करोड़ों दिलों पर राज करने वाले ़गज़ल गायक जगजीत सिंह
पुण्यतिथि पर विशेष
गजाल गायिकी के सम्राट जगजीत सिंह के जाने के बाद जो एक सन्नाटा पसरा था, वह डेढ़ दशकों बाद भी आज तक पसरा है। उनकी भरपायी कोई नहीं कर सका। हां, जब तक वो थे, वह लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन में खालीपन को अपनी मखमली आवाज की जादू से भरते थे। जगजीत सिंह का मूल नाम जगमोहन सिंह था। वह 8 फरवरी 1941 को राजस्थान के श्रीगंगानगर एक मध्यवर्गीय सिख परिवार में जन्में थे, बचपन से ही उनकी संगीत में रुचि थी, जिस कारण आगे जाकर उन्होंने ख्याल, ठुमरी और धु्रपद की शिक्षा ली। वह पढ़ाई के लिए पहले जालंधर और फिर मुंबई गये, जहां उन्होंने विज्ञापनों और जिंगल्स में गाना गाना शुरु किया, यहीं से उनके संगीत का सफर शुरु हुआ, जो बहुत ऊंचाईयों तक पहुंचा। 1976 में उनका एक एलबम ‘द अनफॉरगेटेबल’ आया जिसने गज़ल को घर घर पहुंचा दिया। जगजीत सिंह की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि उन्होंने ़गज़लाें को संगीत की पारंपरिक जटिलता से निकालकर मधुर और जनसामान्य तक पहुंचाया। उनकी आवाज की खनक और मिठास ने ़गज़लों को मौसिकी की महारानी बना दिया।
पाकिस्तान के मशहूर ़गज़ल गायक मेंहदी हसन के बाद जगजीत सिंह ऐसे गायक थे, जिन्हें भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में अपार ख्याति मिली। उनके पिता श्री अमर सिंह लोक निर्माण विभाग में कार्यरत थे, वह पंजाब के ढल्ला गांव के निवासी थे। उनकी मां का नाम बचन कौर था। उनका शुरुआती जीवन बीकानेर में गुजरा। बेटे की बचपन से ही संगीत में गहरी रुचि को देखकर उनके पिता ने उन्हें संगीत की शिक्षा के लिए पंडित छगन लाल शर्मा के पास भेजा। उनसे दो साल तक संगीत की शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने 6 साल तक खयाल, ठुमरी, धुप्रद सीखने में बिताये। भारतीय शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उन्होंने उस्ताद जमाल खां से ली। पिता उन्हें आईएएस अफसर बनाना चाहते थे लेकिन उन पर तो संगीत की खुमारी छाया चुकी थी।
जब वह 9वीं कक्षा में पढ़ते थे, तब उन्होंने पहली बार मंच पर गाया। जब जगजीत सिंह स्नातक शिक्षा के लिए डीएवी कॉलेज जालंधर पहुंचे, तो वहां भी उनका संगीत का शौक जारी रहा। उन्होंने जालंधर के आकाशवाणी केंद्र से गीत गाने की शुरुआत की। 1961 में वह अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई नगरी आ गये। वह एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियों तक दिनभर चक्कर काटते, लेकिन उन्हें लंबे समय तक कोई काम नहीं मिला, उनके रहने का भी कोई ठिकाना नहीं था। जेब में बिल्कुल पैसे नहीं थे, खाने के लाले पड़े थे। उन्हें असफल होकर मजबूरन जालंधर लौटना पड़ा। उनके पास टिकट के भी पैसे नहीं थे। लेकिन हौसला बुलंद था। वह पहली बार भले ही मुंबई से खाली हाथ लौट आये थे, लेकिन गायिकी में अपनी दोबारा किस्मत आजमाने के उनके इरादे बुलंद थे।
थोड़े पैसे जमा करके वह 1965 में दोबारा मुंबई आ गये। उन्होंने सोच लिया था कि वह अब असफलता के साथ वापस नहीं लौटेंगे। उनकी मेहनत रंग लायी, उन्होंने अपने गायन की शुरुआत छोटी छोटी महफिलों, घरेलू आयोजनों, फिल्मी पार्टियों और विज्ञापन व जिंगल्स से की। इससे उन्हें थोड़ी बहुत आमदनी हो जाती थी। इस पैसे से वह मुंबई में रहकर संघर्ष कर सकते थे। इसी बीच एचएमवी रेडियो कंपनी ने एक रिकॉर्ड के लिए उनसे दो गजले गवायीं, जिसके कवर पर छपने वाले चित्रों के लिए उन्होंने अपनी दाढ़ी और पगड़ी दोनो हटा दिये। बाद में उनकी पत्नी बनी चित्रा सिंह कोलकाता के शोम परिवार से ताल्लुक रखती थीं। चित्रा की मां कृष्णा राय शास्त्रीय गायिका थी, उसकी भी संगीत में बेहद दिलचस्पी थी, यह संगीत ही था, जिसने चित्रा और जगजीत को एक दूसरे के करीब ला दिया था। चित्रा ने कोलकाता में शास्त्रीय और रवींद्र संगीत की शिक्षा हासिल की थी। दोनो ने पहली बार एक विज्ञापन फिल्म के जिंगल में काम किया था। इसके बाद जगजीत सिंह ने चित्रा के साथ अपना पहला एलबम निकाला, जिसे अपार सफलता मिली। चित्रा पहले से शादीशुदा थी, यह जानने के बावजूद जगजीत सिंह ने उससे शादी की थी। उस समय चित्रा की एक 9 साल की बेटी थी। उन दिनों जगजीत सिंह अपना साउंड रिकॉर्डिंग स्टूडियों चलाते थे, उन्होंने कई बांग्ला गीतों में भी आवाज दी है।
चित्रा सिंह और जगजीत के जीवन में खुशी और गम लुकाछिपी का खेल खेलते रहे। अपने बेटे को तो उन्होंने खो ही दिया था। 2009 में चित्रा सिंह की पहली शादी से हुई बेटी मोनिका ने भी अपने बांद्रा स्थित घर में आत्महत्या कर ली, इस हादसे ने दोनों को फिर से गहरे अवसाद में डाल दिया। इसके बाद तो चित्रा सिंह ने गायकी को पूरी तरह अलविदा ही कह दिया। चार दशक से भी ज्यादा समय तक लोगों को अपनी आवाज का दीवाना बनाये रखने वाली यह आवाज 10 अक्तूबर 2011 को हमेशा के लिए खामोश हो गई। लेकिन वह अपने गीतों और ़गज़लों के जादू से आज भी हर समय, हर घड़ी लोगों के दिलों में समाये रहते हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर