पहली पंक्ति में बैठने का सुख 

यदि आप पहली पंक्ति में बैठे हैं तो आप विशेष हैं। आप माननीय हैं। ये वही माननीय होते हैं जो स्कूल कॉलेज लाइफ में बैक बेंचर हुआ करते थे। जिनका काम केवल और केवल गप्पें मारना था। जिनको पढ़ाई-लिखाई बिल्कुल समझ में नहीं आती थी। जो पढ़ाई-लिखाई को बोझ से ज्यादा कुछ ना समझते थे। जब समय निकल गया तो ये माननीय बन गए। कहते हैं हर गदहे का दिन आता है। इन गदहों के दिन भी लदे। जो कल तक बैक बेंचर थे। माननीय बनते ही उनका कद कुछ ऐसा बढ़ा कि लोग उनको समारोहों में पहली पंक्ति में बिठाने लगे। और यहीं से इन माननीयों को प्रथम पंक्ति में बैठने का जो चस्का लगा, वो चलन में आ गया। और आजतक चलता ही आ  रहा है। पढ़े-लिखे लोग अब इनके पीछे हो लिए। अब गदहों की अगुवाई में पूरा समाज चल रहा था। उठने-बैठने का शऊर लोग अब इन माननीयों से सीखने लगे।
यह वो दौर है जब सभ्य समाज को जीने की कला माने आर्ट ऑफ लिविंग इन माननीयों से सीखना है। दिलचस्प ये है कि जो ताउम्र स्कूल गए लेकिन निरक्षर ही रहे। या आधा टाईम पढ़ा और आधा टाइम खेतों में भाग गए। दिलचस्प यह है कि पढ़ा-लिखा आदमी भी उनको अपना आदर्श मान रहा है। आम आदमी अपने को यही मानकर चल रहा है कि हो ना हो, उसके सोचने में ही कहीं भूल हुई है क्योंकि जो इन माननीयों की दशा-दिशा है। जितनी सुख-समृद्धि इनके पास है। उतना तो पढ़ा-लिखा समाज अपना सबकुछ खर्च करके भी हासिल नहीं कर सकता। यानी आम आदमी को यह मानने में कहीं से भी गुरेज नहीं है कि गलती कहीं उनसे ही हुई है। वैसे आम आदमी यही सोचता है कि क्या इन माननीयों की दिनचर्या है। आराम ही आराम। कहीं बर्थ-डे पर चले जाना है, कहीं शादी में, कहीं क्रिकेट मैच के उद्घाटन समारोह में चले जाना है। और हर जगह गाल बजाना है। हर जगह बत्तीसी दिखानी है। आम आदमी दस से चार दफ्तरों के चक्कर लगा रहा है। फिर भी परेशान है।
जो बैक बेंचर कभी मास्टरों से बचते-बचाते भागते थे। वही माननीय बनकर उनको हांकने लगे हैं। उनको हड़काने में लगे हैं। अब ये लोग माननीय हैं तो कोई क्या कह सकता है।
इधर हम लोग भी समय से पहले बड़े हो गए हैं। हम लोग माने हम साधारण लोग जो दाल-भात, साग-सत्तू, रोटी-चावल के लिए झखते रहते हैं। समय के साथ हमारे पेट निकल गए हैं। कुछ के बाल खिचड़ी हो गए हैं। अधिकतर लोग दवाइयों पर ज़िंदगी काट रहे हैं। कभी बी.पी. बढ़ जाता है। कभी शूगर। हम लोग इन बीमारियों और ज़रूरतों के लिए मरे खपे जा रहे हैं। इतिहास गवाह है कि हम जैसे लोगों के लिए काम, काम और काम ही सब कुछ है। काम के अलावे हमने ज़िंदगी में कुछ किया ही नहीं। पत्नी पहले लरजती थीं। बाद में इस काम को लेकर बरजने लगीं। आजकल का हाल यह है कि इसी काम के चलते अब वो अक्सर हम पर गरजती  हैं। समय के साथ ही समय ने यह भी सिखाया है कि पत्नी से ज्यादा मुंह मत लगे। नहीं तो उनसे बुरा कोई नहीं होगा। बचपन में छोटी-छोटी बातों को लेकर छीना-झपटी होती थी। ये मेरा तो ये मेरा। अब ऐसा नहीं है। ये तेरा और वो भी तेरा। इस तरह से देखा जाए तो हम समझदार हो गए हैं। फिर भी लोगों को लगता है कि हम कुछ करते ही नहीं।
लिहाजा हम खलिहार में इधर बहुत समय से नहीं बैठे। खलिहार क्या हम तो इधर एक दो दशक से बैठे ही नहीं। बात बैठने की हो रही है तो खलिहार या तो बाबू बैठते हैं या नेताजी। नेताजी माने खास आदमी। खास आदमी आपको हर जगह पहली पंक्ति में बैठा मिलेगा। यदि आप पहली पंक्ति में नहीं बैठे हैं तो आपको खास नहीं माना जा सकता। खास वही होगा जो पहली पंक्ति में बैठा मिले। नेताओं और बाबुओं में पहली पंक्ति में बैठने की होड़ सी रहती है। आयोजक हमेशा इस बात को ध्यान में रखते हैं कि जो खास हैं, उनको पहली पंक्ति में ही बिठाया जाए जिससे आयोजन की गरिमा बची रहे। यदि मुख्यातिथि या माननीयों को पहली पंक्ति में बैठने का अवसर न मिले तो वे लोग घोड़े की तरह बिदक जाते हैं। आयोजन के खत्म होने के बाद यह शिकायत आयोजक से करते हैं कि उनको पहली पंक्ति में क्यों नहीं बिठाया गया। बहरहाल, आम लोग अथवा आयोजक अनुभव से इस तरह की धृष्टता करने से बचते हैं।  
पहली पंक्ति में यदि माननीयों को बिठाया जाए तो वो छोटे बच्चों की तरह हुलसे से दिखाई देते हैं। फोटो शूट में भी वे प्रथम पंक्ति में दिखाई देना चाहते हैं ताकि इनका दांत निपोरता हुआ छायाचित्र अखबारों की शोभा बढ़ा सके। लिहाज़ा यदि आप भी प्रथम पंक्ति में बैठना चाहते हैं तो पहले इन माननीयों के कृपा पात्र बनिए!
-मेघदूत मार्किट फुसरो 
बोकारो (झारखंड) पिन. 829144 
 

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