पंजाब के नदी पानी का विवाद—सरकार की पहुंच क्या हो ?

प़ागल वहशी तन्हा-तन्हा उजड़ा-उजड़ा दिखता हूं।
कितने आईने बदले हैं मैं वैसे का वैसा हूं।
तरकश प्रदीप का यह शे’अर पंजाब की हालत पर सही बैठता है। नि:संदेह पंजाब प़ागल व वहशी तो नहीं परन्तु तन्हा अर्थात् अकेला एवं उजड़ा हुआ अवश्य लगता है। हालांकि कितने ही शीशे अर्थात् सरकारें बदल-बदल कर देख ली हैं। पंजाब में चाहे कांग्रेस का शासन रहा, चाहे अकाली दल का, चाहे संयुक्त सरकारें बनीं और चाहे अब आम आदमी पार्टी का शासन है। पंजाब की हालत बिगड़ती ही जा रही है। 
कल केन्द्रीय जल शक्ति मंत्री राजेन्द्र सिंह शेखावत के नेतृत्व में एसवाईएल नहर बनाने संबंधी बैठक से बाहर आकर पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने जिस प्रकार की शारीरिक भाषा का प्रदर्शन किया और जो कुछ कहा, उससे एक बार तो बिल्कुल वैसा प्रभाव मिला जैसे कोई पहलवान ललकार  रहा हो कि तूं जा परे, मैं नहीं करदा तेरी कोई परवाह। नि:संदेह पहली नज़र में पंजाब का स्टैंड बड़ा साहस भरा दिखाई देता है। परन्तु किसी स्टैंड का सिर्फ साहसिक दिखाई देना ही आपकी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। 
खुशी की बात यह है कि पंजाब ने स्पष्ट स्टैंड लिया कि हमारे पास पानी है ही नहीं तो एसवाईएल नहर के निर्माण का कोई अर्थ नहीं। परन्तु हमारे मुख्यमंत्री या तो कुछ अधिक ही उत्साह में हैं या वह अपनी प्रशंसा करवाने की चिंता में हैं जो उन्होंने एक भी नई मांग कर दी है कि एसवाईएल नहीं बल्कि वाईएसएल नहर बना कर यमुना नदी का पानी पंजाब को दिया जाए। हम समझते हैं कि यह नि:संदेह देखने को ‘नहले पर दहले’ वाली बात है परन्तु इस बात की गम्भीरता की ओर जाएं तो यह ‘अपने पांव पर आप कुल्हाड़ी मारना’ वाली बात है, क्योंकि इस प्रकार अप्रत्यक्ष तौर पर हम केन्द्र की देश की नदियों को आपस में जोड़ने की बात तो असूल के तौर पर स्वीकृति दे रहे हैं। फिर पानी राज्यों का अधिकार नहीं रहेगा अपितु केन्द्र का अधिकार बन जाएगा। यह मांग पंजाब के पक्ष में जाती सबसे बड़ी कानूनी एवं संवैधानिक बात के विरोध में जाती है कि रिपेरियन कानून तथा देश के संविधान के अनुसार नदियों का पानी सिर्फ और सिर्फ राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है। यहां तक कि यदि कोई नदी सिर्फ एक राज्य में से ही गुज़रती है तो उसके पानी बारे केन्द्र सरकार तो क्या देश की संसद तथा सुप्रीम कोर्ट भी कोई निर्णय नहीं दे सकती। शायद यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश कोई भी निर्णय देने की बजाय एसवाईएल नहर के मामले में पंजाब तथा हरियाणा में समझौता करवाने पर ही बल दे रहे हैं।  
प्रधानमंत्री भी माने प्रदेशों का अधिकार
पंजाब का वास्तविक स्टैंड सिर्फ और सिर्फ यही होना चाहिए कि राइपेरियन कानून के अनुसार पंजाब की नदियों के पानी का मालिक सिर्फ और सिर्फ पंजाब है। चाहे वह राजस्थान हो, हरियाणा या फिर दिल्ली, यदि किसी ने पंजाब की नदियों का पानी लेना है तो वह जैसे आज़ादी से पहले बीनाकेर पैसे (रॉयलटी) देकर लेता था या जैसे दिल्ली अब हिमाचल से पैसे तथा ज़मीने देकर ले रही है, उसी तरह ही कीमत देकर ले। वह भी पंजाब की ज़रूरतें पूरी करने के बाद बचा अतिरिक्त पानी ही दिया जाए। ध्यान देने वाली बात है की नदियों का पानी हरियाणा, राजस्थान तथा दिल्ली को देने के कारण हमने अपना धरती के नीचे वाला पानी इतना उपयोग कर लिया है कि पंजाब अगले एक या दो दशकों में रेगिस्तान बन जाएगा। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हमने अधिक पानी निकाल कर 97 प्रतिशत ब्लाकों का पानी डार्क ज़ोन बना लिए हैं। हम प्रत्येक वर्ष धरती से 35.78 फी.सी.एम. (बिलियन क्यूबिक मीटर) पानी निकाल रहे हैं तथा प्रत्येक वर्ष प्राकृतिक तथा हमारे प्रयासों से सिर्फ 21.58 बी.सी.एम. पानी ही धरती में समा रहा है। भाव हम प्रत्येक वर्ष लगभग 14 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी अपने खज़ाने में से कम कर रहे हैं। इसका परिणाम क्या होगा, कोई पांचवीं में पढ़ता बच्चा भी बता सकता है।
यह ठीक है कि आम आदमी पार्टी से पहले की सरकारों को भी यह स्टैंड लेना चाहिए था जो उन्होंने नहीं लिया, परन्तु क्या यह जायज़ है कि पहली सरकारें पंजाब के हितों की रक्षा करने में असफल रही हैं तो वर्तमान सरकार भी वही कुछ करे।
अब तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं प्रदेशों के जल मंत्रियों की बैठक में अपने भाषण में यह मान लिया है कि पानी प्रदेशों के अधिकार का मामला है। फिर पंजाब के पानी पर पंजाब प्रदेश का अधिकार क्यों नहीं माना जा रहा? भारत के संविधान के शैड्यूल 7 में प्रदेशों के अधिकारों की सूची में 17वें स्थान पर यह स्पष्ट है कि पानी प्रदेशों का विषय है। केन्द्र सरकार जिसे अब धक्के से इसे केन्द्र सरकार का विषय बना रही है, इसे सूची में 56वीं धारा के अनुसार ड्रेनज़, नदियों, किनारों तथा भंडारण आदि के मामले देख सकती है, परन्तु पानी के मालिकाना से उसका कोई भी लेना-देना नहीं। हां, पंजाब से हिमाचल ज़रूर अपर-राइपेरियन स्टेट है जो पंजाब से कुछ अधिकार तक प्राप्त कर सकता है। परन्तु किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय कानून के अनुसार वह पानी के प्राकृतिक बहाव को बदलने का अधिकार नहीं रखता।
पंजाब पर ज़बरन थोपे गए समझौते
कमा-ए-तिशनगी की इंतहा हूं।
समंदर हूं मगर प्यासा रहा हूं।
यह पंजाब की स्थिति है कि पानी का मालिक रेगिस्तान बनने की ओर बढ़ रहा है तथा पंजाब का पानी राजस्थान, हरियाणा तथा दिल्ली मुफ्त में लूट रहे हैं। जबकि दिल्ली ने अभी हिमाचल से पानी मूल्य लेने का समझौता किया है तथा बदले में पानी की कीमत के साथ-साथ करोड़ों रुपये के प्लाट भी दिल्ली में हिमाचल को दिए गए हैं। क्यों नहीं हमारे मुख्यमंत्री भगवंत मान दिल्ली में शासन कर रही अपनी ही पार्टी को शुरुआत करने के लिए मनाते कि वह हिमाचल की भांति पंजाब को भी पानी की कीमत दे ताकि अन्य प्रदेश भी इसके लिए विवश हों।
वास्तव में 29 जनवरी, 1955 को राजस्थान को पानी देने के समझौते जिसमें लिखा गया था कि पानी की कीमत बाद में तय की जाएगी से लेकर 1966 के पंजाब पुनर्गठन एक्ट के बाद के सभी समझौते पंजाब पर ज़बरन थोपे गए हैं। 1966 में पंजाब पुनर्गठन एक्ट में 78, 79 एवं 80 जैसी धाराएं न तो किसी अन्य प्रदेश में नया प्रदेश बनाने के दौरान लगाई गईं तथा न ही किसी अकेले प्रदेश में बहती नदियों का पानी मुफ़्त में किसी अन्य प्रदेश को ज़बरन दिलाया गया। फिर पंजाब के साथ ऐसा क्यों किया गया? मुख्यमंत्री कहते हैं कि बड़े से बड़ा वकील करेंगे। यदि वकील करने ही हैं तो पंजाब पुनर्गठन एक्ट की अवैध धाराओं 78, 79 एवं 80 समाप्त करवाने हेतु किए जाएं। नहीं तो उनकी सलाह से पंजाब विधानसभा में ये धाराएं रद्द करके बांधों पर पानी का कंट्रोल अपने हाथ में लेने का कोई रास्ता ढूंढा जाए। इसके साथ ही बहुत ज़रूर तौर पर करने वाला काम यह भी है कि नदियों का पानी खेतों तक फिर से पहुंचाने हेतु नदियों, रजवाहों तथा खालों की दबी ज़मीनें प्राथमिकता के आधार पर खाली करवाई जाएं तथा नहरी पानी के उपयोग का सिस्टम पुन: बहाल किया जाए। इस मामले में तो किसी के साथ कोई झगड़ा नहीं है, परन्तु पंजाब की वर्तमान स्थिति कुछ इस प्रकार है :-
दर्द की कोई इंतहा नहीं है।
इस मज़र् की कोई दवा नहीं।
मो. 92168-60000