आधुनिकता के तावीज़

लोग कहते हैं रोये बिना तो मां भी बच्चे को दूध नहीं देती। इसलिए ऊंचे स्वर में रोना और चिल्लाना इस नगरी में जीने का ढंग बन गया है। वैसे पुराने लोग बताया करते थे कि नाटकीय ढंग से रोने चिल्लाने, और पांव पटक-पटक कर जीने में औरतों का कोई मुकाबला नहीं। लेकिन अब ज़माना बदल गया है, साहिब। नारी स्वातन्त्रय, सशक्तिकरण और पुरुष के साथ समान अधिकार का ज़माना आ गया है। आप कहते हैं नहीं आया। नारी तो आज भी योग्या होते हुये भोग्या है। ज़रा एक बरस में अपने देश में होने वाले दुष्कर्म और अपहरण के मामलों की संख्या तो देखो। यह घटने का नाम ही नहीं ले रही। बल्कि लगता है कि जब से पूरा देश आधुनिकता के नाम पर नशेड़ी हो गया है। इनकी संख्या और बढ़ गई है।
भौतिकता और रुपये के प्रति अन्ध श्रद्धा के प्रसार के साथ-साथ औरतों के किराये पर कोख देने के धंधे में और भी वृद्धि हो गई। बड़ी गाड़ियों और ऊंचे प्रासादों वाले महा-मानव अब अपनी बीवियों को प्रसव पीड़ा की कष्टजनक परिस्थितियों में से नहीं गुज़ारना चाहते। बस जैसे हर चीज़ किराये पर मिल जाती है, वैसे ही एक कोख भी किराये पर ले लो, और अपने वंश में मनचाही वृद्धि कर लो। अभी न्यायपालिका ने अपने देश ही नहीं पूरे विश्व में पुरषों और महिलाओं के बीच इस प्रसव प्रक्रिया से बचने की प्रक्रिया को अमानवीय करार दिया है, और दाम्पत्य जीवन को स्वाभाविक रूप में बच्चे पैदा करके भरा पूरा करने का इसरार किया है।  इस ़खतरे की ओर आगाह किया है कि औरतों और मर्दों में स्वाभाविक वात्सल्य, ममता और बापता की स्वाभाविक संवेदना ही खत्म हो जायेगी। बेशक ़खतरा बहुत बड़ा है, लेकिन उससे कहीं बड़ी है इक्कीसवीं सदी की यह चिल्लाहट कि हमें तेज़ी के साथ आधुनिक होना है। आधुनिक का अर्थ होता है क्या आत्म केन्द्रित होना? स्नेह सूत्रों से लेकर सम्बन्धों के अपनेपन की अकाल मृत्यु? ज्यों-ज्यों जो पुराना है उसके विरोध का रुदनगान बढ़ता जा रहा है, आधुनिक हो जाने की छटपटाहट बढ़ रही है। जिनका पहले निषेध था, उनका स्वीकार हो रहा है, और जो पहले स्वीकार और सर्वमान्य था, उसे युगच्युत, बासी और बदलाव की गति के साथ न चल पाने की अक्षमता मात्र कह कर त्यागा जा रहा है। पहले आंसू टपकते थे, अगर सैलाब बन जाते तो बड़े-बड़े राजपाट बह जाते। आज आंसू टपकते हैं, तो  वे त्याज्य हैं। कातर होने से बड़ी कमज़ोरी और कोई नहीं रही। इसीलिये तो ‘बी बोल्ड’ का नारा लगा कर आंसुओं और भावुकता का मर्सिया पढ़ा जाता है, और चिल्लाहट के साथ नैतिक मूल्यों को त्याग देने को युग-सम्मत माना जाने लगा है।
कथनी और करनी में अन्तर न हो, शास्त्र, पुराण और बड़े बूढ़े कभी हमें सिखाया कहते थे। आज तो जो सफाई से झूठ न बोल सके, वह फिसड्डी है। जो कहता कुछ है और करता कुछ है, वही समय के रुख के साथ चल रहा है बन्धु! जो अपने वचन पर प्रतिबद्ध होने का मन्सूबा दिखाये उसे सत्यवादी हरिश्चन्द्र के युग का कह कर कचरे के डिब्बे में डाल दो।
आपको पता है न आजकल प्रेम और रूमानी हो जाने का युग टल गया है। सात जन्म साथ निभाने की बात का क्या कहें, आजकल उम्र भर का साथ निभाने तक की बात कोई नहीं कहता। जी नहीं, गलत कहा अपने। उम्र भर का साथ निभता है, लेकिन अधिक से अधिक पैसा अपनी तिजोरी में इकट्ठा करने के साथ। बादलों, मौसम और रोमांस का रोमांच न जाने कब का खत्म हो गया। आजकल रोमांस होता है, विकास-विकास चिल्लाने के बावजूद देश को टूटे गड्ढों, अध-बने पुलों और लम्बित परियोजनाओं के साथ।  ऐसा करेंगे तभी तो चन्द धन कुबेर अपनी थैलियों से बड़े-बड़े बैंक लॉकर हो जाने की यात्रा पर निकलेंगे। उधर देश का नौजवान खण्डित सपने की बिसात सजा अपंगता को अपनाता इसे हतभाग्य कह देता है।
लेकिन इस सब की परवाह किसे है? इस विसंगति की मिज़ाजपुर्सी से लेकर मातमपुर्सी तक क्रांति आह्वान की चिल्लाहट करेगी क्या। श्मशानघाट में वंचित प्रवंचित मुर्दों की संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ेगी, त्यों-त्यों बदलाव की यह चिल्लाहट बढ़ेगी। नई शिक्षा नीति के लिये चिल्लाओगे, तो तुम्हारे शिक्षा परिसर खाली और डिग्रियां फर्जी हो जाएंगी। लोग आइलेट अकादमियों के बाहर भीड़ जमायेंगे, और अपेक्षित बैंड पूरे किये बिना ही विदेशों में तस्कर हो जाने का प्रयास करेंगे। वहां से बैरंग लौट आये, या न जा सके, तो यहां नशे के माफिया तस्कर हैं ही उनकी खोज खबर लेने के लिये। अपनी गोद में नहीं पलना चाहते तो दूसरी ओर फर्जीवाड़े की दुनिया खुली हुई है, तुम्हारे सामने। इसमें नकली दवाओं से लेकर नकली मिठाइयों तक की दुनिया जमी है तुम्हारे सामने। शार्ट कट संस्कृति से पोषित और उत्तेजित लोग कोई भी राह पकड़ सकते हैं। तुम्हें बता सकते हैं बन्धु, सीधी उंगली से घी नहीं निकलता। हां ज़माने और समय की चाल के साथ उंगली टेढ़ी करो, तो तुम्हारी चिल्लाहट नेपथ्य से भी उभरती रहेगी। हम विकसित हो गये, हम आधुनिक हो गये बन्धु, हमें अपनी तरह बन्धुआ न समझना।