मानसून से ज्यादा हंगामेदार होगा संसद का शीतकालीन सत्र

सोमवार यानी 18 नवम्बर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो रहा है। अनुमान है कि पिछले मानसून सत्र की तरह ही यह भी बहुत हंगामेदार सत्र होगा, चूंकि मानसून सत्र में जम्मू-कश्मीर पर लागू अनुच्छेद 370 के कई प्रभावी उपबंधों को खत्म करके राज्य का पुनर्गठन किया गया था। इसलिए ये बहुत ही हंगामेदार सत्र साबित हुआ था, माना जा रहा है कि यह शीतकालीन सत्र भी वैसा ही हंगामेदार होगा, क्योंकि इस सत्र में भी सरकार कई ऐसे अहम बिल पेश करने जा रही है, जिनका विपक्ष पुरजोर विरोध कर रहा है, यही वजह है कि जानकार मानते हैं कि संसद का यह सत्र भी हंगामेदार होगा, सरकार द्वारा लाये जा रहे जिस बिल को लेकर सबसे ज्यादा विरोध होने की आशंका है, वह है, ‘नागरिकता संशोधन बिल’। गौरतलब है कि इस बिल को लोकसभा में मोदी सरकार ने जनवरी-2019 में भी पेश किया था और तब यह लोकसभा में पास भी हो गया था, लेकिन राज्यसभा में गिर गया और फिर लोकसभा भंग हो गयी जिसके चलते विधेयक स्वत: निरस्त हो गया, इसलिए शीतकालीन सत्र में एक बार फिर सरकार इसे पहले लोकसभा में पेश करेगी, जहां उसे इसे पास कराने में कोई दिक्कत भी नहीं होगी।
असली दिक्कत होगी राज्यसभा में, क्योंकि राज्यसभा में एनडीए के पास अभी भी बहुमत नहीं है, सवाल है नागरिकता विधेयक में ऐसा क्या है जिसको लेकर हंगामा होना तय है ? दरअसल इस विधेयक के कानून बनने के बाद , अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के मानने वाले अल्प-संख्यक समुदायों को 12 साल की बजाय महज छह साल भारत में गुजारने और बिना किसी उचित दस्तावेज के बाद भी भारतीय नागरिकता मिल जायेगी, इस बिल का सबसे ज्यादा पूर्वोत्तर की राज्य सरकारें  विरोध कर रही हैं, इनका मानना है कि यदि यह बिल पास होता है तो इससे पूर्वोत्तर के राज्यों की सांस्कृतिक विरासत के साथ खिलवाड़ होगा, इस बिल को देश के धर्म-निरपेक्ष स्वरूप के लिए खतरा माना जा रहा है, क्योंकि इसमें सभी नागरिकों के बजाय  हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी व ईसाइयों को ही नागरिकता दिये जाने की बात हो रही है।  यह नागरिकता संशोधन बिल वास्तव में नागरिकता अधिनियम 1955 के प्रावधानों को खारिज करने का काम कर रहा है, इसके पास होने से नागरिकता अधिनियम 1955 बेमतलब हो जायेगा। क्योंकि इसके मुताबिक भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए वही लोग कारगर होते हैं जो कम से कम पिछले 11 साल से हिन्दुस्तान में बिना किसी आपराधिक कारनामों के रह रहे हों। जबकि नया नागरिकता संशोधन बिल, बंगलादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए शर्तशुदा निवास अवधि  को आधा कर देता है। 11 साल से घटाकर 6 साल। संसद के पिछले सत्र में भी विपक्षी पार्टियों ने एकजुट होकर इसका विरोध किया था। जिसे देखते हुए सरकार ने इसमें संशोधन का वादा किया है। लेकिन यह देखने की बात है कि इसमें किस स्तर तक संशोधन होता है। वैसे केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह पूर्वोत्तर के मूल निवासियों से कह चुके हैं कि वे प्रस्तावित नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर चिंतित न हों, क्योंकि इससे उनके अधिकार प्रभावित नहीं होंगे। गृहमंत्री ने यह भी कहा है कि उनसे पूर्वोत्तर के तीन मुख्यमंत्रियों ने नागरिकता संशोधन विधेयक के मुद्दे को उठाया है और आशंका जाहिर की है कि प्रस्तावित कानून मूल लोगों के अधिकारों को कम कर सकता है, लेकिन मैं पुरजोर ढंग से कह रहा हूँ कि नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर चिंता करने की जरूरत नहीं है। यह उनके अधिकारों को प्रभावित नहीं करेगा। गौरतलब है कि ऐसा ही आश्वासन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी दोहरा चुके हैं। उन्होंने कहा है कि केंद्र यह सुनश्चित करने के लिए इसमें कुछ बदलाव करेगा जिससे कि यहां के मूल निवासियों के कोई हित प्रभावित न हों और न ही  उनके अधिकारों में जरा भी कोई कटौती हो। मालूम हो कि इस प्रस्तावित विधेयक का पूर्वोत्तर में खासतौर पर कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट कर रहे हैं, इनके विरोध का मूल आधार है कि धार्मिक आधार पर नागरिकता न प्रदान की जाए , क्योंकि अगर ऐसा होगा तो यह कानून 1985 के असम करार का उल्लंघन करेगा, जैसा कि मालूम ही है कि असम करार के तहत सन 1971 के बाद बांग्लादेश से आए सभी धर्मों के नागरिकों को निर्वासित करने की बात कही गयी है, ध्यान देने की बात यह है कि असम में भाजपा के साथ सरकार चला रहा असम गण परिषद (अगप) भी नागरिकता संशोधन बिल को स्थानीय लोगों की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान के खिलाफ बताते हुए इसका विरोध कर रहा है। लेकिन एक संकट यह भी है कि जिस समय यह बिल आ रहा है, उसी समय असम में एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया भी जारी है। ऐसे में नागरिकता संशोधन बिल लागू होने की स्थिति में एनआरसी प्रभावहीन हो जाएगा। इन तमाम विरोधाभासों को देखते हुए संसद में हंगामा होना तय है भले शीतकालीन सत्र शुरू होने के पहले-पहले लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने 17 नवंबर को सर्वदलीय बैठक बुलाकर सभी पार्टियों से संसद को सुचारू रूप से चलते देने का आश्वासन ले चुके हों, इस सत्र में एक और महत्वपूर्र्ण बिल जो पटल में रखा जा सकता है, वह है ड्यूटी के दौरान मरीज के परिजनों या आम लोगों द्वारा डॉक्टरों के साथ की जाने वाली मारपीट से संबंधित बिल। ड्यूटी के दौरान डॉक्टरों के साथ होने वाले हमले की रोकथाम के लिए विधेयक लाने की बात है, इस विधेयक में  ड्यूटी के दौरान चिकित्सकों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों पर हमला करने पर 10 साल तक की जेल की सजा का प्रावधान रखा जा सकता है। स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक  मंत्रालय ने स्वास्थ्य सेवा कर्मी और नैदानिक प्रतिष्ठान (संपत्ति का नुकसान और हिंसा पर प्रतिबंध) विधेयक, को लेकर अंतर-मंत्रालयी विमर्श में शामिल अन्य सभी मंत्रालयों से कहा है कि वे जल्द से जल्द अपनी टिप्पणी भेजें ताकि मसौदा कानून को अंतिम रूप दिया जा सके और अगले सप्ताह मंत्रिमंडल के समक्ष रखा जा सके। माना जा रहा है कि इस विधेयक में स्वास्थ्य पेशेवरों को चोट पहुंचाने के अपराध में तीन से दस साल तक के कारावास का प्रस्ताव किया गया है। इसके अलावा 10 लाख रुपये तक जुर्माने का भी प्रस्ताव किया गया है। इसके साथ ही हिंसा या स्वास्थ्य इकाइयों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों को छह महीने से पांच साल तक की कैद और 50,000 रुपये से पांच लाख रुपये तक जुर्माने का भी प्रावधान किया गया है। मालूम हो कि मेडिकल बिरादरी द्वारा लंबे समय से इस तरह के कानून की बहुत मांग है, कुल मिलाकर काम के लिहाज से भी यह सत्र सक्रियता से भरपूर रहेगा। 

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