क्षेत्रीय नेताओं की मनमानी बनी कांग्रेस की हार का कारण

पांच विधानसभा चुनाव के नतीजों ने उन लोगों को अवाक कर दिया है जो सोचते थे कि कांग्रेस चार में से कम से कम तीन राज्य तो जीतेगी ही। उनका अंदाज़ा था कि कांग्रेस की छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में जीत तो तय है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में से वह एक राज्य और जीत सकती है। इन दोनों में मध्य प्रदेश की जीत की सम्भावना अधिक प्रबल थी। इस तरह की इच्छा के पीछे एक कल्पना थी कि अगर कांग्रेस छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के साथ तेलंगाना जीतती है, तो 2024 के लिए विपक्ष की एकता को एक मज़बूत ‘एंकर’ पार्टी मिल जाएगी। जैसे ही ‘इंडिया’ गठबंधन एक शक्तिशाली पार्टी के नेतृत्व में आएगा, वैसे ही नरेंद्र मोदी के खिलाफ सारे देश के पैमाने पर एक समांतर नैरेटिव तैयार करने और उसका प्रचार-प्रसार करने का रास्ता साफ हो जाएगा। इन चुनावों को जीत कर कांग्रेस एक और दावा कर सकती थी कि देश की केवल वही एक पार्टी है, जो दक्षिण के साथ-साथ उत्तर में भी अपना दबदबा रखती है। वह भाजपा की तरह नहीं है, जो केवल उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत की पार्टी है।
इन चुनावों को जीतने पर उसका हालिया स्कोर कार्ड ‘परफेक्ट’ होता। उसने दक्षिण में कर्नाटक और तेलंगाना को जीत लिया होता और उत्तर में उसकी जेब में हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश पड़े होते। राजस्थान की सम्भावित हार के बारे में भी कांग्रेस की मान्यता थी कि वह पराजित तो हो सकती है, पर उसकी हार भी शानदार ही होगी। यानी, भाजपा के मुकाबले उसे 80 या 90 सीटें मिल सकती हैं। दूसरे, कांग्रेस और उसके साथ हमदर्दी रखने वाले यह भी कह रहे थे कि पार्टी अपने क्षेत्रीय नेताओं पर भरोसा कर रही है। यानी, वह भाजपा की तरह आला कमान द्वारा संचालित मुहिम न चला कर उन चेहरों के नेतृत्व में काम कर रही है, जिन्हें जीत के बाद प्रदेश की कमान सौंपी जानी है। एक तरह से इसे नेहरू युग की विरासत को पुन: ज़िंदा करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा था, जब कांग्रेस अपने क्षेत्रीय नेताओं के आधार पर खड़ी रहती थी और आला कमान इन नेताओं के राजनीतिक प्रभाव के योगफल की नुमाइंदगी करता था। कांग्रेस को कहीं न कहीं यह भी यकीन था कि उसके पास एक नैरेटिव भी है, जिसे वह इन चुनाव में आजमाएगी। इस नैरेटिव के शीर्ष पर जातिगत जनगणना थी और मोदी-अडाणी के जोड़े से निकलने वाले ‘क्रोनी कैपिटलिज़म’ की आलोचना थी। 
कांग्रेस ने तेलंगाना चुनाव जीता और अच्छी तरह से जीता। लेकिन उसके साथ हिंदी पट्टी के राज्यों के न होने से इस जीत का कोई राष्ट्रीय महत्व नहीं बना। नतीजों ने विपक्षी एकता करने की उसकी दावेदारियों को भी झटका लगा दिया। अब वह क्षेत्रीय शक्तियों से ‘इंडिया’ गठबंधन के भीतर अपनी शर्तें नहीं मनवा पाएगी। कांग्रेस की ़खराब प्रदर्शन का एक परिणाम तो यह होगा कि वह उन पार्टियों को विपक्षी गठबंधन की तरफ आकर्षित नहीं कर पाएगी जो इस चुनाव को टकटकी लगा कर देख रही थीं। इसका एक उदाहरण बहुजन समाज पार्टी है। अगर कांग्रेस जीतती, तो मायावती एक बार सोच भी सकती थीं कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके उत्तर प्रदेश में भाजपा को सफलतापूर्वक चुनौती दी जा सकती है। लेकिन अब वे उस गठजोड़ में क्यों शामिल होना चाहेंगी, जिसकी 2024 में जीतने की संभावनाएं बहुत कम हैं। अगर वह छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश भी जीतती तो उसके पास मोदी को लोकसभा के चुनावों में इन प्रदेशों में 2019 का नतीजा दोहराने से रोकने का बेहतर मौका होता। चुनावी नतीजे संदेश देते दिखे कि पिछली बार इन प्रदेशों में जीत के बाद भी कांग्रेस भाजपा को लोकसभा में नहीं रोक पाई थी तो इस बार हार के बाद कैसे रोक पाएगी। दूसरे, कांग्रेस के लिए एक घातक संदेश यह भी गया कि यह पार्टी तो केवल दक्षिण भारत तक ही सीमित रह गई है। उत्तर भारत में उसके पास केवल हिमाचल प्रदेश जैसा छोटा सा राज्य ही रह गया है। वहां भी कांग्रेस का प्रभुत्व नेहरू के ज़माने जैसा नहीं है। आंध्र में उसे तेलगु देशम और वाई.एस.आर. रेड्डी कांग्रेस से निबटना है। तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टियां हैं और कांग्रेस केवल उनमें से एक की पिछलगू ही हो सकती है। इस तरह दक्षिण में भी वह केवल केरल, कर्नाटक और तेलंगाना की पार्टी ही है। 
सवाल यह है कि कांग्रेस अब क्या करेगी? क्या इस पराजय में उसके लिए कोई कारगर सब़क है? मुझे लगता है कि कांग्रेस का नेतृत्व (राहुल, प्रियंका, सोनिया और खड़गे) अगर चाहे तो इस नतीजों की रोशनी में अपने तेज़ी से पुराने होते जा रहे क्षेत्रीय नेतृत्व से पिंड छुड़ा सकती है। यह नेतृत्व राहुल गांधी के सुझावों को तिरस्कार से देखता है। यह एक ऐसी ह़क़ीकत है जिसके बारे में कभी ठीक से चर्चा नहीं हुई है। लेकिन इन चुनावों से इसकी मिसाल निकलती है। मसलन, मध्य प्रदेश का चुनाव पूरी तरह से कमल नाथ के हाथों में था और उन्होंने पूरे चुनाव में आलाकमान के किसी भी सुझाव को नहीं माना। यहां तक कि आलाकमान द्वारा भेजे गये पर्यवेक्षकों का जमकर तिरस्कार किया। ए.आई.सी.सी. ने पहले मुकुल वासनिक को भेजा, लेकिन कमल नाथ ने उन्हें कोई लिफ्ट नहीं दी। उन्होंने ़खुद आलाकमान से प्रार्थना करके अपने-आप को वहां से हटवा लिया। फिर जयप्रकाश अग्रवाल को भेजा गया। उनका भी यही हश्र हुआ। उसके बाद रणदीप सुरजेवाला भेजे गये। भोपाल में रह कर उनका काम केवल इतना था कि वे कमल नाथ के फैसलों पर मुहर लगाते रहते थे। कमलनाथ ने राहुल गांधी द्वारा भेजे गये चुनाव प्रबंधक सुनील कानोगुलू की सेवाएं लेने से भी इन्कार कर दिया। 
इसी तरह राहुल गांधी की बात अशोक गहलोत ने भी नहीं मानी। राहुल की समझ यह थी कि पुराने विधायकों के टिकट काट दिए जाने चाहिए, क्योंकि उनके खिलाफ ज़बरदस्त किस्म की स्थानीय एंटीइनकम्बेंसी है। पर गहलोत ने इसका उल्टा किया। वे उन अलोकप्रिय विधायकों के कृतज्ञ थे, क्योंकि उन्होंने सचिन पायलट की बगावत के खिलाफ उनका साथ देकर सरकार बचाई थी। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने भी चुनावी रणनीति के बारे में आलाकमान की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। आलाकमान चाहता था कि विभिन्न समुदायों की चुनावी गोलबंदी पर अलग-अलग ज़ोर दिया जाए। बघेल की समझ यह थी कि उनकी योजनाएं चुनाव जीतने के लिए काफी हैं। इसी तरह बघेल ने अपनी सरकार के खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी को छिपाने की भरपूर और सफल कोशिश भी की। 
कुल मिला कर कांग्रेस का सबक यह है कि स्थानीय त़ाकतों को बढ़ावा ज़रूर दिया जाना चाहिए लेकिन आलाकमान की कड़ी निगरानी और निर्देशन में। कायदे से हर राज्य में जातिगत जनगणना का एजेंडा कार्यकर्ताओं की ज़ुबान पर होना चाहिए था लेकिन कार्यकर्ताओं शायद ही इसका ज़िक्र किया हो। इसी तरह से मोदी-अडाणी संबंधों को भी चुनाव में मुद्दा नहीं बनाया गया। व्यावहारिक रूप से देखें तो इन चुनावों में आलाकमान अपने क्षेत्रीय नेताओं के अधीन बनी रही। 


लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।