अनावश्यक राग

केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने असम की तर्ज पर देश भर में एन.आर.सी. का अमल शुरू करने संबंधी बयान देकर एक नया विवाद छेड़ दिया है। एन.आर.सी. का मतलब नागरिकों के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर में नामों का दर्ज होना है। भारत जैसे देश में जहां पहले ही अनेक समस्याएं दरपेश हैं, जहां देश में बहु-संख्या में लोगों को बढ़िया जीने की सुविधाएं प्राप्त नहीं हैं, जहां करोड़ों ही लोग जीवन की प्राथमिक ज़रूरतों के लिए तरसते हैं, वहां ऐसी बात करना देश को एक और खाई में धकेलने के समान है। हम मानते हैं कि असम में नागरिकों की सूची तैयार की गई है, परन्तु इससे एक लम्बा संघर्ष जुड़ा हुआ है। असम में बंगलादेशियों की घुसपैठ इस कद्र बढ़ गई थी कि असमियों को अपने अस्तित्व का खतरा ही महसूस होने लगा था। वहां के युवाओं ने इसको रोकने के लिए एक लम्बा संघर्ष किया, जिसने एक बार तो देश को हिला कर रख दिया था। युवाओं की मांगें जायज़ थी। वे चाहते थे कि उत्तर-पूर्वी इस राज्य में दूसरे देश से लोगों के ़गैर-कानूनी होने वाले प्रवेश को रोका जाए। अंत में लम्बे संघर्ष के बाद इस संबंध में केन्द्र सरकार के साथ एक समझौता हुआ था कि सरकार देश की उच्च अदालत की निगरानी में भारतीय नागरिकों की एक सूची तैयार करेगी। इसको नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटीज़न (एन.आर.सी.) कहा गया था। इसकी रिपोर्ट इसी वर्ष 31 अगस्त को जारी की गई। इसमें 3 करोड़, 20 लाख लोगों के नाम नागरिकता रजिस्टर में दर्ज किये गये। जबकि यहां रहने वाले 19 लाख नाम इसमें शामिल नहीं थे। एक छोटे-से राज्य में इतनी बड़ी संख्या में नागरिकों के नाम रजिस्टर में दर्ज न होने से एक तरह से भगदड़ मचनी स्वाभाविक थी। लोगों में इसके लिए बड़ी चिंता पैदा हो गई कि इस प्रदेश में बसने वाले 19 लाख के लगभग व्यक्तियों का भविष्य क्या होगा? बंगलादेश इनको वापस लेने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं हो सकता था। इससे दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण होने का संदेह बन गया था। अंत में सरकार को यह कह कर पीछा छुड़ाना पड़ा था कि अभी घोषित इन बेघर लोगों को देश से नहीं निकाला जाएगा। असम में भाजपा की सरकार है। उसने भी प्रकाशित की गई इस सूची को मानने से इन्कार कर दिया था और अब यह भी कहा जा रहा है कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को एक बार फिर देश के नागरिक होने का प्रमाण देने का अवसर दिया जाएगा। असम में यह गिनती करवाये जाने की एक पृष्ठभूमि है। यह रजिस्टर कई दशकों के बाद सूचीबद्ध किया गया है। इससे 19 लाख लोगों का भविष्य अनिश्चित हो गया है। उनके किसी भी किनारे पर लगने की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसी स्थिति के होते अमित शाह ने समूचे देश को नागरिकता के पक्ष से सूचीबद्ध करने का बयान कैसे दिया, उसकी समझ नहीं आती। व्यवहारिक रूप में इसके क्या परिणाम निकलेंगे, इसकी समझ अवश्य आती है। एक राज्य में ऐसा किए जाने पर 1300 करोड़ रुपए का खर्च आया था। यदि देश में ऐसी कवायद की जाती है तो खर्च का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होगा। इस बयान के बाद इस संबंध में बड़ी चर्चा भी छिड़ गई है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जो अपने राज्य की दशा को भली-भांति जानती हैं, ने कहा है कि वह किसी भी हाल में ऐसी गिनती नहीं होने देंगी। किसी भी बसते नागरिक को शरणार्थी नहीं बनाया जा सकता। यहां रहने वाले सभी व्यक्ति देश के नागरिक हैं। मार्क्सवादी पार्टी के नेता सीताराम येचुरी ने भी अपनी प्रतिक्रिया देते हुए यह कहा है कि इस सूची को असम से आगे बढ़ाना गलत होगा। क्योंकि लम्बे आन्दोलन के बाद असम समझौते में यह बात निर्धारित की गई है। इसका समूचे देश से कोई संबंध नहीं है। हम महसूस करते हैं कि यदि ऐसी कवायद शुरू की जाती है तो उससे अनेक समस्याएं पैदा होंगी, अनावश्यक विवाद बढ़ेंगे, देश में दशकों से बसे किसी भी नागरिक को शरणार्थी ठहराया जाना किसी भी तरह उचित नहीं है। हम यह बात अवश्य समझते हैं कि सरकार को सचेत रूप में यह प्रयास अवश्य करने होंगे कि देश की सीमाओं में भविष्य में विदेशी लोग घुसपैठ न कर सकें। यदि ऐसा होता है कि उस संबंध में तत्काल ठोस प्रबंध करने आवश्यक हैं, परन्तु पिछली परतें खंगालना समय का अनावश्यक राग होगा, जिसमें से कुछ भी ठोस प्राप्त नहीं किया जा सकता। अनावश्यक विवादों से बचने के लिए सरकार को नये सिरे से ऐसा विवाद मोल नहीं लेना चाहिए, इसी में ही देश का भला समझा जाना चाहिए।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द