मध्य प्रदेश में अब मुख्यमंत्री बनने की होड़

मध्य प्रदेश में भाजपा की बम्पर जीत के बाद मुख्यमंत्री बनने की होड़ में प्रदेश के दिग्गज जुट गए हैं। यह होड़ इसलिए कांटे की है, क्योंकि प्रदेश में चुनाव किसी नेता के चेहरे पर नहीं लड़ा गया। दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि प्रदेश में जीत भले ही स्थानीय नेतृत्व के बूते हो, लेकिन श्रेय मोदी और अमित शाह को ही मिले। मध्य प्रदेश में 2003 से भाजपा की सरकार है। इस दौरान उमा भारती और बाबूलाल गौर के छोटे कार्यकाल के बाद शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री की कमान ऐसे शुभ मुहूर्त में संभाली कि तमाम बाधाओं और व्यापम घोटाले जैसे आरोपों के बावजूद उनकी छवि धवल ही बनी रही। यही वजह है कि 18 साल मुख्यमंत्री रहने का मानक गढ़ने के बावजूद सत्ता विरोधी रुझान भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया। मोदी-शाह के अनुयायी भले ही यह दावा करें कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो न शिवराज थे और न ही लाडली बहना? तब इन दोनों प्रांतों में भाजपा कैसे जीत गई? यहां गौरतलब है कि इन दोनों प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें थीं, गोया, एंटीइनकम्बैसी सिर चढ़कर बोल रही थी। अतएव मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावा भले ही प्रहलाद पटेल, नरेंद्र सिंह तोमर, ज्योतिरादित्य सिंधिया, वीडी शर्मा, कैलाश विजयवर्गीय और महिला विधायक रीति पाठक जता रहे हों, लेकिन पहला हक शिवराज का ही बनता है। हकीकत यह भी कि उन्हीं ही के चेहरे पर इन सब नेताओं की लाज बच पाई है। 
शिवराज के बाद दूसरा बड़ा दावा केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल का है। प्रहलाद मूल भाजपाई होने के साथ प्रदेश और केंद्र में मंत्री रहने का लम्बा अनुभव रखते हैं। चूंकि मई 2024 में लोकसभा चुनाव भी हैं, इस लिहाज से मध्यप्रदेश में पिछड़े वर्ग के चेहरे के रूप में उनका नाम शिवराज के बाद दूसरे क्रम पर है। भाजपा शासित जितने भी राज्य हैं, उनमें अकेले शिवराज ही ओबीसी का चेहरा हैं। ऐसे में यदि शिवराज को केंद्र या संगठन की राजनीति में बड़ा पद मिलता है तो ओबीसी वोट बैंक संभालने के नजरिए से प्रहलाद मुख्यमंत्री का चेहरा हो सकते हैं। उनके साथ उमा भारती तो है ही, लोधी समाज का बड़ा वोट बैंक भी है। निर्विवाद होने के साथ उनकी छवि उज्जवल है। ऐसे में ओबीसी मुद्दे की राजनीति और वोट को केंद्र में रखकर देखा जाएगा तो शिवराज का वास्तविक विकल्प प्रहलाद पटेल ही हो सकते हैं।
पटेल के बाद केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल हैं। ग्वालियर-अंचल के कद्दावर नेता के रूप में उनकी पहचान है। पार्षद पद के चुनाव से लेकर विधायक और सांसद के चुनाव तो उन्होंने जीते ही हैं, संगठन में भी कई छोटे पदों से लेकर प्रदेशाध्यक्ष की कमान भी उन्होंने दक्षतापूर्वक संभाली है। केंद्र में नरेंद्र मोदी की टीम में पिछले साढ़े 9 साल से तोमर विभिन्न विभागों का दायित्व संभाले हुए हैं। हालांकि कृषि मंत्री रहते हुए, जो कथित किसान हितों से जुड़े तीन विधेयक लाए गए थे, उस परिप्रेक्ष्य में किसानों के जबरदस्त विरोध के चलते सरकार को तीनों विधेयक वापिस लेने पड़े थे। तोमर राजनीति के बड़े खिलाड़ी होने के बावजूद जीत के लिए क्षेत्र बदलने के आदी रहे हैं। दरअसल मतदाताओं के प्रति विश्वास की कमी के चलते, उन्हें क्षेत्र बदलने की मज़बूरी का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा उनके मुख्यमंत्री बनने में बाधा कोई बड़ा जातीय समूह उनके पक्ष में नहीं होना भी है। फिर भी मोदी-शाह की जोड़ी किसी को भी मुख्यमंत्री बनाने की ताकत रखती है। 
ज्योतिरादित्य सिंधिया भी मुख्यमंत्री बनने की कतार में हैं। हालांकि उनके पास विधायकों की संख्या ज्यादा नहीं है। उनके खाते में करीब 18 टिकट आए थे। जिनमें से करीब 8 हारे हैं। ग्वालियर-चंबल अंचल में भी उनके पांच विधायक जीत पाए हैं। इनके अलावा गोविंद सिंह राजपूत, तुलसी सिलावट, प्रभुराम चैधरी, मनोज पटेल और नीलांशु चतुर्वेदी ने जीत हासिल की है। गोयाए विधायक दल को मुख्यमंत्री चुनने का मौका मिलता है तो आलाकमान के इशारे के बिना उन पर सहमति नहीं बन पाएगी। हालांकि उनकी दावेदारी इसलिए जताई जा रही है, क्योंकि नरेंद्र मोदी जब ग्वालियर आए थे, तब उन्होंने सिंधिया को गुजरात का दादा बताया और अमित शाह उन्हें महाराजा कह चुके हैं। इसलिए अटकलें लगाई जा रही हैं कि सिंधिया मुख्यमंत्री बन सकते हैं। परंतु सिंधिया के साथ कोई जातीय बहुलता नहीं है, अतएव जातीय कार्ड मुख्यमंत्री बनने की योग्यता है तो सिंधिया पिछड़ सकते है।  
वी.डी. शर्मा, कैलाश विजयवर्गीय और राकेश सिंह के नाम भी मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल हैं। इनमें शर्मा और कैलाश को स्वर्ण समाज से होने का नुकसान उठाना पड़ सकता है, लेकिन संघ का दबाव बना तो इनमें से किसी एक को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। राकेश सिंह पिछड़े वर्ग में आने वाले कुर्मी समुदाय से हैं। वे केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र सिंह के निकटतम रिश्तेदार हैं। उनकी पैरवी भूपेंद्र कर रहे हैं। लेकिन वे पर्याप्त दबाव बना पाते हैं अथवा नहीं यह कहना मुश्किल है। चौंकाने वाले फैसले लेने में माहिर मोदी-शाह की जोड़ी यदि प्रदेश को महिला मुख्यमंत्री देने की मंशा बना लेती है तो सीधी से विधायक रीति पाठक की मजबूत दावेदारी है। उनसे प्रदेश का ब्राह्मण वोट तो साधेगा ही महिला मतदाता भी नाराज़ नहीं होंगी। हालांकि भोपाल से विधायक कृष्णा गौर और इंदौर-4 से विधायक मालिनी गौड़ के भी नाम चल रहे हैं। कृष्णा भोपाल की महापौर रहने के साथ पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर की पुत्रवधु हैं। वहीं मालिनी गौड़ इंदौर की महापौर रह चुकी हैं। गोया, दोनों ही महिलाएं बड़ा राजनीतिक अनुभव रखती हैं। 
लेकिन लोकसभा चुनाव होने से पहले यदि शिवराज को हटाया जाना आसान नहीं होगा। क्योंकि नए मुख्यमंत्री के नाम का चयन आसान नहीं है। इसलिए मुख्यमंत्री को एकाएक बनाया जाना मुश्किल होगा। दरसल शिवराज विनम्र और उदार चेहरा होने के साथ लाडली बेटियों और बहनों के अलावा अपनी जाति का बड़ा वोट बैंक भी साथ रखते हैं। इस समाज का वोट पूरे मध्य प्रदेश में फैला हुआ है। शिवराज के साथ जीत कर आए अधिकतम विधायकों का समर्थन है। प्रशासनिक व्यवस्था भी न केवल उनके अनुकूल है, बल्कि लोकसभा चुनाव के अनुरूप भी है। गोया, शिवराज को पटकनी देना मोदी-शाह की जोड़ी को महंगा सौदा भी साबित हो सकता है।