प्राणदंड की सज़ा—कितनी न्यायोचित ?

भारत जैसे प्राचीन संस्कृति और सभ्यता वाले देश में जब भी किसी अपराधी को प्राणदंड की सजा सुनाई जाती है तो उसकी प्रासंगिकता पर चर्चा शुरू हो जाती है। निर्भया दुष्कर्म और हत्याकांड के दोषियों को फांसी की सज़ा के बाद एक बार फिर पक्ष और विपक्ष में चर्चा हो रही है। स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक संविधान द्वारा देश में जन-कल्याणकारी राज्य की स्थापना कर नागरिक सुरक्षा और व्यक्ति की गरिमा को प्रतिष्ठा देने की बात कही गई है तो प्राणदंड की क्रूर सज़ा उचित नहीं लगती। इसी विचारधारा के अनुसार कई चिंतक न्यायाधिकरण के द्वारा दी जाने वाली मौत की सज़ा को अवांछित बतला कर इसे समाप्त करने की गुहार लगाते हैं।दूसरी ओर कई विधिवेत्ताओं की सहमति प्राणदंड की सजा को बनाए रखने के लिए है।
स्वर्गीय सुषमा स्वराज द्वारा व्यक्त विचार उल्लेखनीय हैं— 
-कुछ अपराध जघन्य होते हैं। उनके लिए कठोरतम दंड ज़रूरी होता है। साधारण अपराध के लिए फांसी की सज़ा नहीं होती है। विशेष परिस्थिति में ही फांसी की सज़ा दी जाती है। जो अपराध मानवीयता की सारी सीमाएं पार कर जाए या जिसे बहुत खौफनाक तरीके से अंजाम दिया गया हो, तभी फांसी की सजा दी जाती है।
-दुष्कर्म पीड़िता सिर्फ शारीरिक यातना का शिकार नहीं होती बल्कि वह और उसके परिवार को सामाजिक प्रताड़ना को भी सहन करने के लिए विवश होना पड़ता है।
-न्यायविदों के अलावा देश के जनमानस ने भी ऐसी कई घटनाओं के बाद प्राणदंड की प्रासंगिकता पर पुन: विचार करना आरंभ कर दिया है। संसार के प्राय: सभी देश समाज की इकाई व्यक्ति की गरिमा की ऊंची प्रतिष्ठा देते हैं। इसके अनुरूप मानव अधिकारों के विश्व घोषणा पत्र में उल्लेख है कि हर एक को जीवन सुरक्षा व स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सुरक्षा का अधिकार है। सभ्यता की प्रगति के साथ समाज सम्प्रदाय तथा राज्य संस्थान तो बनते जा रहे हैं जो इसी व्यवस्था के अंग हैं। 
व्यक्ति तथा समाज को सुरक्षित और नियमित बनाए रखने के लिए विधि विधान और न्यायिक संस्थानों का निर्माण हुआ। इसी ने दंड प्रक्रि या का प्रावधान किया जिसमें फांसी जैसी सबसे बड़ी सज़ा को रखा गया। यदि सांगोपांग दृष्टिकोण से विचार करें तो यह सजा उद्देश्यहीन प्रतीत होने लगती है क्योंकि सज़ा का मुख्य उद्देश्य सामाजिक सुरक्षा तथा अपराधी का सुधार भी है। जहां तक अपराधी को दंड देकर सुधार करने की बात है, प्राणदंड की स्थिति पूर्णत: निरर्थक हो जाती है क्योंकि फांसी की सज़ा के बाद अपराधी व्यक्ति ही समाप्त हो जाता है।
यह विचित्र संयोग है कि आज़ादी के सत्तर साल बाद भी भारत में उसी न्याय पद्धति को ढोया जा रहा है जिसे अंग्रेज़ों ने गुलाम देश के निवासियों के लिए बनाया था। दूसरी विडम्बना भारत में न्याय प्रक्रि या का महंगा होना तथा अवांछित विलम्ब होना है। भारत की न्याय प्रक्रि या महंगी तथा समय साध्य है। इस मामले में संसद से लेकर विभिन्न सम्मेलनों में काफी चर्चा होती रही है। भारत के एक विधिवेत्ता सांसद भावुक होकर बोले कि भारत में गरीबी सबसे बड़ा अपराध है। 
दूसरी विडम्बना न्याय प्रक्रि या में अवांछित विलम्ब की है— तारीख पे तारीख। यही कथा है भारतीय न्यायालयों की। अतएव समय की पुकार है कि यथाशीघ्र इन ज्वलंत समस्याओं पर विचार का राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लिया जाए जो जनहित और राष्ट्रहित में वांछित हो।  (युवराज)