विश्व में तेज़ी से घट रही वन्य जीवों की संख्या

प्रदूषिण वातावरण और प्रकृति के बदलते मिजाज के कारण दुनियाभर में जीव-जंतुओं तथा वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। वनस्पतियां तथा जीव-जंतुओं की तमाम प्रजातियां मिलकर ही अत्यावश्यक पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करते हैं और वन्य जीव चूंकि हमारे मित्र भी हैं, इसलिए उनका संरक्षण किया जाना बेहद ज़रूरी है लेकिन दुनिया जिस तेजी से आगे बढ़ रही है, उतनी ही तेजी से दुनियाभर में वन्यजीवों की संख्या घट रही है। कुछ समय पूर्व विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की ‘लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट’ में यह चौंकाने वाला चिंताजनक खुलासा भी हुआ था कि वैसे तो पूरी दुनिया में वन्यजीवों की आबादी तेज़ी से घट रही है लेकिन 1970 के बाद से लैटिन अमरीका तथा कैरेबियन क्षेत्रों में वन्यजीव आबादी में करीब 94 प्रतिशत तक की गिरावट आई है जबकि अफ्रीका में 66 और एशिया में 55 प्रतिशत गिरावट हुई है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के भीतर तो वन्यजीव आबादी चौंका देने वाली दर से घट रही है। दुनियाभर में वन्य जीवों की अनेक प्रजातियां जिस प्रकार धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं, उसी के मद्देनज़र संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 20 दिसम्बर 2013 को अपने 68वें सत्र में 3 मार्च के दिन को ‘विश्व वन्यजीव दिवस’ (वर्ल्ड वाइल्डलाइफ डे) के रूप में अपनाए जाने की घोषणा की थी। दुनिया के जंगली जीवों और वनस्पतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा विश्व वन्यजीव दिवस के आयोजन का निर्णय लिया गया था और तभी से प्रतिवर्ष 3 मार्च को दुनियाभर में यह दिवस मनाया जाता है।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट में वन्यजीवों की आबादी में गिरावट के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए बताया गया था कि वनों की कटाई, आक्रामक नस्लों का उभार, प्रदूषण, जलवायु संकट तथा विभिन्न बीमारियां इसके मुख्य कारण हैं। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के अनुसार हम मानव-प्रेरित जलवायु संकट और जैव विविधता के नुकसान की दोहरी आपात स्थिति का सामना कर रहे हैं, जो वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए खतरा साबित हो सकती है। दरअसल बड़ पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, औद्योगीकीकरण, शहरीकरण, शिकार, वृक्षों की कटाई इत्यादि कार्यों से धरती में बड़े बदलाव हो रहे हैं। ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर’ (आईयूसीएन) की रिपोर्ट में भी बताया जा चुका है कि दुनियाभर में वन्यजीवों तथा वनस्पतियों की हजारों प्रजातियां संकट में हैं और आने वाले समय में इनकी धरती से गायब होने की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो सकती है। आईयूसीएन ने विश्वभर में करीब 1.35 लाख प्रजातियों का आकलन करने के बाद इनमें से 37400 प्रजातियों को विलुप्त होने के कगार पर मानकर ‘रेड लिस्ट’ में शामिल किया था। आईयूसीएन की रिपोर्ट के मुताबिक 900 जैव प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और 37 हजार से ज्यादा प्रजातियों पर विलुप्त होने का संकट मंडरा रहा है।
जैव विविधता पर संकट यदि इसी प्रकार मंडराता रहा तो विश्वभर में 10 लाख से अधिक प्रजातियां खतरे की श्रेणी में या विलुप्ति के कगार पर होंगी। दुनिया के सबसे वजनदार पक्षी के रूप में जाने जाते रहे ‘एलिफेंट बर्ड’ का अस्तित्व अब धरती से खत्म हो चुका है। इसी प्रकार एशिया तथा यूरोप में मिलने वाले रोएंदार गैंडे की प्रजाति भी अब इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन चुकी है। समुद्र में 70 वर्ष तक का जीवन चक्र पूरा करने वाला डूगोंग प्रजाति का ‘स्टेलर समुद्री गाय’ नामक जीव भी विलुप्त हो चुका है। द्वीपीय देशों में पाए जाने वाले डोडो पक्षी का अस्तित्व मिटने के बाद अब कुछ खास प्रजाति के पौधों के अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है। पश्चिमी तथा मध्य अफ्रीका के भारी बारिश वाले जंगलों में रहने वाले जंगली अफ्रीकी हाथी, अफ्रीकी जंगलों में रहने वाले ब्लैक राइनो, पूर्वी रूस के जंगलों में पाए जाने वाले अमुर तेंदुआ, इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप पर पाए जाने वाले सुंदा बाघ जैसे विशाल जानवरों के अस्तित्व पर भी अब संकट मंडरा रहा है। सुंदा बाघों की संख्या 400 से भी कम तथा अमुर तेंदुओं की संख्या करीब 80 ही रह गई है।
एक अन्य शोध में चौंकाने वाला यह तथ्य भी सामने आया है कि 97 प्रतिशत धरती की पारिस्थितिकी सेहत बेहद खराब हो चुकी है और मानवीय हस्तक्षेप से दूर रहने के कारण तथा वहां के स्थानीय जनजातीय लोगों की भूमिका से केवल तीन प्रतिशत हिस्सा ही पारिस्थितिक रूप से सुरक्षित रह गया है। ‘फ्रंटियर्स इन फॉरेस्ट एंड ग्लोबल चेंज’ नामक एक पर्यावरण विज्ञान जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं का कहना है कि मानवीय हस्तक्षेप के कारण पृथ्वी के जैव विविधता वाले क्षेत्रों में इतनी तबाही मच चुकी है कि धरती का केवल तीन प्रतिशत हिस्सा ही इससे पूरी तरह बचा रह पाया है। ब्रिटेन स्थित स्मिथसोनियन एनवायरनमेंटल रिसर्च सेंटर के शोधकर्ता किम्बली कोमात्सू के मुताबिक विश्व के केवल 2.7 प्रतिशत हिस्से में ही अप्रभावित जैव विविधता बची है, जो बिल्कुल वैसी ही है, जैसी 500 वर्ष पूर्व हुआ करती थी। इन क्षेत्रों में 500 वर्ष पूर्व जो पेड़-पौधे तथा जीव पाए जाते थे, वे प्रजातियां आज भी मौजूद हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार जो तीन प्रतिशत अप्रभावित जैव विविधता वाला क्षेत्र बचा है, वह भी जिन-जिन देशों की सीमाओं के अंतर्गत आता है, उनमें से केवल 11 प्रतिशत क्षेत्र को ही संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है और संबंधित सरकारें इस ओर ध्यान नहीं दे रही। अप्रभावित जैव विविधता वाले क्षेत्रों में से अधिकांश उत्तरी गोलार्ध में हैं, जहां मानव उपस्थिति कम रही है लेकिन अन्य क्षेत्रों के मुकाबले ये जैव विविधता से समृद्ध नहीं थे।
धरती पर वन्यजीवों के अस्तित्व पर मंडराते संकट को लेकर शोधकर्ताओं का कहना है कि अधिकांश प्रजातियां मानव शिकार के कारण लुप्त हुई हैं जबकि कुछ अन्य कारणों में दूसरे जानवरों का हमला तथा बीमारी शामिल हैं। हालांकि कुछ सैटेलाइट तस्वीरों के आधार पर शोधकर्ताओं का मानना है कि धरती के ऐसे 20 प्रतिशत हिस्से की जैव विविधता को बचाया जा सकता है, जहां अभी पांच या उससे कम बड़े जानवर ही गायब हुए हैं लेकिन इसके लिए मानव प्रभाव से अछूते क्षेत्रों में कुछ प्रजातियों की बसावट बढ़ानी होगी, जिससे पारिस्थितिक तंत्र को लाभ होगा। जलवायु परिवर्तन के कारण बड़ रही गर्मी से भी वन्यजीवों की आबादी बुरी तरह प्रभावित हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण हाल के समय में विलुप्त हुई प्रजातियों, उनके इधर-उधर जाने तथा पृथ्वी पर वर्तमान में मौजूद विभिन्न प्रजातियों के आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद अमरीका की यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना के शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि अगले 50 वर्षों में पौधों तथा जानवरों की प्रत्येक तीन में से एक यानी एक तिहाई प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। शोधकर्ताओं ने दुनियाभर के 581 स्थानों से 538 प्रजातियों पर निरन्तर 10 वर्षों तक अध्ययन करने के बाद पाया कि अधिकांश स्थानों पर 538 प्रजातियों में से 44 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। इस अध्ययन में विभिन्न मौसमी कारकों का अध्ययन करने के बाद ही शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि गर्मी ऐसे ही बढ़ती रही तो 2070 तक दुनियाभर में कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ क्राइम रिपोर्ट के मुताबिक वन्यजीवों की तस्करी तो दुनिया के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में सर्वाधिक तस्करी स्तनधारी जीवों की होती है, उसके बाद रेंगने वाले जीवों की 21.3, पक्षियों की 8.5 तथा पेड़-पौधों की 14.3 प्रतिशत तस्करी होती है। जहां तक समुद्री प्रजातियों पर मंडराते खतरों की बात है तो समुद्री प्रजातियों पर मानव प्रभावों का मूल्यांकन करने वाले एक शोध में पता चला है कि इंसानी गतिविधियों के कारण करीब 57 प्रतिशत समुद्री प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं। आईयूसीएन की रेड लिस्ट की 1271 खतरे वाली समुद्री प्रजातियों के आंकड़ों के आधार पर शोधकर्ताओं ने 2003 से 2013 तक मानवीय गतिविधियों के कारण खतरे में आई प्रजातियों के आकलन के जरिये यह निष्कर्ष निकाला। शोधकर्ताओं का मानना है कि समुद्री जैव विविधता पर लोगों का प्रभाव बढ़ रहा है और मछली पकड़ने का दबाव, भूमि तथा महासागर में अम्लीकरण का बढ़ना इत्यादि ऐसे कारण हैं, जिससे समुद्री प्रजातियों पर विलुप्ति का संकट मंडरा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जैव विविधता के क्षरण का सीधा असर भविष्य में पैदावार, खाद्य उत्पादन इत्यादि पर पड़ेगा, जिससे पूरा इको सिस्टम बुरी तरह से प्रभावित होगा। बहरहाल, पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि जिस प्रकार जंगलों में अतिक्रमण, कटान, बढ़ते प्रदूषण तथा पर्यटन के नाम पर गैर ज़रूरी गतिविधियों के कारण पूरी दुनिया में जैव विविधता पर संकट मंडरा रहा है, वह पर्यावरण संतुलन बिगड़ने का साफ संकेत है और यदि इसमें सुधार के लिए शीघ्र ठोस कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले समय में बड़े नुकसान के तौर पर इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। 

मो-9416740584