चौरासी का चार

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समय काफी निकल चुका था, किन्तु भूख का आभास बिल्कुल भी नहीं हुआ। उस कोठी के फर्स्ट फ्लोर पर ही रहने वाला विक्रम दो दिन से अपने दोस्त के साथ के एम कॉलेज हॉस्टल में फंसा था। 31 तारीख को ही दोपहर में वह गया था, अमितेश से कुछ नोट्स लेना था। लौट नहीं पाया, रात में अमितेश ने रोक लिया था। उसे भी हॉस्टल में टीवी न्यूज देखने का अतिरिक्त लोभ था। और फिर कर्फ्यू लग गया। दो दिन तो उसकी हिम्मत हुई नहीं कि वह वहां से बीडी एस्टेट वापस लौटे। वहीं पड़ा रहा। उस कॉलेज के हॉस्टल से पीछे का कमला नेहरू नगर मार्किट काफी कुछ दिख जाता था। मार्केट में क्या कुछ चल रहा है, हॉस्टल के छात्र देख सकते थे और देख भी रहे थे। विक्रम भी वहीं था, लाज़िमी तौर पर उसे भी देखना ही था। वहां का दृश्य ही अलग था। उपद्रवी सड़कों पर थे, दुकानें तोड़ कर लूटी जा रही थीं। पुलिस दंगाइयों को रोकने की बजाय उनकी मदद कर रही थी। भारी सामान मसलन टीवी आदि उठाकर सिर पर रखने में ही नहीं, दुकानें चिन्हित करने और तोड़ने में भी। लूट के बाद दुकानों को जलाने के लिए भी दंगाइयों को उकसाया जा रहा था। यह सब देखकर विक्रम को स्पष्ट हो गया था, सिखों के अलावा अन्य को रोका नहीं जा रहा और तब उसने अपने रूम में वापस आने की हिम्मत जुटाई। बसें तो बंद थीं। विक्रम कुछ दूर पुलिस पेट्रोल वालों से लिफ्ट लेकर और कुछ दूर पैदल चल कर वापस पहुंचा था। 
राकेश के रूम में हम चारों के जमावड़े की उसे भनक नहीं थी। राकेश के कमरे में एक कैजुअल लुक डालते हुए विक्रम अपने रूम में निकल जाना चाहता था, संभवत: राकेश को बताते हुए कि वह वापस आ गया। किन्तु उसकी नज़र जैसे ही हम तीनों पर पड़ी वह अंदर आ गया। वापसी की अपनी एडवेंचर शेयर करनी थी और कमला नेहरू मार्केट का आंखों देखा हाल जो सुनाना था। विक्रम ने जैसे ही शुरू किया, ‘तुम लोग जानते भी हो बाहर क्या हो रहा?’ हम सबके कान खड़े हो गए। ‘हमें क्या पता होगा, हम तो इस कमरे से लेकर पीछे वाली दुकान तक बंध के रह गए हैं’। हमने कहा, ‘बाहर से तुम आ रहे हो, फिर तुम ही बताओ क्या हो रहा है। और हां ढाबा तो कोई खुला नहीं है, खाने की कोई व्यवस्था तुम्हारे रूम में होगी भी नहीं, तो यहीं हमारे साथ ही खाना खा लेना’। 
‘बाहर की आंखों-देखी तो मैं सुना रहा हूँ, पर इस समय खाने में साथ नहीं दूंगा, अमितेश के हॉस्टल में ही खा लिया था। पर लेट मी बी ब्लन्ट। रात से, स्थिति सामान्य होने तक, तुम लोगों के साथ ही खाऊंगा, बनाने में मैं भी मदद कर दूंगा। इस माहौल में अकेले कुछ बनाने में दिल नहीं लगेगा’। विक्रम ने अपनी बात पूरी की। उसकी आंखों-देखी सुन कर हम तो दंग रह गए। क्या पुलिस दंगाइयों की मदद कर रही है?
यह जानकार लगने लगा, अवश्य ही इन्हें कहीं ऊपर से आदेश है, अन्यथा यह सब खुले आम करने की हिम्मत नहीं होती। अलग-अलग एरिया से खबरें आने लगीं। पूर्वी दिल्ली के सुल्तानपुरी, त्रिलोकपुरी और मंगोलपुरी के साथ में पश्चिमी दिल्ली की नांगलोई, उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के अशोक विहार का नाम भी लिया जाने लगा। ऐसी खबरें उड़ने लगीं कि सांसदों को निर्देश है कि अपने-अपने क्षेत्रों में सिखों को अच्छा सबक सिखाएं। इन सांसदों में होड़ सी लगी है, कौन बाजी मारता है। फिर क्या था, त्रिलोकपुरी समेत दिल्ली के अन्य कई जगहों पर सिखों को ज़िंदा जला दिया गया या जलाने की पुरजोर कोशिश की गई। घर के बाहर दिखने वाले सिखों के गले में ट्रक का टायर डाल कर आग लगा दी गई। अशोक विहार में दीप सिनेमा को दंगाइयों ने फूंक डाला। 
बाद में इन खबरों की पुष्टि भी हुई। चार सांसदों का चेहरा उभर कर सामने आया। यही वे चार चेहरे थे चौरासी के आठ के आगे चार की तरह चिपकने वाले। इनमें से एक को छोड़ तीन भले ही सबूत के अभाव में बरी हो गये हों, पर चौरासी के उन चार दिनों के साथ ये चार चेहरे भी चिपक चुके थे।
तीसरे दिन ‘शक्ति स्थल’ पर पूर्व प्रधानमंत्री का दाह संस्कार होना था। अब तक दिल्ली धधक रही थी। पुलिस अंतिम दर्शन को आए लोगों की सुरक्षा और उस एरिया यानी तीन मूर्ति जहां पार्थिव शरीर दर्शनार्थ रखा हुआ था, की व्यवस्था में मसख़फ थी। शहर जल रहा था। पुलिस रोकने में असमर्थ थी, या रोकना ही नहीं चाहती थी। अंतत: अन्त्येष्टि के दिन दोपहर बाद सेना की टुकड़ियों का दिल्ली की सड़कों पर फ्लैग मार्च शुरू हुआ। दंगे की तीव्रता कुछ काम हुई पर कमोबेश अगले दिन तक चलती रही। चार दिन का तांडव खत्म हुआ पर बहुत कुछ नष्ट कर। अकेले दिल्ली में 2700 से ऊपर सिखों ने जान गंवाई थी। 
देश के कई स्थानों से हिंसा और पलायन की खबरें भी आ रही थीं। बिहार के छोटे से शहर गोपालगंज और पास थावे में तीन चार सिख परिवारों को इन्हीं चार दिनों में अपना घर बार छोड़कर भागना पड़ा। थावे के सरदार लाभ सिंह के घर बिल्कुल छोटा सा ‘मैं’, लगभग छ: वर्ष का, अपनी बहनों के साथ गया था। लाभ सिंह की बेटियां मेरी बहनों के साथ पढ़ती थीं। उनका बेटा, जो मेरी उम्र का था, पठान सूट पहने हुए था, उसके बड़े बाल छोटे पटके से बंधे सिर पर जूड़े की तरह फब रहे थे। पहली बारी हमने सेवईं उन्हीं के घर खाई थीं तब। तब कच्ची सेवइयां हैंड प्रेस्ड मशीन से तैयार की जाती थीं। चाची, यानी लाभ सिंह जी की पत्नी इसे घर ही में तैयार करती थीं। ये सेवइयां शक्ल सूरत में मोटी होती थीं। आज जैसी मशीन से बनी बाज़ार में मिलने वाली पतली बारीक नहीं पर दूध चीनी के साथ उबल कर उनमें भी स्वाद था। उनमें काजू-मुनक्का भी पड़ा था जिससे जायका और बढ़ गया था। मेरे हम उम्र सरदार के पठान सूट की तरह पठान सूट पहना मेरे सिर पर भी पटका में बंधा जूड़ा देखने का शौक मेरी बहनों को कई वर्षों तक रहा। 
उस छोटी जगह में कपड़ा कारोबारी लाभ सिंह का हर व्यक्ति से पारिवारिक संबंध था। जिनके साथ दशकों का उठना बैठना, खाना-पीना था, उन्हीं लोगों ने इनकी दुकान, गोदाम, घर और सब कुछ लूट लिया इन्हीं चार दिनों के दरम्यान। किसी तरह जान बख्शी थी लोगों ने। विभाजन के समय लाभ सिंह के साथ ही संतोख सिंह, दलीप सिंह और सतवीर-बलबीर के पिता भी गोपालगंज आए थे। विभाजन के समय। फेरी लगाकर लेमनजूस, बिस्कुट, टॉफी बेच कर अपना छोटा मोटा कारोबार जमाया था इन्होंने। संतोख और दलीप, दोनों भाइयों ने मिलकर साइकिल और कपड़े की दुकान शुरू की थी। बलवीर-सतवीर के पिता ने परचून की दुकान की। इनका कारोबार भी जमा और व्यवहार भी। समाज में ऐसे हिल मिल गए थे मानो ये सब पुश्तों से वहीं है। इनकी भोजपुरी पंजाबी से अधिक नेचुरल लगती थी पर एक ही झटके में लोगों ने दोस्ती-यारी, बात-व्यवहार सब भुला दिया, जैसे इन्हें कोई जानता ही नहीं हो। इनकी दुकानें लूट ली गईं, सोते समय घर में आग लगा दी गई, किसी तरह पीछे के रास्ते जान बचा कर भागे और भागे भी क्या, कहीं गायब ही हो गए, कभी पलट कर ना आने के लिए। चार दशकों से भी कम में यह दूसरा पलायन! विभाजन की त्रासदी अभी ताजी ही थी कि फिर से एक और त्रासदी अपने ही देश में, आज़ाद भारत में, आजादी के पैतीस-सैंतीस साल के अंदर।     (क्रमश:)

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