कैमिस्ट्री न सही, पर मैथमेटिक्स से परेशान हो सकती है भाजपा

पिछले सप्ताह मैंने भाजपा विरोधी पार्टियों (इंडिया गठबंधन) द्वारा किये जा रहे सीटों के तालमेल पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि ये दल भाजपा के उम्मीदवारों के मुकाबले एक संयुक्त प्रत्याशी खड़ा करके चुनावी अंकगणित तो सुनिश्चित कर पा रहे हैं, लेकिन इन्होंने उस हवा को बनाने का काम नहीं किया है जो इस तरह के अंकगणित को चुनावी जीत की तरफ ले जाती है। इसी हवा को माहौल बनाना या चुनावी रसायनशास्त्र (केमिस्ट्री) हासिल करना कहते हैं। विपक्ष की यह कमी भाजपा और नरेंद्र मोदी की तीसरी लगातार जीत की संभावनाओं को बढ़ा देती है। लेकिन इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है। इसी के मुताबिक मैं इस सप्ताह भाजपा या एनडीए की चुनावी समस्याओं की चर्चा करूंगा। मेरा विचार है कि मीडिया भाजपा के पक्ष में जो भी बड़ी-बड़ी बातें करता रहे और मोदी की तरफ से 400 से पार का नारा दिया जाता रहे— संसदीय चुनाव जीतना उसके लिए 2014 और 2019 जितना आसान नहीं होगा। 
परिस्थिति जो भी हो, यह पहली बार हो रहा है कि विपक्षी एकता का सूचकांक कुछ न कुछ दिखाई दे रहा है। विपक्षी एकता कमज़ोर भले हो, पर वह आखिरकार एक ज़मीनी तथ्य है। ध्यान रहे 2019 में उत्तर प्रदेश के मैदान में भाजपा को सपा-बसपा गठबंधन का सामना करना पड़ा था। उस समय भी कोई ‘कैमिस्ट्री’ उसके साथ नहीं थी, इसलिए सामाजिक रूप से शक्तिशाली होते हुए भी वह मतदाताओं के सामने मोदी का विकल्प बन कर नहीं उभर पाया था। मोदी का हवा तेज़ थी, इसलिए उत्तर प्रदेश में भाजपा के वोटों में ़खासा इजाफा हो गया था। वह यह उस ‘विफल’ अंकगणित का ही परिणाम था कि अपनी संभावनाओं पर खरा न उतर पाने के बावजूद उस गठजोड़ ने एनडीए से दस सीटें छीन ली थीं। ज़ाहिर है कि भाजपा भी जानती है कि बिना कैमिस्ट्री की मैथमेटिक्स भी उसे परेशानी में डाल सकती है।  
भाजपा दो बड़े प्रदेशों में विपक्ष की मज़बूत अंकगणित का सामना कर रही है। ये हैं बिहार और महाराष्ट्र। बिहार का महागठबंधन और महाराष्ट्र की महा विकास अघाड़ी दरअसल ‘इंडिया’ गठबंधन के पहले से चल रहे हैं। उनके कदम अपने-अपने प्रदेश की ज़मीनों में जमे हुए हैं। इन राज्यों में मिला कर 88 सीटें हैं और यहां भाजपा ने पिछली बार तकरीबन 100 प्रतिशत नतीजा निकाला था। इस बार स्वयं भाजपा के खाते में ये दोनों प्रदेश उसकी कमज़ोर कड़ियां हैं। इनकी मुरम्मत करने के लिए भाजपा के रणनीतिकारों ने पहले जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा को महागठबंधन से छीना। हाल ही में नितीश कुमार के पालाबदल से एक बारगी ऐसा लगा था कि शायद अब भाजपा विपक्षी तालमेल से आगे निकल जाएगी। लेकिन ‘आज तक’ पर दिखाये गये ‘देश का मूड’ सर्वेक्षण से ऐसा नहीं लगता। इसी तरह ‘ए.बी.पी.’ पर संदीप चौधरी द्वारा कराये गये सर्वेक्षण से भी लगता है कि अभी भी महागठबंधन भाजपा को करारी टक्कर देने की स्थिति में लग रहा है। तेजस्वी यादव की जन-विश्वास यात्रा को वहां ज़बरदस्त सफलता प्राप्त हुई है। करीब 3500 किमी. चलने के बाद जब उन्होंने पटना के गांधी मैदान में रैली की, तो वहां जिस तरह का विशाल नज़ारा बना, वह कह रहा था कि बिहार में भाजपा और एनडीए को नुकसान हो सकता है। इसके अलावा एक और पहलू है। भाजपा के लिए बिहार में टिकटों की हिस्सेदारी का फार्मूला निकालना भी मुश्किल हो रहा है। नितीश को पिछली बार से कम सीटों पर राज़ी न कर पाने की सूरत में भाजपा के लिए छोटे दलों की मांग पूरी कर पाना कठिन हो रहा है। नितीश ऊपर से कितनी भी समर्पणकारी मुद्रा अपनाते रहें, लेकिन उन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले मंत्रिमंडल विस्तार करने के दवाब में आने से इंकार कर दिया है। कुशवाहा, मांझी और लोक जन शक्ति पार्टी के दोनों घटकों में बेचैनी बढ़ती जा रही है। 
महाराष्ट्र की स्थिति भी लगभग ऐसी ही है। वहां शिव सेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस को तोड़ देने के बावजूद भाजपा अभी तक जिताऊ स्थिति में नहीं आ पाई है। ये टूटी हुई पार्टियां लोकसभा चुनाव में कैसा प्रदर्शन करेंगी, इसे नापने का कोई बैरोमीटर नहीं है। समझा जाता है कि उद्धव ठाकरे को अभी भी शिव सेना के जनाधार की हमदर्दी प्राप्त है। इसी तरह से शरद पवार की एनसीपी के कदम अजीत पवार के चल जाने के बावजूद अपने पारम्परिक इलाकों में जमे हुए हैं। वहां भी भाजपा अपने-आपको पीछे पाती है। बिहार की ही तरह वहां भी टिकटों का बंटवारा पेचीदा है। 
एक तीसरा राज्य और है, जहां भाजपा ने 100 प्रतिशत सफलता प्राप्त की थी। यह है कर्नाटक। उस कामयाबी को दोहराने के लिए भाजपा ने जनता दल (सेकुलर) के साथ गठजोड़ करके लिंगायत और वोक्कलिगा वोटों को अपने पक्ष में जोड़ने की कोशिश की है। लेकिन एक बड़ा सवालिया निशान वहां भी है। कांग्रेस वहां सिद्धरमैया और डी.के. शिवकुमार के नेतृत्व में ‘अहिंदा’ की रणनीति पर चल रही है। इसी के ज़रिये उसने विधानसभा चुनाव जीता था। अल्पसंख्यकों और पिछड़े वोटों को एकजुट करने और उसमें कुछ-कुछ दूसरे समुदायों के वोटों को मिला कर लिंगायतों और वोक्कलिगाओं के प्रभुत्व को निष्प्रभावी करने की यह रणनीति दिवंगत देवराज अर्स ने तैयार की थी। विधानसभा चुनाव में कांगे्रस ने ओल्ड मैसूर में वोक्कलिगाओं के और बाकी क्षेत्रों में लिंगायतों के वोट अच्छी खासी संख्या में प्राप्त किये थे। अगर लोकसभा में उस गोलबंदी को वह फिर से दोहरा सकती है, तो इस बार भाजपा का स्ट्राइक रेट कम हो सकता है। 
चौथा राज्य पश्चिम बंगाल है, जहां भाजपा अपनी सीटें घटने के अंदेशे के सामना कर रही है। पिछली बार उसने 18 सीटें जीत कर सभी को चौंका दिया था। तृणमूल कांग्रेस अपने खिलाफ चल रही एंटीइनकम्बेंसी की गम्भीरता को समझ नहीं पाई थी। लेकिन इस बार ममता बनर्जी वहां चौकन्नी हैं। संदेशखाली पर भाजपा के आक्रामक रवैये और टीएमसी की गलतियों के बावजूद वे लोकसभा में भाजपा की पिछला प्रदर्शन नहीं दोहराने देंगी। भाजपा ने चुनाव से पहले सी.ए.ए. लागू करने की घोषणा करके मतुआ वोटरों को एक बार फिर अपनी ओर खींचने की कोशिश की है। बंगाल का यह संघर्ष बहुत ज़बरदस्त होने वाला है।  भाजपा को आसानी से बहुमत मिलेगा या नहीं, यह बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बंगाल बताने वाला है। भाजपा रणनीतिक प्रबंधन में उस्ताद है। लेकिन इन चारों राज्यों में इस बार उसकी कड़ी परीक्षा होने वाली है। यहां विपक्ष के पास गणित भी है और कुछ-कुछ रसायनशास्त्र भी है। इसीलिए यहां मोदी की लोकप्रियता और भाजपा की संगठन-संसाधन शक्ति दांव पर लगी है। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।