न्यायाधीशों की कमी न्याय में धोखा

सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक मामलों की पेंडेंसी बढ़ने से उप-राष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू  चिंता व्यक्त कर चुके हैं। उप-राष्ट्रपति नायडू ने सरकार और न्यायपालिका से तेज न्याय सुनिश्चित करने का आग्रह किया था। नायडू ने न्याय की गति को तेज और सस्ती  व्यवस्था करने की आवश्यकता को रेखांकित किया। लंबे समय तक मामलों के स्थगन का हवाला देते हुए, उन्होंने कहा कि न्याय महंगा हो रहा है। न्याय में देरी न्याय से वंचित होना है। उप-राष्ट्रपति ने टिप्पणी की थी कि पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन्स व्यक्तिगत, आर्थिक और राजनीतिक हितों के लिए निजी हित याचिका नहीं बननी चाहिएं। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश  को कहना पड़ा कि 18 हज़ार जज मिलकर 3 करोड़ मुकद्दमों का भार नहीं उठा सकते। सुप्रीम कोर्ट के सबसे प्रभावशाली मुख्य न्यायाधीश जॉन मार्शल ने कभी कहा था कि न्याय व्यवस्था की शक्ति प्रकरणों का निपटारा करने, फैसला देने या किसी दोषी को सजा सुनाने में नहीं है, यह तो आम आदमी का भरोसा और विश्वास जीतने में निहित है। देश के हाईकोर्ट और जनपदीय न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी के कारण अदालतें लम्बित मुकद्दमों के बोझ से दबी हैं। देश में सबसे ज्यादा निराशाजनक स्थिति जनपदीय न्यायालयों की है जबकि यह सर्वविदित है कि आम आदमी के लिए जनपदीय न्यायालय ही न्याय की आस हैं, आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण वह हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जा नही सकता। ऐसे में उसे अमूनन निराशा ही हाथ लगी है। जनपदीय न्यायालय के जो आंकड़े सामने आ रहे हैं उस संदर्भ में अगर भारतीय न्याय व्यवस्था का आकलन करें तो बहुत निराशाजनक दृश्य सामने आता है। इन दिनों लोग यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि कोर्ट के बाहर ही निपटारा कर लो वरना जिंदगी भर पांव घीसते रहोगे। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की कुल संख्या 34 है और मुकद्दमों का अम्बार लगा है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 59,331 मामले लंबित हैं। उच्च न्यायालयों में 45,12,800 मामले लंबित हैं, जिनमें से 85 प्रतिश मामले पिछले 1 साल से लंबित हैं। 2,89,96000 से अधिक मामले, देश के विभिन्न अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित हैं। इनमे सिविल मामलों की तुलना में आपराधिक मामले अधिक हैं। जो अपने आप में एक बड़ी चिंता है न्यायिक अधिकारियों के रिक्त पदों को भरने में देरी से, अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग 6000 पद खाली पड़े हैं। भारत में प्रति मिलियन आबादी पर केवल 20 न्यायाधीश हैं। इससे पहले, विधि आयोग ने प्रति मिलियन 50 न्यायाधीशों की सिफारिश की थी। देश के 25 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 414 पद रिक्त हैं। जबकि उच्च न्यायालयों में कुल 1079 न्यायाधीश होने चाहिएं। किसी भी अपराध या विवाद में न्याय पाने के लिए हर इन्सान न्यायालय का रुख करता है, लेकिन आपको जानकार हैरानी होगी कि देश के न्यायालयों में पिछले 10 सालों से विभिन्न मामलों के 37 लाख केस लंबित पड़े हैं। इन मामलों में आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई है।राष्ट्रीय स्तर पर अदालतों द्वारा किए जा रहे कार्यों की निगरानी करने वाले राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड ने पिछले दिनों अपनी रिपोर्ट में न्याय व्यवस्था पर डराने वाला खुलासा किया। रिपोर्ट के अनुसार भारत में हाईकोर्ट, जिला न्यायालय और तालुका अदालतों के कुल 3.77 करोड़ मामलों में से करीब 37 लाख मामले पिछले 10 सालों से लंबित पड़े हुए हैं। इसमें 28 लाख मामले जिला और तालुका अदालत में हैं। इसी तरह इन अदलातों में 85,141 मामलों में तीन दशक यानी पिछले 30 सालों से कोई फैसला नहीं लिया गया है यानि जनपदीय न्यायालय की दशा भी ठीक नहीं है। वहीं 9.20 लाख मामले हाईकोर्ट में लंबित हैं। दूसरी तरफ इस डाटा से यह भी पता चला है कि 6.60 लाख से ज्यादा मामले पिछले 20 सालों से लंबित हैं। इसी तरह 1.31 लाख ममले 30 सालों से लंबित हैं। पूरे भारत में कुल 3.29 करोड़ मामलों में से 8.5 प्रतिशत यानी 28 लाख मामले 10 साल से जिला या तालुका अदालतों में लंबित हैं। इनमें से पांच लाख से अधिक मामले दो दशक यानी 20 सालों से लंबित चल रहे हैं। देश भर में 25 उच्च न्यायालयों के समक्ष लगभग  47 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। इनमें से 19.26 प्रतिशत यानी 9.20 लाख से अधिक मामले 10 से अधिक वर्षों से लंबित हैं और 3.3 प्रतिशत यानी 1.58 लाख मामले 20 सालों से और 46,754 मामले तीन दशक यानी 30 सालों से अधिक समय से लंबित चल रहे हैं। इसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आंकड़े बताते हैं कि 10 सालों से उच्च न्यायालयों में लंबित 9.20 लाख मामलों में से 2.76 लाख मामले इलाहबाद उच्च न्यायालय में लंबित हैं। इसी तरह 20 साल वाले मामलों में से 55 प्रतिशत और 30 साल वालों में से 86 प्रतिशत लंबित हैं। देश की जिला अदालतों में तीन करोड़ से ज्यादा मुकद्दमे लंबित हैं और इनके निस्तारण की जिम्मेदारी अभी मात्र 18144 जजों के कंधों पर है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जजों के कुल मंजूर 23597 पदों में से 5453 खाली हैं। इनमें भी आधे से ज्यादा रिक्तियां केवल पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान में हैं जिनमें उत्तर प्रदेश सबसे आगे है जहां जिला अदालतों में जजों के 1404 पद खाली हैं। देश के पांच राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान में आधे से ज्यादा 3244 पद रिक्त हैं। वैसे ही जनसंख्या के हिसाब से पहले ही जजों की संख्या कम है। अभी 10 लाख की आबादी पर करीब 20 जज हैं जबकि 1987 में विधि आयोग ने 10 लाख की आबादी पर 50 जजों की जरूरत बताई थी। मुकद्दमों का सबसे ज्यादा बोझ निचली अदालतों पर रहता है। पहली अदालत होने के कारण सबसे ज्यादा वक्त भी यहीं लगता है क्योंकि यहां गवाहियां, साक्ष्य, ट्रायल होते हैं। निचली अदालतों में राज्य वार जजों की संख्या पर निगाह डाली जाए तो कुल 36 राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों की जिला अदालतों में जजों के कुल 23597 पद मंजूर हैं लेकिन सिर्फ 18144 पदों पर ही जज हैं बाकी के 5453 पद खाली हैं।  लबोलुआब यह कि अगर कोई किसी राजनीतिक या अन्य प्रतिद्वंद्विता का शिकार होकर मुकद्दमेबाजी में फंस जाए तो न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी के चलते बेगुनाह होते हुए भी उसे अपनी बेगुनाही साबित करने में दस से बीस साल लग जाएंगे।