हाथियों की पहचान

उत्सव के इन दिनों में हमें अचानक हाथियों की याद आने लगी है। इधर प्राय: एक न एक दिवस मनाने का सुअवसर इस देश के लोगों को हर दिन मिलता रहता है। जिस तरह पिछले दिनों देश में अमृत महोत्सव मनाया गया, वह उम्मीद से बढ़ कर था। इसके साथ ही छिहत्तरवां आज़ादी दिवस राष्ट्रीयता से सराबोर हो तिरंगा फहराता हुआ सामने आया। इसने तो जैसे सबको सब कुछ भुला दिया। करोड़ों लोगों का सिर एक दम गर्व से ऊंचा हो गया। भूखे पेट, निट्ठल्ले हाथ भी अभिमान से सिर उठा कर चल सकते हैं, इस दिवस ने सबको बता दिया।
इन दिनों इतिहास के पन्ने तेज़ी से पलटे गये। नेतृत्व, आदर्श और बलिदान विहीनता के इस युग में लोगों ने चमत्कृत भाव से देखा कि ‘हां, इस देश में ऐसे दिन भी कभी रहे, जब लोग हंसते-हंसते अपनी गुलामी की बेड़ियां काटने के लिए फांसी का फंदा चूम जाते थे।’ तब न परिवार, न भार्या पटाने, न स्वार्थ साधने, और न अपनी जेब भरने की दौड़ मुख्य रहती। बस मां भारती के लिए आज़ादी की मुखर फिज़ा में सांस लेने का संघर्ष जीत लेना ही इन रणबांकुरों का लक्ष्य था। तब इस महती विजय को प्रकट करने के लिए तिरंगे को सीने से चिपका कर गोरों की बरसती गोलियों के आगे जो सीना खोल देती, वह उन अमर बलिदानियों की भीड़ थी, जिनके नाती-पोते आज हमें रियायती राशन के डिपुओं की कतार में खड़े नज़र आते हैं।  लेकिन भूल जाओ, अभी, कभी न खत्म होने वाली कतारों के  उन अभिशप्त आदमियों को भूल जाओ। ये लोग आज़ादी की इस पौन सदी में एक खण्डित सपने से दूसरे खण्डित सपने की यात्रा तय करते रहे, भूल जाओ। 
लो देखते ही देखते यह यात्रा एक महोत्सव के पड़ाव पर पहुंच गयी। बेशक अमृत महोत्सव का यह उत्साह निराला रहा। इस राष्ट्र दिवस ने देश के जन-जन को फिर याद दिला दी, हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है। चाहे पर्यावरण प्रदूषण ने इस बीच इस देश की हर नदी का रंग मटमैला कर दिया, गंगा की धवलधारा की पहचान इसमें नहीं हो पायी। बाकी रह गई मौसम की असाधारण उत्कंठित बदलती पहचान। इसमें सर्दी के वक्त गर्मी, और गर्मी के वक्त सर्दी पड़ने लगी। बारिश भी इस बार ऐसी पड़ी कि कहीं धारासार, प्रचंड और प्रलंयकर बाढ़ का रूप लेती। आकाश से फटते बादल, और सपना देखती भीड़ की बकाया इच्छाओं के नामोनिशान इनमें बहते हुए, और कहीं सूखा। लेकिन उत्सव तो उत्सव होता है न, इसमें सबको सब कुछ भूल जाता है। भीड़ का उत्साही जुलूस भूल जाता है, सपना देखती मन्द होती आंखों की रौशनी, लेकिन इस स्मृति लोप में क्यों उभर आती है हाथियों की चिंघाड़? इन हाथियों की संख्या इन वर्षों में बढ़ती चली गई है। जब उत्सव के दिन थे, इनमें एक हाथी दिवस भी गुज़रा। इसकी पहचान इस कोलाहल में न हो पायी, लेकिन देश में ज्यों-ज्यों इस बहु आबाद देश की भारी भीड़ चींटियों में तबदील होती चली गई, इनके मुंह में रियायती अनाज के दाने बढ़ते गये, त्यों-त्यों इस दिन हाथियों पर लिखा एक जानकारी पूर्ण लेख महत्वपूर्ण होता चला गया है। 
यह लेख बताता है कि इस पूरी दुनिया के साठ प्रतिशत हाथी अपने देश में पाये जाते हैं। ज्यों-ज्यों वक्त गुज़रता जा रहा है, क्यों लगता है कि इन हाथियों का प्रतिशत अपने देश में बढ़ता जा रहा है? हम सोचते हैं, साठ प्रतिशत हाथी यहां हैं, तो बाकी चालीस प्रतिशत अवश्य तीसरी दुनिया के उन नवजागृत देशों के पास होंगे, जिन्होंने हथेली पर सरसों जमाने जैसा सब का विकास या अपनी गद्दी सुरक्षित रखने के लिए ये हाथी उन कथित बाहुबलि देशों से मंगवा लिये हैं। हाथी आ गये अपने धूम-धड़ाके के साथ और ये देश अपनी चाल चलनी भूल गये। श्रीलंका भूल गया, पेरू भूल गया और अब बांग्लादेश से भी यही खबरें आ रही हैं। ड्रैगन जैसे शक्तिशाली देश को अब अपने हाथी वापस लेने के लिए कहा जा रहा है लेकिन साहब, अपना हाथी भेज कर भी कोई वापस लेना चाहता है, जिसने हाथी भेजा, वह तो अब उसकी शोभायात्रा ही इन देशों में चाहेगा। इस शोभायात्रा में हाथी पर गद्दी तो उनकी ही रहे, चाहे प्रत्यक्ष रहे या अप्रत्यक्ष। अरे बंधु यह क्या हुआ? हाथी तो जंगली इलाकों से निकल कर इन्सानी बस्तियों तक चले आये। पशु तो पशु अब इन्सानों में भी उनके चेहरे नज़र क्यों आने लगे हैं? फिर किसने कहा भारत में कुल हाथियों का केवल साठ प्रतिशत होता है? हमें तो इनकी तासीर इससे कहीं अधिक बढ़ती दिखाई देती है। उधर भारत का योजना आयोग बारह पंचवर्षीय योजनाएं बना कर भी सफेद हाथी कहलाया। अब जब उसको नमस्कार कह नीति आयोग बनाया है, तो सक्रियता के नाम पर केवल मात्र चिन्तन ही हो रहा है। यह चिन्तन कभी रास्ता पकड़े, इसकी प्रतीक्षा हो रही है। पूछो क्यों हाथियों की ढुलमुल चाल हमारे हर चिन्तन की संगी साथी बनती जा रही है? फिर इन हाथियों के बारे में अभी एक और तथ्य उजागर हुआ है। कहते हैं, हाथी और इन्सान का युद्ध हो जाये, तो पांच सौ इन्सान खेत रहें तो भी वे सौ हाथी नहीं मार सकते। 
हमें लगता है कि यह आंकड़ा भी गलत ही हो गया। अजी हाथी जल्दी कहां मरते हैं। लम्बी उम्र पाते हैं, और अपने जैसे इन्सानों और उनके नाती-पोतों को भी उसी तरह लम्बी उम्र जीने का संदेश दे जाते हैं। कहीं इसी को तो आज कल वंशवाद नहीं कहते? एक व्यक्ति ने पूछा। फिर और कोई विकल्प न देख खुद अपने इलाके के हाथी की शोभायात्रा में शामिल हो गया।