भारत और कनाडा के संबंधों में तनाव और बढ़ने की सम्भावना

असूल से भी बड़ा है अना का झगड़ा तो,
बढ़ेगी और भी तकरार, देखते जाओ।
कनाडा और भारत के मध्य शुरू हुई कटु वार्ता नि:संदेह दो राष्ट्र प्रमुखों की अना (ईगो/अहम्) का मामला है, परन्तु यह सिर्फ अहम् का ही मामला नहीं है, अपितु उससे भी आगे जाकर राजनीतिक लाभ-हानि का मामला भी है। राजनीतिज्ञ कई बार अपने राजनीतिक लाभ के लिए अपने अहम् को ही नहीं अपितु स्वाभिमान तक को दांव पर लगाते देखे गए हैं। यह मामला मानवाधिकारों का मामला भी है और देश की संप्रभुता के सम्मान का भी है। यह जीवन का अधिकार छीनने का मामला भी है। यह देश की अखंडता व एकता की मामला भी है। इस मामले के इतने आयाम हैं कि प्रत्येक पहलू का ज़िक्र करना सम्भव नहीं प्रतीत होता, परन्तु यह पक्का है कि यह मामला यहां रुकने वाला नहीं। यह अभी और बढ़ेगा। अभी तो कनाडा के सहयोगी ‘फाइव आइज़’ देश अमरीका, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड तथा ब्रिटेन इस मामने में संभल कर बोल रहे हैं, परन्तु आने वाले दिनों में स्थिति बदल भी सकती है, क्योंकि रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत जो ‘भारत पहले’ की नीति अपना रहा है और निष्पक्ष रहने की कोशिश कर रहा है, वह इन देशों को नहीं भाती। पाठकों की जानकारी के लिए ‘फाइव आइज़’ उक्त देशों के बीच आपसी सहयोग का एक साझा खुफिया संगठन है जो विश्व राजनीति में मिल कर चलता है और प्रत्येक गुप्त जानकारी एक-दूसरे देश के साथ साझा करता है। वैसे इसका विस्तृत रूप अब ‘नाइन आइज़’ के तौर पर जाना जाता है, जिसमें उक्त पांच देशों के अतिरिक्त चार अन्य देश डैनमार्क, फ्रांस, नीदरलैंड व नार्वे भी शामिल हो गए हैं। 
नि:संदेह कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने अपने दूसरे बयान में अपने स्वर कुछ नर्म किये हैं और कहा है कि वह भारत को उकसाना नहीं चाहते अपितु भारत सरकार को मामले को बेहद गम्भीरता से लेने के लिए कह रहे हैं और मामले की जांच हेतु भारत के साथ कार्य करना चाहते हैं, परन्तु इसके बावजूद अभी मामला समाप्त होने के आसार नहीं दिखाई दे रहे। वीज़ों पर पाबंदी का फैसला इस बात का प्रत्यक्ष सबूत है कि मामला और गम्भीर हो रहा है।
जस्टिन ट्रूडो द्वारा कैनेडियन संसद में आरोप लगाना कि खालिस्तानी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंसियों का हाथ है, अपने-आप में बहुत बड़ा आरोप है। ट्रूडो ने अभी इसके सबूत प्रकट नहीं किये, परन्तु यदि उनके पास कोई सबूत हैं तो वह उन्हें सार्वजजिक करने ही पड़ेंगे, नहीं तो मामला इतना बड़ा बन चुका है कि अब यह उनके लिए बड़ी राजनीतिक मुश्किलें खड़ी कर सकता है, परन्तु यदि वह वास्तव में ही कोई ठोस सबूत पेश करते हैं तो वह भारत के लिए नमोशी का कारण भी बन सकता है, परन्तु जमीनी हकीकत यह है कि इस स्थिति का भारत में राजनीतिक लाभ सिर्फ और सिर्फ भाजपा को ही होगा। दूसरी ओर यह भी कहा जा रहा है कि ट्रूडो ने इस मामले को हवा अपने राजनीतिक लाभ के लिए ही दी है। सब को पता है कि पिछले दो चुनावों में सिख वोट अधिकतर जस्टिन ट्रूडो की पार्टी के पक्ष में भुगते थे किन्तु इस बार वे जगमीत सिंह की पार्टी की ओर जा रहे हैं, परन्तु इस बीच ये सरगोशियां भी सुनाई दे ही हैं कि कनाडा के एक प्रमुख समाचार-पत्र ने इस मामले में कुछ सबूत इकट्ठा किये थे और वह यह सब कुछ प्रकाशित करने जा रहा था। यदि यह प्रकाशित हो जाता तो यह मामला ट्रूडो के लिए देश में काई मुश्किलें उत्पन्न कर सकता था। इसलिए भी ट्रूडो को समाचार-पत्र से पहले स्वयं यह मामला उठाना पड़ा। खैर, सच्चाई क्या है, यह कुछ समय बाद सामने आ ही जाएगी। 
मुल्ज़िम किसे गरदानिये, कहिये किसे मासूम,
इक सैल-ए-शिकायात इधर भी है, उधर भी। 
(मुश्ताक) 
भाजपा को सबसे अधिक राजनीतिक लाभ
भारत तथा कनाडा के बीच जो तकरार शुरू हुई है और जो स्थिति बन गई है, उसका राजनीतिक लाभ स्पष्ट रूप में भाजपा को ही होगा क्योंकि भारत में लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और इससे भी पहले पांच विधानसभाओं के चुनाव भी होने हैं। चाहे हम समझते हैं कि इस स्थिति का विधानसभा चुनावों पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि विधानसभा चुनावों में  स्थानीय मुद्दे अधिक प्रभावी होते हैं, परन्तु लोकसभा चुनाव में यह स्थिति हर हाल में हिन्दू बहुसंख्यक का ध्रुवीकरण और मज़बूत करने में सहायक होगी क्योंकि जब खालिस्तानी नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू कनाडा से हिन्दुओं को चले जाने के लिए कहता है तो हिन्दू ध्रुवीकरण होना एक आसान व स्वाभाविक प्रक्रिया बन जाएगा।
सच्चाई यह है कि यह प्रभाव पहले भी बन रहा था कि इस समय सिर्फ मुस्लिम विरोध या मुसलमानों का डर ही हिन्दू बहुसंख्यक के ध्रुवीकरण के लिए काफी नहीं। यही कारण था कि जब अमृतपाल सिंह का उभार हो रहा था तो कुछ पक्ष इसे भी खालिस्तान का हौवा खड़ा करके हिन्दू ध्रुवीकरण की चाल ही बता रहे थे। यदि पाकिस्तान के साथ-साथ खालिस्तान का डर पैदा होता है तो वर्तमान हालात में हिन्दू बहुसंख्यक को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा के अतिरिक्त कोई अन्य रक्षक दिखाई नहीं दे सकता। फिर यह स्थिति देश के विपक्षी दलों को भी भाजपा की ही भाषा बोलने के लिए मजबूर करेगी, क्योंकि इस स्थिति में भाजपा के विपरीत स्टैंड लेना भारत तथा हिन्दुओं के विरुद्ध स्टैंड माना जाएगा। उन्हें भाजपा ‘़गद्दार’ कहेगी। इसलिए प्रत्येक तरह से फायदा भाजपा का ही होगा क्योंकि प्रत्येक विरोधी पक्ष भी भाजपा सरकार के स्टैंड के साथ खड़े होने के लिए मजबूर होगा।
सिख मानसिकता दुविधा में
यह स्थिति सिखों के लिए बहुत दुविधा भरी है। खासतौर पर पंजाब और भाजपा में रहते सिखों के लिए तो यह स्थिति बहुत परेशानी वाली है कि वे क्या करें, और क्या कहें? यह सच्चाई है कि सिख बहुसंख्या खास तौर पर भारतीय सिख बहुसंख्या खालिस्तान के पक्ष में नहीं बोलती, परन्तु सिखों के लिए यह बर्दाश्त करना भी मुश्किल है कि सिख चाहे वह खालिस्तान के हिमायती ही हो, को गैर-कानूनी तरीके के साथ कत्ल कर दिया जाए। नि:संदेह सिखों को भारत की न्यायिक व्यवस्था से बहुत नाराज़गी है। 38-39 साल बीत जाने पर भी 1984 के सिख कत्लेआम के आरोपियों को सज़ा न मिलना उनकी सबसे बड़ी नाराज़गी है, लेकिन इसके बावजूद सिख भारतीय कानूनों और न्यायिक व्यवस्था का सम्मान करते हैं। वे चाहते हैं कि यदि सरकार को किसी सिख की गतिविधियों पर कोई आपत्ति है तो उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करे। वैसा तो बीते कुछ समय में अकेले हरदीप सिंह निज्जर के कत्ल बारे ही भारतीय एजेंसियों पर उंगलियां नहीं उठीं, बल्कि अन्य देशों जिनमें ब्रिटेन और पाकिस्तान भी शामिल हैं, में खालिस्तान समर्थक नेताओं की हत्या के बारे में भी भारतीय एजेंसियों पर सोशल मीडिया में काफी आरोप लगाए जाते रहे हैं। ऐसी स्थिति खालिस्तान की भावना को जगाती है। इस समय भारत में रहते सिख तो बहुत ही परेशान हैं कि वे क्या करें, क्या बोलें। यह सिखों की बदकिस्मती है कि इस समय सिखों के पास न तो कई सर्व-मान्य धार्मिक नेतृत्व है, न राजनीतिक नेतृत्व है और न ही सामाजिक नेतृत्व है, जो सिखों को मुश्किल की घड़ी में सही नेतृत्व दे सके। सिखों की हालत यह है कि वे खालिस्तान समर्थक न होते हुए भी इस कत्ल के खिलाफ बोलते हैं तो मरते हैं, यदि नहीं बोलते तो भी मुश्किल है। इस समय सिखों की स्थिति इस शेअर जैसी है : 
सोचां दी मैय्यत नूं लै के
हुण मैं किहड़े घर जावांगा।
बोल पिया तां मार देणगे,
चुप रिहा तां मर जावांगा।
लेकिन अंत में हम जत्थेदार श्री अकाल तख्त साहिब ज्ञानी रघुबीर सिंह के इस विचार के साथ पूरी तरह सहमत हैं कि भारत सरकार इस मामले में अपनी स्थिति स्पष्ट करे। यहां हम कानाडा और अन्य देशों में रहने वाली प्रवासी सिख संगत के निवेदन करते हैं कि वे भी ऩफरत की भाषा न अपनाएं। हिन्दू भाईचारे के खिलाफ उनके सिर्फ हिन्दू होने के कारण कुछ भी करना न सिख जीवन पद्धति का हिस्सा है, और न ही सिख कौम के हित में है, क्योंकि इसमें हिन्दू भाईचारे का तो कोई कसूर नहीं। फिर यह विरोध कुछ तत्वों को सिखों के खिलाफ उकसाने का मौका उपलब्ध कराएगा।
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