चौरासी का चार  

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

क्षुधा और आत्म ग्लानि से संघर्ष के उन क्षणों में बरबस कई प्रसंग दिमाग में उठने लगते। जिन वीर सपूतों ने भारत माता की आबरू की रक्षा में अपने शीश कटाए, जिनके बच्चों की बलि दीवार में जिंदा चुनवा कर दी गई, उन्हीं का भारत मां की गोद में ही कत्लेआम हो रहा है। आज जो हो रहा है क्या यह उसी प्रबुद्ध मानसिकता वाली नेतृत्व की देन नहीं है, जिसने नवम गुरु पादशाह का शीश तन से जुदा करने वाले और साहबजादे जोरावर सिंह जी और फतेह सिंह जी को दीवार में जिंदा चुनवाने वाले के नृशंस कृत्य के बावजूद उसके सम्मान में राजधानी की एक प्रमुख सड़क का नाम रख दिया।
छ:-सात दिन उस छोटे से कमरे में हम चार मित्र एकाध शाम के उपवास और सुबहो-शाम के तर्क-वितर्क के बीच जीवन की डोर थामे दृढ़ता से डटे रहे। जीवन की डोर जितनी ही दृढ़ता से हमने पकड़ी थी, मन के अन्तर्द्वंद्व की तीव्रता उससे कहीं बहुत ही अधिक। किन्तु जीवन-पथ से जल्दी विचलित होना विरले हो पाता। आंतरिक द्वन्द्व में कर्त्तव्य बोध भी कम तंग नहीं करता। 
अशोक विहार दिल्ली के अति प्रभावित क्षेत्रों में था। वहां से सामान समेट कर बीडी एस्टेट की तरफ ही आ जाना चाहिए, यह लगने लगा था। सातवें दिन हम चारों अशोक विहार पहुंच गए। सामान बांध लाना था। उधर रुके रहने की हिम्मत ना मुझमें बची थी, न ही संजय में। 
अशोक विहार बस स्टॉप दीप सिनेमा के पास था। क्या हृदयविदारक दृश्य था? सड़कों की छाती टैंकों ने रौंद डाली थी। हर तरफ भारी-भरकम टैंकों की चौड़ी पहियों की मोटी जंजीर वाले चेन सड़कों के सीने में धंसी पड़ी थी। जैसे ये निशान सालों साल ना मिटने वाली हों। राजपथ को तो इनका अनुभव रहा होगा, पर दिल्ली की बहुतायत सड़कों के लिए यह अनुभव डरावना ही था।  
दीप सिनेमा की व्यथा इन सड़कों से तनिक कम न थी। जिस बॉक्स ऑफिस से हमने कई बार टिकटें ली थीं, उसे पहले बेरहमी से तोड़ा गया था। जैसे बार-बार बिना टिकट निराश लौटने वालों ने अपना गुस्सा उसकी हड्डी-पसली तोड़ कर निकालना चाहा हो। उसे नोचा-खसोटा गया था, लगे पोस्टर, टिकटों की प्राइस लिस्ट, शो टाइम की जानकारी फाड़कर दीवारों को किसी धारदार हथियार से गोदा गया था, जैसे उन्हें चीरने की कोशिश की गई हो और फिर जब थक गए हों तो उसे आग के हवाले कर दिया गया हो। दीवारों पर गोदने और चीरने के निशान जल कर काले होने पर भी स्पष्ट थे।
एक अजीब मन:स्थिति में रूम में पहुंचे। मन:स्थिति अजीब हो भी क्यों ना, मनोरंजन के माध्यम से आत्मिक सुख पहुंचने वाले मंदिर की समग्र पीड़ा जो दिल में उतर आई थी। मनोरंजन के इस मंदिर से जुड़े कई सुखद अनुभव थे हम चारों के। 
आंटी (मकान मालकिन) ने देखते ही हाल-चाल पूछा। जब हमने उन्हें बताया, हम सामान लेकर अभी चले जाएंगे, उधर अपनी तरफ के स्टूडेंट्स बहुत हैं, मन आश्वस्त रहेगा। आमतौर पर एक महीने का किराया लेने के बाद ही ऐसे अचानक खाली करने का प्रस्ताव मानते थे लोग। पर यह समय बिल्कुल अलग था। आंटी ने प्रतिवाद नहीं किया। पैकिंग के बाद हमने सोचा, आज एक अंतिम बार श्रवण के हाथ से फूलके और पनीर खा लें और पुराना उधार भी चुकता कर दें। पर अशोक विहार के उस शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की शक्ल इन सात दिनों पहचान से परे थी। कई दुकानें जली हुई थीं। वह ईटरी भी जल चुकी थी। काउन्टर की अध-जली टांगें, टेड़े-पिचके भगोने आदि जहां तहां बिखरे पड़े थे। उस ईटरी के साथ श्रवण का अस्तित्व ऐसे जुड़ गया था कि हम भूल ही गए थे कि उसके मालिक सरदार थे। उन बिखरे भगोने और काउन्टर की अध-जली टांगों और श्रवण की हवा में हिलती छवि के अतिरिक्त उस ईटरी का कोई अवशेष शेष नहीं था। 
सामान टैक्सी में भर कर हम वापस चल पड़े। भारी मन, बिल्कुल चुप। अब तक बीते चार-पांच दिनों के विषय में हमने सिर्फ सुना था। आज सब आंखों के सामने था। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या। नि:शब्द चले आ रहे थे। कभी सिर उठा दूसरे का मुंह देख लेते, जैसे वह कुछ कह रहा हो। पर नजरें मिलते ही सामने वाला पूछ बैठता, ‘कुछ बोल रहे थे क्या’, जवाब एक शब्द का होता, ‘नहीं’। 
वह शाम राकेश के कमरे में निष्प्राण हो गई थी। अशोक विहार की ईटरी की हालत देख सब की भूख भी निश्चेष्ट थी। दोपहर के फाका के बाद भी शाम की जठराग्नि सुप्त थी। रेडियो पर आकाशवाणी और बीबीसी के समाचारों के अतिरिक्त कोई शोर नहीं था। ना-उम्मीदी में भी उम्मीद होती, कोई सूचना इन तथ्यों को झुठला देती, पर काश! यह संभव होता। 
दिन गुजरे, हफ्ता निकल गया। वो चार चित्र, श्रीमती गांधी अपने, ‘एक एक कतरा खून...’ वाले वक्तव्य के साथ, सेन्चुरीन बन पाने से पेवेलियन में मुंह लटका कर दुखी बैठा वेंगसरकर, श्रवण के हाथों में संजय की झूलती हुई पांचवीं रोटी और ‘मैं’, वह नहीं जो अशोक विहार के ईटरी में हत्प्रभ था, बल्कि छ: साल का ‘मैं’ सरदार लाभ सिंह के घर में जीवन में पहली बार सेवईं की कटोरी हाथ में लिए हुए, बार-बार आंख मिचौली करने लगे। 
ये चार चित्र, वे चार दिन, उससे चिपके वे चार चेहरे और एक कमरे में बंद हम चार मित्र चौरासी के आठ के आगे के चार के साथ मेरे दिमाग के एक फ्रेम में फ्रीज हो गए थे और रेडियो पर एक महापुरुष की आवाज़ आ रही थी, ‘जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है’, जैसे जो हुआ वो जायज़ था! (समाप्त)
भारतीय सूचना के सेवा निवृत्त अधिकारी
-मो. 9999326616

#चौरासी का चार