लोकसभा चुनाव : 2024 बेरोज़गारी और बढ़ती महंगाई—लोगों के लिए बड़े चुनावी मुद्दे

अच्छे बावर्ची हांडी के एक चावल की जांच करके ही पता लगा लेते हैं कि सारे चावल पूरी तरह से बन गए हैं या नहीं। लेकिन, चुनाव की हांडी साधारण तौर पर बन रहे खाने के मुकाबले कुछ जटिल होती है। उसकी हालत का पता लगाने के लिए एक से ज्यादा चावलों की जांच करनी पड़ती है। हाल ही में लोकतांत्रिक राजनीति का अध्ययन करने वाली विख्यात संस्था ‘लोकनीति-सी.एस.डी.एस.) ने एक अखिल भारतीय सर्वेक्षण किया जो तीन किश्तों में ‘द हिंदू’ जैसे प्रतिष्ठित दैनिक मेें प्रकाशित किया गया। इस सर्वेक्षण ने जिन मुख्य-मुख्य चावलों की जांच की, वे इस प्रकार थे— कितने वोटर चाहते हैं कि मौजूदा मोदी सरकार को लगातार तीसरा मौका दिया जाना चाहिए। ज़ाहिर है कि इसी सवाल में यह भी निहित है कि कितने वोटर इस सरकार को एक और मौका देने के पक्ष में नहीं हैं और पक्ष-विपक्ष के वोटर जो भी कुछ चाहते हैं वह क्यों चाहते हैं, यानी उनकी दलीलें क्या हैं। जांच किया जाने वाला दूसरा चावल यह है कि 2024 के चुनाव में कौन सा मुद्दा हावी रहेगा। लोकनीति के प्रश्नकर्ताओं ने अपने सैम्पल (यह नमूना दस हज़ार से ज्यादा का है) में शामिल वोटरों के सामने आठ विकल्प रखे। यानी, उन्हें बेरोज़गारी, महंगाई, विकास, भ्रष्टाचार, राममंदिर, हिंदुत्व, अंतर्राष्ट्रीय छवि और आरक्षण जैसे मुद्दों में से अपना चुनाव करना था। यह सर्वेक्षण जिस तीसरे चावल की जांच करता है, वह पूछता है कि वोटर मोदी सरकार के कामकाज से संतुष्ट है या असंतुष्ट? 
आइए, अब चुनावी हांडी के पहले चावल पर ़गौर करें। ‘क्या मोदी सरकार तीसरी बार चुने जाने ़काबिल है?’— इस प्रश्न के उत्तरों का विश्लेषण करते हुए विख्यात राजनीति शास्त्री सुहास पलशीकर ने कुछ निष्कर्ष निकाले हैं। 44 प्रतिशत लोग यह चाहते हैं कि मोदी को एक मौका और मिलना चाहिए। लेकिन, 39 प्रतिशत चाहते हैं कि मोदी को इस बार हटा देना चाहिए। 2019 में इस बार से ज्यादा यानी 47 प्रतिशत लोग मोदी को दूसरा मौका देना चाहते थे और केवल 35 प्रतिशत ही उन्हें वोट देने के खिलाफ थे। इस बार यह आठ प्रतिशत का अंतर घट कर पांच प्रतिशत ही रह गया है। पलशीकर के मुताबिक मोदी को जिताने के पक्ष में ज्यादा लोग हैं, लेकिन जिताने और हराने वालों के बीच का अंतर घटना भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। अगर थोड़े से ही लोग इधर से उधर हुए, तो भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है।
खास बात यह है कि मोदी को जिताने के पक्ष में खड़े लोगों से जब पूछा गया कि समर्थन करने के पीछे उनके कारण क्या हैं— तो वे कोई ठोस जवाब देते नहीं दिखते। उनमें से ज्यादातर (42 प्रतिशत) कहते हैं कि सरकार ने अच्छा काम किया है, पर वह अच्छा काम क्या है, वे यह नहीं बताते। 18 प्रतिशत लाभार्थी योजनाओं के कारण मोदी के पक्ष में हैं, केवल दस प्रतिशत एक नेता के रूप में मोदी की महानता के कायल हैं, आठ प्रतिशत राममंदिर के कारण सरकार की वापिसी चाहते है, छह प्रतिशत अनुच्छेद 370 हटाने के कारण, चार प्रतिशत भारत की अच्छी अंतर्राष्ट्रीय छवि के कारण और चार प्रतिशत हिंदू हितों की रक्षा करने के लिए मोदी की वापसी चाहते हैं। मोदी को हटाने के पक्षधर वोटर अपने कारणों को लेकर एकदम स्पष्ट और ठोस उत्तर देते हैं। उनमें से 32 प्रतिशत बढ़ती हुई बेरोज़गारी के कारण, 20 प्रतिशत महंगाई के कारण, 11 प्रतिशत घटती आमदनी के कारण, सात प्रतिशत भ्रष्टाचार और घोटालों के कारण, छह प्रतिशत कुशासन के कारण, पांच प्रतिशत बड़े पूंजीपतियों का साथ देने के कारण, पांच प्रतिशत साम्प्रदायिक तनाव के कारण, तीन प्रतिशत आर्थिक वृद्धि में कमी के कारण और दो प्रतिशत किसानों की समस्याओं के कारण सरकार के विरोध में हैं। 
जहां तक चुनावी मुद्दों का सवाल है इस सर्वेक्षण से कुछ चौंकाने वाले नतीजे सामने आए हैं। 27 प्रतिशत वोटर मानते हैं कि बेरोज़गारी चुनाव पर हावी रहेगा। 23 प्रतिशत महंगाई को मुख्य मुद्दा मानने के पक्ष में हैं। केवल 13 प्रतिशत विकास को, और भी कम यानी आठ प्रतिशत भ्रष्टाचार को, आठ प्रतिशत ही राममंदिर को और केवल दो प्रतिशत हिंदुत्व को, दो प्रतिशत अंतर्राष्ट्रीय छवि को और दो प्रतिशत आरक्षण को मुद्दा मानते हुए दिखे। इससे सीधा मतलब निकलता है कि मोदीजी भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने अभियान को प्रमुख मुद्दा बनाने में लगे हुए हैं। दिल्ली में इस प्रकार के होर्डिंग लगने शुरू हो गए हैं। तो क्या वे भ्रष्टाचार को इसलिए मुद्दा बना रहे हैं ताकि उसके पीछे बढ़ती बेरोज़गारी और महंगाई के मुद्दे छिप जाएं? इसी तरह जातिगत जनगणना और आरक्षण के सवाल को अधिक महत्व देने वाली विपक्षी पार्टियों के लिए भी यह ह़क़ीकत एक चेतावनी है कि बहुत कम यानी केवल दो प्रतिशत लोग ही इसे अहमियत देते हैं। दूसरी बात यह है कि सरकार को एक मौका देना या नहीं देना चाहिए वाले सवाल में मौका न देने वालों ने भी अपने तर्क के पक्ष में महंगाई-बेरोज़गारी का ही हवाला दिया है।
वोटर मोदी सरकार के कामकाज से संतुष्ट है या असंतुष्ट? इस प्रश्न का उत्तर भी मोदी सरकार को बेचैन करने के लिए काफी है। मोटे तौर पर 57 प्रतिशत लोग मानते हुए दिखते हैं कि वे मोदी सरकार के कामकाज से पूरी तरह या आंशिक रूप से संतुष्ट हैं। लेकिन आंकड़े यह भी बताते हैं कि 2019 में यह आंकड़ा 65 प्रतिशत था। यानी इसमें आठ प्रतिशत की बड़ी गिरावट आई है। इसी के साथ 2019 में जहां तीस प्रतिशत लोग ही मोदी की सरकार से असंतुष्ट दिख रहे थे, वहीं असंतोष का आंकड़ा अब 39 प्रतिशत हो गया है। यानी, नौ प्रतिशत की बढ़ोतरी। संतुष्ट लोगों में सम्पन्न लोगों की संख्या ज्यादा (62 प्रतिशत) है, जबकि निम्न और मध्यवर्ग के लोगों में असंतुष्टों की संख्या ज्यादा है। 
ज़ाहिर है कि ये आंकड़े एक बात साफ तौर पर दिखाते हैं कि मोदी सरकार के खिलाफ कोई हानिकारक एंटीइनकम्बेंसी नहीं है। बड़े पैमाने पर दस साल बाद भी कोई नाराज़गी नहीं दिखती। लेकिन चुनाव की लम्बी अवधि के शुरू में की गई यह जांच बताती है कि थोड़े से वोटरों के इधर से उधर हो जाने से खेल पूरी तरह पलट जाएगा। जांच यह भी बताती है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा (जिस तरह मोदी उसे उठा रहे हैं) भाजपा समर्थक वोटरों की निगाह में महत्वपूर्ण नहीं है। वे इसे मोदी को फिर से चुनने के पक्ष में गिनती लायक ही नहीं मानते। यानी, मोदी के प्रशंसकों के मानस से यह गायब है। जबकि, मोदी को हटाने के पक्षधर लोग कम से कम इसे मोदी के विरोध में एक मुद्दा मानते हैं, भले ही उनकी प्रतिशत कम ही क्यों न हो। कुल मिला कर सर्वेक्षण असली सवाल महंगाई और बेरोज़गारी को मानता है, जबकि मोदी के समर्थक इस मुद्दे को मुद्दा मानने के लिए ही तैयार नहीं है।    

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।