएव कहा जा सकता है कि नेहरू की बड़ी भूल और उदारता का नुकसान भारत आज तक उठा रहा है जबकि उस समय अमरीका भारत के पक्ष में था।
भारत का दो बार पाकिस्तान और एक बार चीन से युद्ध हो चुका है। इराक और अफगानिस्तान अमरीका और रूस के जबरन दखल के कारण युद्ध की ऐसी विभीषिका के शिकार हुए कि आज तक उबर नहीं पाए हैं। तालिबान की आमद के बाद अफगानिस्तान में किस बेरहमी से विरोधियों और स्त्रियों को दंडित किया जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं रह गया है। इज़राइल एवं फिलिस्तीन और रूस एवं अमरीका के बीच युद्ध एक नहीं टूटने वाली कड़ी बन गए हैं। अनेक इस्लामिक देश गृह-कलह से जूझ रहे हैं। उत्तर कोरिया और पाकिस्तान बेखौफ  होकर परमाणु युद्ध की धमकी देते रहते हैं। दुनिया में फैल चुके इस्लामिक आतंकवाद पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगा चीन किसी वैश्विक पंचायत के आदेश को नहीं मानता। 


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