रंग बदलने का महिमा-मण्डन

इक्कीसवीं सदी के एक चौथाई गुज़रने के साथ कुछ प्राणियों, कुछ सूत्रों और कुछ वस्तुओं का अर्थ बदल गया है। क्योंकि यह बदलाव की सदी है, इसलिये उसका स्वागत जो कर सके वह सफल कहलाता है, जो न कर सके वह फिसड्डी और पुराने मूल्यों से चिपका कहलाता है। दकियानूस या डार से बिछुड़ा कह कर नकार दिया जाता है। आप लोग डार से बिछुड़ने या अकेला चलने को महत्व दे दीजिये, लेकिन सफल वही जो कतार से बिछड़ा नहीं, कतार तोड़ कर आगे बढ़ा, या जिसने साबित कर दिया कि सफलता की कतार उससे शुरू हो कर उस पर ही खत्म हो जाती है।
आजकल अध्यवसाय, निरन्तर मेहनत और मौन साधना का कोई अर्थ नहीं रह गया। सफल वही है जो हथेली पर सरसों उगाने का चमत्कार दिखा दे। शार्टकट को नये युग की मूल संस्कृति साबित कर दे। इसके साथ-साथ प्राणियों के प्रति हमारा सौन्दर्य बोध भी बदल गया है। पहले नाचने में मोर की उपमा दी जाती थी, आज उस दूल्हे की जो अपनी बारात के सामने स्वयं ही नाच सके। पहले तोते का बहुरंग सब को पसन्द आता था, आज वह वाचाल जो गंगा गये तो गंगा राम और जमना गये तो जमना दास हो जाये। पहले कोयल का मधुर स्वर आपके जीवन की अमराइयों में गूंजता था, आजकल अपना प्रशस्ति गायन गूंजता है। पहले पपीहे की ‘पी कहां’ का आर्तनाद शोषितों और प्रताड़ितों की दयनीय अवस्था के साथ जुड़ कर क्रांति बन जाता था। आज अपने अभिनंदन का स्वागत भाषण ही पिया की पुकार बन गया, और उसकी तलाश में की गयी प्रायोजित गोष्ठी ही उसका आर्त्तनाद बन गई। युगानुसार कुछ सूत्र वाक्य भी बदले हैं। पहले बड़े बूढ़े बताया करते थे, दुरंगी छोड़ कर एक रंग हो जा, आज जो अपना हित साधने के लिए पल-पल रंग न बदल सके, उसे जीने का हक कहां? दूसरे को अपने बाज़ारू व्यंग्य से छीलो, और अपने गिरगिट हो सकने के आदर्श बताओ। हम नहीं कहेंगे, आदर्श और नैतिक मूल्य आज के जीवन से गायब हो गये हैं लेकिन उनका पालन करना वह उपदेश है जो हम दूसरों को देते हैं। वह भी तब जब अपने आप को शीर्ष स्थान देने के बाद आदर्शों का त्याग, और नैतिकता की शव-यात्रा निकाल ले। जब अनुभव होता है कि हम माऊंट एवरेस्ट हो गये, तो दूसरों के लिए आप पुराने मूल्यों की घुट्टी बांट सकते हैं।
आज कदम-कदम पर इन नये सायों के दर्शन होते हैं। बूढ़े लोग इस परिवर्तन पर खेद से सिर धुनते हैं, और उभरते लोग हर्ष से इन पर डिस्को नाचते हैं, और अपने आपको नया खून, यौवन का बल कह देते हैं।
इस युवा सत्य का स्वागत होना ही चाहिये, बन्धु, जैसे उन चिरजीवी नेताओं का जो परिवारवाद को देश की राजनीति का कैन्सर बताते हैं, लेकिन अपने नाती-पाती को इसका अपवाद क्योंकि इस बदलाव और क्रांति का झण्डा लेकर कोई तो आगे आयेगा। उनके अपनों से बेहतर कोई कहां हो सकता है? आपने सुना ही होगा, वंचित का बेटा वंचित, गरीब का बेटा मुफलिस और मंत्री का बेटा मंत्री। वैसे इसके लिये अब चिल्लाने की ज़रूरत नहीं। यह तो स्थापित मूल्य हो गये, बन्धु! जैसे किसी युवा तुर्क ने अगर कहा कि हमारे घर की तीसरी पीढ़ी कुर्सी पर आयी, क्योंकि शासन करना हमारे परिवार की रगों में है, तो उसी प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंचित ने शोषित होने को अकाट्य सत्य के रूप में स्वीकार किया, और अपनी टूटी झोंपड़ी या नदारद फुटपाथ को अपना जीने का आसरा मान गले से लगाया। आज जो नहीं है, उसे ही प्रिय मानना होगा। अगर ऊपर से आये आंकड़े कहते हैं कि देश में गरीबी खत्म हो गई, तो इसे मान रोज़गार दिलाऊ दफ्तरों के बाहर लगी कतार को छोड़ रियायती संस्कृति के सामने भीड़ लगाओ। अगर लालफीताशाह बताये कि हमने दफ्तरी कामों को सुलभ करके सुविधा केन्द्र बना दिया, तो इसे असुविधा केन्द्र न मान यहां तक पहुंच का कोई दलाल पटाओ।
घोषणा हो गई है कि बाज़ारों में महंगाई खत्म हो गई है, इसलिए अब भी महीना गुज़रते हुए अपनी फटी जेब या बाज़ार से लौटे खाली थैले का मातम न मनाओ बल्कि अनुकम्पा संस्कृति को अपना मुक्तिदाता स्वीकार करो।
रंग बदल कर समय के घोड़े पर स्वीकार हो जाना आज के नये समय की अपेक्षा है, और चेतावनी भी। ऐसा समय आया है, कि अब क्रांति की मशाल नहीं, पहले किसी उपलब्ध का जयघोष या ज़िन्दाबाद में उठा हुआ बाजू बनो, फिर उसे ही विस्थापित करके खुद अपने जयघोष को अपना समयसिद्ध तथ्य बनाओ। आपका कोई यश नहीं गाता तो अपना महिमा मण्डन स्वयं करने का तरीका बन्धु पुराना पड़ने लगा। अब तरीका यह है कि पुराना इतिहास नकारो। पहली उपलब्धियों को खोखला बताओ। नहीं जानते साहित्य के महानायकों को दलित चेतना विरोधी और रूढ़िग्रस्त बताने से ही शोषण का पक्ष लिया जा सकता है। नकार के चमत्कार से बड़ा कोई और चमत्कार नहीं हो सकता। किसी दूसरे के नक्कारखाने में अपनी तूती बजाओगे तो कोई नहीं सुनेगा। क्यों न अपनी तूती की ध्वनि को ही नक्कारखाना बना दो, और सफल व्यक्तियों की सूची को पछाड़ अपनी सूचियों का प्रसारण करो, जिसके शीर्ष में आपका नाम रहे। हां, इसके बाद आने वाले नाम आप अपने मिज़ाज या समय अनुसार बदलते रह सकते हो। रंग बदलने का ज़माना है न!
 

#रंग बदलने का महिमा-मण्डन