क्या अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में भाजपा को टक्कर दे सकेंगे ?

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने बयान दिया है कि भाजपा के खिलाफ विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार खड़ा करने के सिलसिले में उनकी तरफ से कोई दिक्कत नहीं आने वाली है। वे किसी गठजोड़ पार्टनर को सीटें देने में कोई दिक्कत पैदा नहीं करेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि लोकसभा का चुनाव एक बड़ी लड़ाई है और छोटी-छोटी बातों से उसे खराब नहीं किया जा सकता। ज़ाहिर है कि उनके इस वक्तव्य से विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ को बहुत तसल्ली हुई होगी। इस बयान का सकारात्मक संदेश न केवल कांग्रेस को मिला होगा, बल्कि गठजोड़ से बाहर बैठी हुई मायावती को भी गया होगा। अब मायावती को केवल विधानसभा चुनाव के नतीजों का इंतज़ार रहेगा। अगर वहां कांग्रेस ठप्पे के साथ जीतती है, तो विपक्षी एकता को जो उछाल मिलेगा, उसमें मायावती अपना फायदा भी देख सकती हैं। हालांकि भाजपा पूरी कोशिश करेगी कि मायावती विपक्ष के साथ न जा पाए, लेकिन अगर मायावती ने इस तरह का मन बनाया तो भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव में मुश्किलें बहुत बढ़ जाएंगी। 
समाजवादी पार्टी को अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी सफलता 2012 में प्राप्त हुई थी, जब उसने उत्तर प्रदेश में 29.15 प्रतिशत वोट प्राप्त करके पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। इस पार्टी की दूसरी और वोट प्रतिशत के मामले में सबसे बड़ी सफलता दस साल बाद 2022 में सामने आई, जब इसने विधानसभा चुनाव में अपने इतिहास में सर्वाधिक 32.06 प्रतिशत वोट हासिल किये। यह अलग बात है कि अपने सबसे ज्यादा बेहतरीन प्रदर्शन और सीटों की सम्मानजनक संख्या के बावजूद वह सरकार बनाने से काफी दूर रह गई। सपा ने अपने तीन दशक लम्बे वजूद में और भी कई चुनाव लड़े हैं। 1993 और 2012 के पहले भी वह सत्ता में आ चुकी है। इस दौरान उसने लोकसभा के भी सभी चुनाव लड़े हैं और एकाधिक बार उनमें भी उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। मसलन, 1996 से 2009 तक पांच चुनावों में सपा ने क्रमश: 16, 20, 26, 35 और 23 सीटें जीत तक केन्द्र में होने वाली गठजोड़ राजनीति पर अपनी छाप छोड़ी। गठजोड़ राजनीति के बोलबाले के दौरान उसके नेता मुलायम सिंह यादव को केन्द्र सरकार में रक्षामंत्री का पद तो मिला ही, इस दौरान एक बार प्रधानमंत्री पद भी उन्हें छू कर निकल गया। सपा ने अक्सर उत्तर प्रदेश के बाहर भी अपने उम्मीदवार खड़े करने का प्रयोग किया है, लेकिन इक्का-दुक्का सफलताओं को छोड़ कर उसे कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिल सकी है।
समाजवादी पार्टी का जन्म पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में तेज़ी से बदलते घटनाक्रम के दौर में हुआ था। चार नवम्बर, 1992 को सपा की स्थापना हुई। छह दिसम्बर को कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दी। केन्द्र द्वारा धारा 356 लगा कर भाजपा की कल्याण सिंह सरकार बर्खास्त कर दी गई। 1993 में विधानसभा के मध्यावधि चुनावों का रास्ता साफ हो गया। सपा-बसपा गठजोड़ होते ही यह तय हो गया कि देश उत्तर प्रदेश की ज़मीन पर पहली बार दो परस्पर विपरीत चुनावी गोलबंदियों को देखने जा रहा है। जातियों के बहुसंख्यकवाद और हिंदुत्ववादी बहुसंख्यकवाद के बीच हुई इस प्रतियोगिता का आंकड़ागत विश्लेषण योगेंद्र यादव ने विस्तार से किया है। सी.एस.डी.एस. के आंकड़ा ईकाई (डेटा यूनिट) और इंडिया टुडे-मार्ग के एगज़िट पोल की मदद से योगेंद्र यादव कुछ ठोस नतीजों पर पहुंचे :
भाजपा अपने वोट प्रतिशत को बढ़ाने (31.6 से 33.4) के बावजूद 221 से घट कर 177 सीटों पर आ गई। इसका पहला कारण तो यह था कि सपा और बसपा के जनाधार ने एक-दूसरे को जमकर वोट दिया। दूसरा कारण था भाजपा के मतदाता-आधार का फैलाव और संघनता में कमी। इसके विपरीत सपा-बसपा का मतदाता-आधार अपेक्षाकृत कम होने के बावजूद जहां था, वहां भरपूर संघन था। सपा-बसपा ने 176 सीटें (109 और 67) जीतीं। 
इन नतीजों के आधार पर मुसलमान-दलित-यादव गठजोड़ का मूल्यवर्धन करना आसान था, लेकिन असलियत यह थी कि केवल मुसलमानों के बहुसंख्या (55 प्रतिशत) ने ही इस गठजोड़ को वोट दिया था। ओ.बी.सी. और दलित वोट इसे केवल 36 और 33 ़प्रतिशत ही मिले थे। भाजपा करीब 28 प्रतिशत ओ.बी.सी. वोट ले गई थी। जनता दल को 13 प्रतिशत पिछड़े वोट मिले थे। 
भाजपा को द्विज जातियों के 63 प्रतिशत वोट मिले। एक मिले-जुले समुदाय द्वारा बिल्कुल एक जैसे राजनीतिक मानस के आधार पर ध्रुवीकृत होने का यह उदाहरण दूरगामी प्रभाव वाला था। 
मुसलमान मतदाता एक राजनीतिक समुदाय के रूप में उभर कर सामने आए। उन्होंने मौलाना ब़ुखारी के सपा विरोधी ़फतवे की परवाह न करते हुए गठजोड़ को ही वोट दिये। गठजोड़ में भी उनकी प्राथमिकता बसपा के बजाय सपा के साथ ही जुड़ी हुई थी। जो भी हो, ये नतीजे स्पष्ट करते थे कि दोनों ही बहुसंख्यकवाद अपने-अपने पक्ष में इच्छित मात्रा में ध्रुवीकरण नहीं कर पाये। यानी बहुसंख्यवादों की यह प्रतियोगिता बहुत लम्बी चलने वाली थी।
2022 के आंकड़े समाजवादी पार्टी के आज तक के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की विडम्बनापूर्ण कहानी कहते हैं। 32.06 प्रतिशत वोटों के समर्थन की सामाजिक रचना पर यादव और मुसलमान वोटों का असाधारण ध्रुवीकरण बेतहाशा हावी दिखता है। कुर्मी-कोइरी और अन्य पिछड़ी जातियों के भी सम्मानजनक वोट मिलते हुए दिखते हैं। स्पष्ट है कि अखिलेश यादव के नेतृत्व में हुआ यह पहला विधानसभा चुनाव रणनीतिक दृष्टि से अंशत: सफल होते हुए भी लक्ष्य से बहुत दूर (सिर्फ 111 सीटें) तक सीमित रह गया। अखिलेश ने पिछड़ी जातियों का एक गुलदस्ता तैयार करने में कामयाबी हासिल की और मुसलमान वोटों के भीतर मौजूद किसी भी तरह के ढुलमुलपन को भी खत्म करके उनका पूरा समर्थन जीत लिया। लेकिन वे भाजपा की राज्य सरकार से ब्राह्मण समुदाय की नाखुशी, सरकार द्वारा खुल कर चलाये जा रहे ठाकुरवाद, कोविड महामारी के दौरान हुई बदइंतज़ामी, किसान आंदोलन से बनी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नाराज़गी और आवारा पशुओं से किसानों को होने वाली समस्याओं का कोई लाभ नहीं उठा सके। सरकार के खिलाफ एक ठीक-ठाक किस्म की ‘एंटीइनकम्बेंसी’ (सत्ता विरोधी भावना) थी, जो इन सभी पहलुओं को मिला कर देखने पर सी.एस.डी.एस.-लोकनीति के चुनाव-उपरांत सर्वे में साफ दिखाई देती है। इसके बावजूद समाजवादी पार्टी ब्राह्मण, वैश्य, ठाकुर, भूमिहार और जाटों के वोटों के मामले में अपने पिता द्वारा सपा की तरफ खींची गई, उस सामाजिक संरचना को दोहराने में विफल रही। इसी के दम पर अखिलेश 2012 में मुख्यमंत्री बने थे। इसका दूसरा बड़ा कारण यह कि भाजपा अपने वोटों को 2017 में अगर 39.65 प्रतिशत तक ले गई थी, तो 2022 में एंटीइनकम्बेंसी के बावजूद उसके वोट इससे भी ज्यादा बढ़ कर 41.29 पर पहुंच गए। यानी, हिंदुत्ववादी बहुसंख्यकवाद की गोलबंदी ने तीस प्रतिशत के आसपास वोट प्राप्त करके बहुमत हासिल करने की परम्परा को अतीत की वस्तु बना दिया। 
इस लिहाज़ से जातियों के बहुसंख्यकवाद की राजनीति ने भी इस चुनाव में अपना सर्वश्रेष्ठ दिखाया और हिंदुत्ववादी बहुसंख्यकवाद की राजनीति ने भी। जातियों के बहुसंख्यवाद की दूसरी प्रतिनिधि बसपा जाटव और अन्य दलित वोटों को छोड़ कर हर मानक पर फिसड्डी साबित हुई। सपा इसकी अकेली उल्लेखनीय प्रतिनिधि ज़रूर रह गई, लेकिन हिंदुत्व अपनी कई तरह की प्रशासनिक विफलताओं के बावजूद नौ प्रतिशत से आगे रहा, जो बहुत बड़ी बढ़त थी।
2024 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश को एक अतिरिक्त चुनौती का सामना करना पड़ेगा। क्या वे उत्तर प्रदेश की जनता को विश्वास दिला पाएंगे कि विपक्षी गठजोड़ भाजपा का विकल्प राष्ट्रीय स्तर पर दे सकता है? दूसरे, क्या वे एक बार फिर लोकसभा चुनाव के संदर्भ में पिछड़े वर्ग की एकता का वैसा ही गुलदस्ता पेश कर पाएंगे, जो उन्होंने विधानसभा चुनाव में किया था? तीसरे, उनकी सारी योजनाएं इस बात पर निर्भर रहेंगी कि मायावती का रुख क्या होता है? अगर मायावती ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने का फैसला किया तो केवल कांग्रेस से गठजोड़ के दम पर उनके लिए भाजपा को रोकना मुमकिन नहीं होगा।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।