ट्रम्प हारा परन्तु ट्रम्पवाद नहीं

अमरीकी चुनाव प्रणाली भारत से पूरी तरह अलग है। भारत में  ‘जो पहले मारे सो मीर’ का नियम चलता है। इसे ही अंग्रेज़ी में ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम’ कहते हैं। इस प्रणाली के तहत 51 फीसदी वोट पाने वाला जीत जाता है, और 49 फीसदी वोट पाने को ‘उप-विजेता’ यानी रनरअप का ़िखताब या स्वर्ण पदक के बाद रजत पदक भी नहीं मिलता। दूसरे, भारत में एक राष्ट्रीय चुनाव आयोग है जो सारे देश में अपने केंद्रीय प्राधिकार के तहत सुव्यवस्थित आचार-संहिता के मुताबिक चुनाव कराता है। चुनाव आयोग का दबदबा और प्रतिष्ठा लगातार बढ़ती ही गई है। इसके उलट अमरीका में आनुपातिक चुनाव प्रणाली है जो 51-49 प्रतिशत के फार्मूले पर नहीं चलती। न ही अमरीका में कोई राष्ट्रीय चुनाव आयोग है। वहां का संघवाद अलग है। हर राज्य को अपने-अपने ढंग से मतदान कराने और मतों की गणना या पुनर्गणना कराने का अधिकार है। जीतने वाले वोटों का प्रतिशत चुनाव परिणाम पर ़खास असर नहीं डालता। हां, यह प्रतिशत इतना ज़रूर दिखाता है कि जीतने वाला सामान्य मतदाताओं के बीच कितना लोकप्रिय है। जिसे किसी राज्य में वोट ज़्यादा मिलते हैं, उसे इलेक्टोरल कॉलेज में निर्धारित मत मिलते हैं। मसलन, अगर एक राज्य को जीतने की ़कीमत बारह इलेक्टोरल मतों के बराबर है तो उम्मीदवार राष्ट्रपति की दौड़ में बारह वोट प्राप्त कर लेगा। जब तक उसे 270 इलेक्टोरल वोट नहीं मिलेंगे, वह राष्ट्रपति का चुनाव नहीं जीत पाएगा। इस लिहाज से देखा जाए तो हारने वाले उम्मीदवार के हिस्से में भी कई प्रांत आते हैं जहां के इलेक्टोरल वोट उसे मिलते हैं। वह चुनाव हारने के बावजूद अमरीकी राजनीति में अपनी आवाज़ और अहमियत कायम रख सकता है। सेनेट और प्रतिनिधि सभा में अगर हारने वाली पार्टी की मौजूदगी अच्छी है, तो वह जीते घोषित किये गए उम्मीदवार के एजेंडे को लागू होने से काफी-कुछ रोक सकता है। यानी चुनाव हारने वाले को अमरीका में न केवल उप-विजेता (रजत पदक विजेता) की अघोषित पदवी मिलती है, बल्कि कई बार वह स्वर्ण पदक विजेता की नाक में दम भी कर देता है। इसी को यूँ भी कहा जा सकता है कि चुनावी प्रतियोगिता खत्म ज़रूर हो जाती है, लेकिन लोकतांत्रिक प्रतियोगिता के जीतने वाले के पक्ष में बहुत ज़्यादा झुकने का अंदेशा नहीं रहता। यह इसके बावजूद होता है कि अमरीकी राष्ट्रपति के कार्यकारी अधिकार भारत के प्रधानमंत्री से अधिक होते हैं। भारत और अमरीका की चुनाव प्रणालियों का यह अंतर बताना इसलिए ज़रूरी था ताकि यह दिखाया जा सके कि वहां हारने वाले का जलवा ़खत्म नहीं होता। इस प्रवृत्ति का सबसे दिलचस्प उदाहरण तो मौजूदा चुनाव ही है। डैमोक्रेटिक उम्मीदवार जोसफ बाइडन को अमरीकी इतिहास के सबसे ज़्यादा वोट मिले, और इलेक्टोरल कॉलेज की निर्णायक दौड़ में भी वह रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प से बहुत आगे साबित हुए। इसके बावजूद ट्रम्प न केवल चुनावी दृष्टि से बल्कि विचारधारात्मक दृष्टि से या अमरीकी समाज पर अपने प्रभाव के लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण बने रहेंगे। इतने महत्वपूर्ण कि अभी से उन्हें चार साल बाद 2024 में राष्ट्रपति पद के दावेदार के रूप में देखा जाने लगा है। यह अलग बात है कि उस समय ट्रम्प की आयु 84 साल की होगी, और अगर बाइडन भी दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव में खड़े होते हैं तो वह भी ट्रम्प के बराबर ही होंगे। चुनावी दृष्टि से ट्रम्प की अहमियत इस बात में होगी कि सेनेट और प्रतिनिधि सभा में उनकी पार्टी नवनिर्वाचित राष्ट्रपति को अपने मन की करने की इजाज़त न देने की स्थिति में आ चुकी है। चूँकि डैमोक्रेटिक पार्टी इन दोनों सदनों में आरामदेह बहुमत जीत पाने में नाकाम रही है, इसलिए वह सुप्रीम कोर्ट में अपनी पसंद के जजों की भी नियुक्ति नहीं कर पाएगी। लेकिन, जो बात इससे भी ज़्यादा ज़रूरी है, वह कुछ और है। ट्रम्प की पराजय ट्रम्पवाद की पराजय नहीं है। ट्रम्पवाद एक फूहड़ और अतिवादी किस्म की विचारधारा है जिसने अमरीकी समाज को दो हिस्सों में बांट दिया है। ट्रम्पिज़म का मतलब है अश्वेतों के खिल़ाफ नस्लवादी नज़रिया, स्त्रियों के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया रखना, पर्यावरण और पारिस्थितिकी संबंधी संकट की परवाह न करना, आप्रवासियों को संदेह की नज़र से देखना, एक राष्ट्र के रूप में उग्र रूप से अमरीका को श्वेतांग समुदाय के रूप में कल्पित करना, तरह-तरह की कांसपिरेसी थियोरीज़ को उछालते रहना, अपने विरोधियों और आलोचकों के प्रति अशिष्ट व्यवहार करना, और किसी भी तरह के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अंगूठा दिखाना। डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने चार साल के कार्यकाल में यही सब किया लेकिन विडम्बना यह है कि अमरीकी जनता के क़ाफी बड़े और प्रभावी हिस्से ने उनकी इस हरकतों को पसंद किया। वे डैमोक्रेटिक पार्टी के उदारतावादी रवैये से खुश नहीं हैं। ट्रम्प का दावा रहा है कि यह उदारतावाद मुख्य तौर से पाखंडी किस्म का है। एक अर्थ में उनकी बात सही भी है। दुनिया में किसी भी तरह का उदारतावाद (यहां मतलब मानस की उदारता से न हो कर लिबरलिज़्म से है जो एक पश्चिमी विचारधारा है जो उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद का समर्थन करती रही है) अपनी समझौतापरस्ती और पाखंड के कारण आलोचना का शिकार हुआ है। जनता ने लम्बे अरसे तक इसके अहलकारों को सत्ता में बैठाया, लेकिन अब हर जगह इसकी विफलताओं और अभिजन चोचलेबाज़ी के चलते इसकी आलोचना हो रही है। ट्रम्पवाद के कारण हुआ यह है कि अमरीकी समाज में असहिष्णुता बढ़ी है। राजनेताओं के प्रति अविश्वास की भावना वोटरों के बीच आम है। 73 फीसदी अमरीकी मानते हैं कि देश की दोनों प्रमुख पार्टियां बुनियादी बातों पर असहमत हैं इसलिए राष्ट्रीय सहमति का पूरी तरह से अभाव हो गया है। पांच में से एक अमरीकी मानता है कि अगर उनकी पसंद का व्यक्ति चुनाव न जीते तो उन्हें हिंसा करने का अधिकार है। 60 फीसदी वोटरों को यकीन है कि उनकी विरोधी पार्टी के कारण अमरीका ़खतरे में है, इसलिए उसे राष्ट्रघाती के तौर पर देखा जा सकता है। चालीस फीसदी वोटर अपने विरोधियों को दुष्ट मानते हैं। बीस फीसदी तो इस हद तक चले गए हैं कि विरोधी उनकी निगाह में जानवर से भी बदतर हैं। श्वेत अमरीकी मज़दूर वर्ग उग्र राष्ट्रवादी बनने की हद तक चला गया है। वह मानने लगा है कि अमरीकी राष्ट्रत्व को आप्रवासियों और अश्वेतों से बचाने की ज़रूरत है। ट्रम्प को अपनी असहिष्णु विचारधारा के बावजूद अफ्रीकी मूल के अमरीकियों में 13 से 18 फीसदी के बीच समर्थन मिला है। डैमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जीत ज़रूर गए हैं लेकिन भारतवंशियों के बीच उनका समर्थन पहले की अपेक्षा घटा है। ये सब तथ्य अमरीका के वज़ूद को संकट में डालने वाले हैं। क्या यह एक विडम्बना नहीं है कि अमरीकी राजनीति पर रिपब्लिकन पार्टी के प्रभुत्व की शुरुआत इब्राहम लिंकन की राष्ट्रपति पद पर जीत से 1860 में हुई थी। वह जीत नस्लवाद और दासता के ऊपर मानवता की जीत की प्रतीक थी। लेकिन, उसी पार्टी के उम्मीदावर डोनाल्ड ट्रम्प नस्लवादी भावनाओं की नुमाइंदगी कर रहे हैं। नये राष्ट्रपति बाइडन को अभी बहुत से घावों पर मरहम लगाना है।