समस्या समाधान के स्वर्णिम सूत्र

खबर चाहे क्षुधित, व्यथित या वंशवादी राजनीति से आक्रान्त श्रीलंका से आयी है, लेकिन अपने देश में भीड़ भरे और अन्तहीन कतारों वाले माहौल पर भी कारगर सन्देश की तरह लागू होती दिखाई दे रही है। खबर यह है कि उस देश में रहने वाले अपनी दूभर ज़िन्दगी जीने के लिए बेबस लोगों को सरकारी चिकित्सा प्रकोष्ठों से एक सन्देश दिया जा रहा है कि हे जनता वृन्द, बीमार होने की कोशिश न कीजिए, क्योंकि देश में उपचार और चिकित्सा सुविधा की कमी जैसे पहले थी, वैसे अब भी है। अब अपने देश पर भी इस प्रेरक सन्देश को लागू करने की ज़रूरत है क्या? यह तो यहां पहले से ही लागू हुआ नज़र आ रहा है। जबकि कम से कम दो राज्यों की सरकारों और एक नये राजनीतिक दल का पल्लवित होना इसी बात पर निर्भर है कि उन्होंने जन-जन के लिए अपने घोषित नये विकास मॉडलों में इसी घोषणा से वोट बटोरे हैं कि आपके राज्य में ऐसी चिकित्सा क्रांति की जाएगी कि जहां आपको मुहल्ले-मुहल्ले में उपचार क्लीनिक पहुंचेगा, और उपचार सुविधाएं आपके द्वार खटखटा दस्तक देकर दी जाएंगी। 
स्वप्नजीवी वोटर भीड़ जमा हो कर उन्हें वोट दे आई और उनके सिर पर ताज रख दिया, लेकिन इस क्रांति की चाल बेढंगी, जो पहले थी वही अब भी है। उपचार सुविधा की घोषणा प्रचुर मात्रा में द्वार खटखटा कर बांटने के बावजूद मुहल्ला क्लीनिक स्तर का वरदान तो अभी घोषणाओं के पंखों पर तैर रहा है, ज़मीन पर नहीं उतरा। उतरता कैसे? उससे पहले ही अपने बदलाव धर्मी राज्य की सेहत के ज़िम्मेदार मंत्री महोदय भ्रष्टाचार के आरोप में एफआईआर का शिकार हो गए। हां, अब ज़मानत पर रिहा हो अपना मासूम चेहरा बदलाखोरी की प्रताड़ना से आक्रान्त बता रहे हैं। उधर सरकारी चिकित्सा सुविधाओं का मौजूदा ढांचा अभी तक दवाओं और डॉक्टरों से महरूम है। चिकित्सा उपकरण अगर रखे हैं, तो इन्हें चलाने वाले प्रशिक्षित और निपुण कारीगर नदारद हैं। 
राज्य खाली खज़ाने के रोग से ग्रस्त है। कई बरस बाद इस बार दवा बाज़ारों में ज़रूरी दवाओं पर कर बढ़ा कर उन्हें आम आदमी की जेब के बाहर कर चुके हैं। खैर जेब की पहुंच से बाहर तो यह पहले ही था, क्योंकि इन दवा मंडियों का ही नहीं, हर मंडी को यही रोग लगा है कि महामारी फैले और जिस कथित रामबाण दवा की ज़रूरत पड़े, उसकी आपूर्ति खुले काऊंटर से गायब करके दोगुणा-चौगुणा दाम कालाबाज़ारी काऊंटर पर बेचो, और जन-कल्याण के नाम पर स्वकल्याण की मधुर धुन बजाओ। 
लेकिन अब इस धुन को गुनगुनाने-बजाने की ज़रूरत क्या है? ऊपरी संदेश मिल तो गया कि ‘भाई लोगो, अपनी सेहत की रक्षा स्वयं करो। बीमार पड़ना बंद कर दो। बस न रहेगा बांस औ न बजेगी बांसुरी।’ जब लोग बीमार पड़ने की गुस्ताखी ही बंद कर देंगे, तो वे उपचार सुविधाओं के लिए तरसना भी बंद कर देंगे, और क्रांति घोषणाएं अपने-आप सफलता के आंकड़ों में तबदील होती नज़र आएंगी।
लेकिन यह स्वर्णिम मुक्ति संदेश हर जटिल समस्या के समाधान पर भी लागू होता नज़र आ सकता है। काम नहीं मिलता, भूख मिटाने का जुगाड़ नहीं हो रहा, तो काम की तलाश छोड़ो, योग ध्यान और त्याग का मार्ग अपना कर अपना इहलोक नहीं तो परलोक संवार लो। सिद्ध पुरुषों की बहुतायत से यह देश भर जाएगा। जानते हो न उपवास की महत्ता तो हमारी पुरातन संस्कृति में शुरू से बतायी गई है। बस भूख लगे तो गाना गाने की बजाय उपवास मार्ग की शरण में चले जाइए, हर अन्न संकट दूर हो जायेगा। वैसे इस देश में इस नव जागरण के साथ समर्थों से लेकर प्रशासन तक के मन में दया धर्म का उदय हो चुका है। रियायत और राहत संस्कृति का बोलबाला है। मुफ्तखोरी एक लुभावना सत्य बन कर लोगों की ज़िन्दगी में चमक रही है। रियायती अन्न की दुकानें ही नहीं, मुफ्त लंगरों की बारातें भी नीतिगत विकल्प की तरह यहां-वहां सजने लगी हैं। अब बरसों काम तलाशने वालों में से बहुत-से लोगों ने काम की तलाश ही बंद कर दी है। दयालू राहत की दुकानों का रुख कर लिया है। जब काम की तलाश ही बंद हो गई, तो कैसे कहोगे कि इस देश की एक विकट समस्या बढ़ती हुई बेकारी है। उसकी जगह रियायतों के मुक्ति मार्ग ने जन्म ले तो लिया। और इस घोषणा ने भी कि अब किसी को भूख से मरने नहीं दिया जायेगा। जो मरेंगे अब स्वेच्छा से उपवास करते हुए मरेंगे। 
लीजिये ज़माने से खड़ी विकट समस्याओं के नये समाधान पैदा हो गये। शिक्षा क्रांति नहीं हो रही। आदर्श शिक्षा वातावरण पैदा कर देने के नाम पर महीनों बीत जाने पर भी स्कूलों में न कोर्स की किताबों की आपूर्ति होती है, न पढ़ाने के नाम पर पर्याप्त अध्यापकों की नियुक्ति। 
फीसें न बढ़ने देने के आदेश का विरोध अदालत की शरण में चला गया, और स्कूल छात्र वर्दियों की चोरबाज़ारी न करें, इस आदेश का बचाव खुले बाज़ार में उनकी निर्दिष्ट दुकानें उसी पुराने अंदाज़ में वर्दियां बेच-बेच कर रही हैं तो क्या हो गया, शिक्षा में मेहनत और पुस्तक संस्कृति मरने दो। विकल्प रूप में वैध-अवैध रूप से नयी पौध को विदेश भिजवाने वाली आइलेट्स अकादमियां कुकरमुत्तों की तरह खुल तो गयी हैं। यूं विदेशों में तस्कर हो चौथे दर्जे के नागरिक भी बन सको तो यह इस देश के पहले दर्जे के नागरिकों से अधिक सुविधापूर्ण होगा।