ह्यूस्टन की भव्यता या जलवायु परिवर्तन पर चर्चा 

आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन हमारे समक्ष विद्यमान सबसे गंभीर वैश्विक पर्यावरणीय संकट है। यह केवल पर्यावरणीय समस्या भर नहीं है, बल्कि वैश्विक से लेकर स्थानीय स्तर तक अपने बहुस्तरीय चरित्र में यह एक अभूतपूर्व परिदृश्य है। वस्तुत: कई मायनों में यह हमारी समस्त समस्याओं में से सबसे तात्कालिक है। एक स्तर पर कई लोगों के लिये जलवायु परिवर्तन एक अस्तित्वकारी समस्या के रूप में उभरा है। एक ऐसी समस्या जो उत्पादक जीवन के लिये अनुकूल परिस्थितियों का हृस करती है और इसलिये यह एक ऐसी समस्या है जो अन्य सभी मुद्दों का अधिरोहण भले न करती हो लेकिन निश्चित रूप से अन्य सभी पर भारी पड़ती है। कई अन्य लोगों के लिये जलवायु परिवर्तन एक दूरस्थ समस्या है जो अन्य अधिक तात्कालिक मुद्दों से अभिभूत है। इसके पहले न जाने कितने सम्मेलन जलवायु परिवर्तन पर हुए लेकिन अपेक्षित परिणाम अभी तक नहीं देखने को मिला है। विडम्बना देखिये हम इस गंभीर विषय पर भी, सम्मेलनों की चकाचौंध तक ही सीमित रह जाते हैं। जब-जब जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलनों का आयोजन हुआ है तब-तब प्रमुख राष्ट्रों द्वारा कोई सार्थक पहल सामने  नहीं आई है। जहां से हम चलते हैं पुन: वहीं  पहुंच जाते हैं। इन आयोजनों पर ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ वाली कहावत सटीक बैठती है। वर्तमान संदर्भ में बात करें तो जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता वर्ष 2020 में कार्यान्वित होने के लिये तैयार है और इस विषय में विचार-विमर्श शुरू हो गया है कि भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संधि के तहत व्यक्त की गई प्रतिबद्धताओं के साथ अपने सामाजिक उद्देश्यों और ऊर्जा आवश्यकताओं को रेखांकित करने के लिये किन विकासपरक उपायों को अपनाया जाना चाहिये। साथ ही कौन-से महत्त्वपूर्ण निर्णयों और कार्य नीतियों का अनुपालन किया जाना चाहिये। ह्यूस्टन में हाउडी मोदी कार्यक्रम के पश्चात प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 74 वें शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनियाभर में अनेक प्रयास हो रहे हैं। इस शिखर सम्मेलन में 60 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि इस गंभीर चुनौती का मुकाबला करने के लिए उतना नहीं किया जा रहा है जितना कि होना बहुत अनिवार्य है। आज जरूरत है व्यापक दृष्टिकोण की जिसमें शिक्षा, दर्शन, मूल्य, जीवनशैली से लेकर विकास भी शामिल हो। अभी तक जितने भी प्रयास किए गए हैं। वह जरूरत से बहुत कम हैं। हमें और बेहतर प्रयास करने होंगे। प्रकृति का सम्मान और नैचुरल रिसोर्स (प्राकृतिक सम्पदा) का संरक्षण करना हमारी परंपरा और वर्तमान प्रयासों का हिस्सा रहा है। हम रिनेवल एनर्जी (अक्षय ऊर्जा) में 2022 तक अपनी क्षमता को 175 गीगा वाट तक ले जा रहे हैं और आगे हम इसे 450 गीगा वाट तक ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हम अपने परिवहन क्षेत्र में ई-मोबिलिटी राष्ट्रीय गतिशीलता कार्यक्रम को प्रोत्साहन दे रहे हैं। हम पेट्रोल और डीजल में बायो फ्यूल (जैव-ईंधन) की मिक्सिंग की बड़ी मात्रा में बढ़ौत्तरी कर रहे हैं। हमने वॉटर कंजरवेशन (जल संरक्षण) वर्षा जल का संचयन, जल संसाधन विकास के लिए मिशन जल जीवन शुरू किया है, और अगले कुछ वर्षों में इस पर लगभग 50 अरब डॉलर खर्च करने की हमारी योजना है। जलवायु परिवर्तन का मतलब मौसम में आने वाले व्यापक बदलाव से है। यह बदलाव ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में बेतहाशा वृद्धि के कारण हो रहा है। इसे ग्रीन हाउस इफेक्ट भी कहते हैं। ग्रीन हाउस इफेक्ट वह प्रक्रिया है जिसके तहत धरती का पर्यावरण सूर्य से हासिल होने वाली ऊर्जा के एक हिस्से को ग्रहण कर लेता है और इससे तापमान में इजाफा होता है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए मुख्य तौर पर कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैसों को ज़िम्मेदार माना जाता है। यह सभी वातावरण कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ा देते हैं। यदि हम सरसरी तौर पर निगाह डालें तो वर्तमान मुद्दों और जलवायु परिवर्तन के बीच विद्यमान संबंध की अनदेखी नहीं की जा सकती है। उदाहरण के लिए यदि वर्तमान समय में देश में मौजूद कृषक संकट पर विचार करें तो जलवायु परिवर्तन इस संकट को और अधिक जटिल बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहा है। इसी प्रकार, जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप देश में पेयजल संकट की समस्या भी गंभीर होती जा रही है, जिसका प्रभाव न केवल व्यक्तिगत एवं कृषि आवश्यकताओं पर पड़ रहा है बल्कि आने वाले समय में औद्योगिक जगत में इसका असर देखने को मिलेगा। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के सबसे बड़े स्रोत कोयले से ऊर्जा (60 प्रतिशत) वनों का ह्वास (18 प्रतिशत) खेती (14 प्रतिशत) औद्यगिक प्रक्रियाएं (4 प्रतिशत) और अपशिष्ट (4 प्रतिशत) हैं। विकासशील देशों ने जहां विश्व की 80 फीसदी से अधिक आबादी निवास करती है, 1751 से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में सिर्फ  20 प्रतिशत का ही योगदान है। बड़े विकासशील देश भारत, ब्राज़ील, चीन अभी भी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में विकसित देशों से कई गुना पीछे हैं। विश्व बैंक के अनुसार जहां विकसित देशों में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 13 टन है। विकासशील देशों में यह 3 टन से भी कम है। अमरीका में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन भारत की तुलना में 20 गुना अधिक है। विश्व में सिर्फ 15 फीसदी जनसंख्या के साथ अमीर देश कार्बन-डाईआक्साईड के 47 फीसदी से अधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं।  हमें जलवायु परिवर्तन को और अधिक गंभीरता से देखने की आवश्यकता है। विशेष रूप से इसके प्रति अनुकूलन के विषय में, क्योंकि वास्तविक रूप से इसके चिंता के कई अहम कारण हैं। जलवायु परिवर्तन के शमन के विषय में हमें बहुत सावधान रहना होगा क्योंकि देश निम्न कार्बन एजेंडा तथा विकास एजेंडा के बीच के अवसरों के दायरे को पूरी तरह से खोजने में सफल नहीं हो पाया है। हमारे देश में अभी भी आधारभूत संरचना विकास की भारी कमी है और दुर्भाग्य से विकास की कमी को दूर करने और वास्तविक जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के बीच के अवसरों की तलाश करने की दिशा में कोई प्रभावी कार्य नहीं किया गया है। इसलिए विकास की कमी के पहलू पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा। हमें जलवायु परिवर्तन को वैश्विक सामूहिक कार्रवाई को समस्या के रूप में पहचान करना होगा। हमें अपनी विदेश नीति के एजेंडे में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को शीर्ष स्तर पर रखने की ज़रूरत है। हम ऊर्जा उपभोग के अपने मौजूदा स्तर को किसी भी प्रकार भारत के भविष्य की आवश्यकता के मानक के रूप में नहीं देख सकते हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि हमारा प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपभोग का स्तर बहुत कम है और भारत में जिस विकास व जीवनशैली की अपेक्षा की जाती हैं, यह उसके अनुरूप नहीं है। वास्तविक दुविधा यह है कि क्या हम ऊर्जा के उपयोग को ऐसे समय में बढ़ाना चाहते हैं जब वैश्विक स्तर पर कार्बन प्रणाली में बदलाव की कोशिश की जा रही है।  आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट (2007) के अनुसार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से सदी के अंत तक पृथ्वी की जलवायु का तापमान 4.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। इससे होने वाले बदलाव खाद्य व जल को सर्वाधिक प्रभावित करेंगे। जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव वहां होगा जहां जनसंख्या का घनत्व अधिक है। जहां लोग खेती किसानी पर आश्रित हैं। अकाल व बाढ़ के कारण हिमालय के क्षेत्र में रहने वाले लोगों को कई तरह के संकट का सामना करना पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर विकास लक्ष्यों की प्राप्ति काफी दुरूह हो जाएगी। जलवायु परिवर्तन पर यदि हमें काम करना है तो हरित ऊर्जा को बढ़ावा देना होगा। जैसे सौर ऊर्जा, पन बिजली (पानी से विद्युत पैदा करना), बायो गैस आदि को लेकर लोगों में जागरूकता फैलानी होगी, ताकि लोग पर्यावरण को लेकर सचेत हों। जलवायु परिवर्तन को लेकर यदि हम सचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं जब हम अपने अस्तित्व को मिटते हुए नजदीक से देखें।  

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