चीतों की मौत के लिए आखिर कौन है ज़िम्मेदार ?

अफ्रीकी देशों से लाकर कूनो अभ्यारण्य में बसाए गए चीतों की लगातार हो रही मौत से उनकी निगरानी, स्वास्थ्य और मौत के लिए आखिर कौन ज़िम्मेदार है? यह सवाल बढ़ा होता जा रहा है। जिस तरह से चीते अकाल मौत का शिकार हो रहे हैं, उससे लगता है कि उच्च वनाधिकारियों का ज्ञान चीतों के प्राकृतिक व्यवहार से लगभग अछूता है। इसलिए एक-एक कर तीन वयस्क और तीन शावकों की मौत चार माह के भीतर हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी चीता परियोजना के लिए यह बड़ा झटका है। विडम्बना है कि इन चीतों की  मौत के कारण भी पता नहीं चले हैं। 
23 मई को जिस चीता शावक की मौत हुई थी, उसे जन्म से ही कमज़ोर बताया जा रहा था। मां का दूध भी वह कम पी रहा था। बावजूद उसके इलाज के ठोस प्रयास नहीं हुए। इलाज भी तब शुरू हुआ जब निढाल होकर वह गिर गया और निगरानी दल ने चिकित्सकों को जानकारी दी। हैरानी है कि इन चीतों की निगरानी भारतीय विषेशज्ञों के साथ दो नामीबिया के और चार दक्षिण अफ्रीका के विशेषज्ञ कूनो में डेरा डाले हुए हैं। क्या इनकी ज़िम्मेदारी नहीं थी कि वे इस बीमार शावक द्वारा दूध नहीं पीने के कारणों को जानते और उपचार करते। इसी तरह दो शावक और मर गए। जो चौथा शावक जीवित है, उसकी हालत भी ठीक नहीं है। उसे बकरी का दूध पिलाया जा रहा है। जबकि बकरी का दूध डेंगू जैसे बुखार की स्थिति में प्लेटलेट्स बढ़ाने के लिए दिया जाता है। शावकों की मौत पर पर्दा डालने के लिए बताया जा रहा है कि चीता शावकों की मृत्यु दर बिल्ली प्रजाति के प्राणियों में सबसे ज्यादा है। इसलिए इन मौतों को अनहोनी नहीं माना जाना चाहिए। सवाल है कि चार में से तीन शावक मर गए तो यह दर 75 फीसदी पर पहुंच गई। हो सकता है कि इनका जीवन बचाने में लापरवाही बरती गई हो। 
9 मई को मादा चीता दक्षा की मौत से यह स्पष्ट है कि वन्य प्राणी विशेषज्ञों को व्यावहारिक ज्ञान नहीं है। दक्षा से जोड़ा बनाने के लिए एक साथ दो नर चीते छोड़ दिए गए। जो एक बड़ी भूल थी। बिल्ली प्रजाति के नर प्राणियों में मादा से संबंध बनाने को लेकर संघर्श और मौत आम बात है। बावजूद इनकी निगरानी नहीं की गई। इसी का परिणाम रहा कि इस जानलेवा हमले की खबर प्रबंधन को तब लगी, जब दक्षा को बचाने के प्रयास असंभव हो गए। आश्चर्य इस बात पर भी है कि जब प्रत्येक चीते के गले में कॉलर आईडी है और चीते कैमरों की निगरानी में हैं, फिर भी यह चूक हुई। इसलिए कहा जा सकता है कि ईमानदारी से निगरानी की ही नहीं जा रही। 25 अप्रैल को उदय नाम के चीते की मौत हुई। इस मौत को हृदयाघात बताया गया, लेकिन सब विच्छेदन के बाद मौत का कारण संक्रमण निकला। उदय की खराब हालत का भी तब पता चला जब वह निढाल होकर एक ही जगह पड़ा रहा। कूनो में 27 मार्च को 20 चीतों में से सबसे पहले मादा साशा की मौत की खबर आई थी। इसकी मौत का कारण गुर्दे में संक्रमण बताया गया था। यह गंभीर बीमारी नामीबिया से ही थी। यह जानकारी नामीबिया में ही भारतीय वनाधिकारियों को दे दी गई थी। बावजूद उसे लाया तो गया, लेकिन इलाज का कोई उचित प्रबंध नहीं किया गया। आखिर बीमार चीता लाने की क्या मजबूरी थी, वन प्रबंधन इस प्रश्न पर मौत के बाद से ही चुप्पी साधे हुए है, क्यों? इन मौतों से यह आशंका प्रबल हो रही है कि 24 में से छह चीते चार माह में मर गए, तो इस परियोजना का भविष्य क्या होगा? यदि इन मौतों को गंभीरता से नहीं लिया गया और निगरानी के पुख्ता प्रबंध नहीं हुए तो कहीं हम 75 साल पहले निर्मित हुई चीतों के संदर्भ में शून्य स्थिति पर न पहुंच जाएं ,क्योंकि जो धरती चीतों से गुलज़ार थी, उस पर 1947 में विराम लग गया था। 
दरअसल यदि अतीत में जाएं तो पता चलता है कि विदेशी चीतों को भारत की धरती कभी रास नहीं आई। इनको बसाने के प्रयास पहले भी होते रहे हैं। एक समय चीते की रफ्तार भारतीय वनों की शान हुआ करती थी, लेकिन 1947 के आते-आते चीते पूरी तरह लुप्त हो गए। 1948 में अंतिम चीता छत्तीसगढ़ के सरगुजा में देखा गया था, जिसे मार दिया गया। चीता तेज़ रफ्तार का जानवर माना जाता है। विशिष्ट एवं लोचपूर्ण शरीर के कारण भी इस हिंसक वन्य जीव की अलग पहचान थी। शरीर में इसी चपलता के कारण यह जंगली प्राणियों में सबसे तेज दौड़ने वाला धावक है। इसलिए इसे जंगल की बिजली भी कहा गया। हालांकि भारत में चीतों के पुनर्वास की कोशिशें असफल रही हैं। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से 1993 में दिल्ली के चिड़ियाघर में चार चीते लाए गए थे, लेकिन छह माह के भीतर ही ये चारों मर गए। चिड़ियाघर में इनके आवास, परवरिश व प्रजनन के पर्याप्त उपाय किये गये थे। लिहाजा उम्मीद थी कि यदि इनकी वंशवृद्धि होती है तो देश के अन्य चिड़ियाघरों व अभ्यारण्यों में ये चीते स्थानांतरित किये जाएंगे। हालांकि चीतों द्वारा चिड़ियाघरों में प्रजनन अपवाद घटना ही होती है। नतीजतन प्रजनन संभव होने से पहले ही चीते मर गए। 
बीती सदी में चीतों की संख्या एक लाख तक थी, लेकिन अफ्रीका के खुले घास वाले जंगलों से लेकर भारत सहित लगभग सभी एशियाई देशों में पाये जाने वाले चीते अब पूरे एशियाई जंगलों में गिनती के रह गए हैं। राजा चीता (एसिनोनिक्स रेक्स) जिम्बाब्बे में मिलता है। अफ्रीका के जंगलों में भी गिने-चुने चीते रह गए हैं। तंजानिया के सेरेंगती राष्ट्रीय उद्यान और नामीबिया के जंगलों में गिने-चुने चीते हैं। प्रजनन के तमाम आधुनिक व वैज्ञानिक उपायों के बावजूद जंगल की इस फुर्तीली नस्ल की संख्या बढ़ नहीं पा रही है। यह प्रकृति के समक्ष वैज्ञानिक दंभ की नाकामी है। ज्यूलॉजिकल सोसायटी ऑफ  लंदन की रिपोर्ट को मानें तो दुनिया में 91 प्रतिशत चीते 1991 में ही समाप्त हो गए थे। अब केवल 7100 चीते पूरी दुनिया में बचे हैं। एशिया के ईरान में केवल 50 चीते शेष हैं। अफ्रीकी देश केन्या के मासीमारा क्षेत्र को चीतों का गढ़ माना जाता था, लेकिन वहां भी ये गिनती के ही रह गए हैं।   
गत सदी के पांचवें दशक तक चीते अमरीका के चिड़ियाघरों में भी थे। विशेषज्ञों की अनेक कोशिशों के बाद इन चीतों ने 1956 में बच्चों को जन्म भी दिया था, परन्तु किसी भी शावक को बचाया नहीं जा सका। चीते द्वारा किसी चिड़ियाघर में जोड़ा बनाने की यह पहली घटना थी, जो नाकाम रही।
 
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