भाजपा का गढ़ उत्तर प्रदेश ही उसके लिए मुसीबत बना !

हिंदुत्व की राजनीति के लिहाज़ से इस समय भारतीय जनता पार्टी में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। हालांकि सत्ता मिल गई है, पर पार्टी पर बहुमत खोने का मनोवैज्ञानिक दबाव बहुत गहरा है। उसकी अधिकतम अभिव्यक्ति उत्तर प्रदेश में देखी जा सकती है। जो प्रदेश भाजपा का गढ़ माना जा रहा था, इस समय वह उसकी सबसे कमज़ोर कड़ी बन गया है। 
यह कहने की ज़रूरत नहीं कि लोकसभा के नतीजों से पहले उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए एक बेहद आश्वासन योग्य जगह थी। एक तरह से यह प्रदेश भाजपा, नरेंद्र मोदी और संघ परिवार की असाधारण सफलता का रूपक बन चुका था। रामलला के मंदिर के रूप में न केवल वह हिंदुत्व की परियोजना के वर्तमान का चमकदार उदाहरण था, बल्कि विचारधारात्मक गोलबंदी के लिहाज़ से मथुरा-काशी के ज़रिये वह भविष्य की सफलताओं के द्वार भी खोल सकता था। शासन-प्रशासन के हिसाब से इस प्रदेश ने राष्ट्रीय मंच पर ‘बुलडोज़र बाबा’ और अपराधियों के खिलाफ ‘ऑपरेशन लंगड़ा’ चलाने वाले मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की एक ‘अनुकरणीय प्रतीत होने वाली’ मिसाल पेश कर दी थी। खबरें ऐसी मिल रही थीं कि प्रदेश की ज्यादातर जनता ‘मोदी-योगी की जोड़ी’ पर गहरा भरोसा करने लगी है। दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों में एक के बाद एक इस प्रदेश के दिखाया था कि चालीस से पचास प्रतिशत के बीच हिंदू मतदाता दृढ़ता से इस पार्टी के मज़बूती के साथ बने हुए हैं। यादवों और जाटवों के छोड़ कर बाकी सभी हिंदू समुदाय भाजपामय लगने लगे थे। 
यह देख कर ताज्जुब हो सकता है कि केवल एक लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन करते ही उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए सर्वाधिक दिक्कतलब जगह बन गया है। महीने भर के भीतर ऐसी कई ह़क़ीकतें निकल कर सामने आ चुकी हैं जो चार चुनावों की सफलता के पीछे छिपी हुई थीं। आज उत्तर प्रदेश की राजनीति का कोई मामूली सा जानकार भी यह बता सकता है कि देश का सबसे सफल और ताकतवर समझा जाने वाला मुख्यमंत्री इस समय त्रिशंकु कर तरह अधर में लटका हुआ है। न उसे पता है, न उसके समर्थकों-विरोधियों को पता है कि उसकी सत्ता कितने दिन और चलेगी। उसके दोनों उपमुख्यमंत्री आजकल शायद ही कभी कैबिनेट की बैठकों में भाग लेते हों। वे मोटे तौर पर दिल्ली में पड़े रहते हैं और उनका काम केवल आलाकमान के पास शिकायतें लगाना रह गया है। हाथरस के भगदड़ कांड के बारे में एक उपमुख्यमंत्री ने रपट मुख्यमंत्री को देने के बजाय केंद्र के प्रतिनिधि बी.एल. संतोष को दी। नौकरशाही को संकेत मिल गया है कि सरकार की ज़मीन कमज़ोर हो गई है। इसलिए उसने कामकाज लगभग ठप्प कर दिया है। हालांकि मुख्यमंत्री पर कोई आरोप नहीं है, लेकिन प्रशासन में निचले-मध्य-उच्च यानी तीनों स्तरों पर जम कर भ्रष्टाचार व्याप्त है। प्रदेशाध्यक्ष के नेतृत्व में की गई हार की समीक्षा के परिणाम कुछ इस प्रकार के हैं कि उसे पहली नज़र में मुख्यमंत्री के दरवाज़े पर ठीकरा फोड़ने का उपक्रम माना जा सकता है। 
अभी सप्ताह भर पहले अयोध्या से लौटे एक वरिष्ठ पत्रकार ने राष्ट्रीय टीवी चैनल पर बताया कि रामलला के मंदिर में दर्शनार्थियों की ‘फुटफाल’ पहले के मुकाबले बहुत घट गयी है। काशी-मथुरा की तो इस समय कोई चर्चा ही नहीं कर रहा। लोकसभा चुनाव से पहले अयोध्या में हुए दो उपचुनावों में हुई हार पर ध्यान न देने की याद अब सभी को आ  रही है। महीने-डेढ़ महीने में विधानसभा की दस सीटों पर उपचुनाव होने हैं। आमतौर पर उपचुनाव सत्तारूढ़ दल ही जीतता है, लेकिन उत्तर प्रदेश भाजपा में इस समय इसकी गारंटी लेने का जोखिम उठाने के लिए कोई तैयार नहीं है। कहा जा रहा है कि इन दस सीटों के चुनाव में मुख्यमंत्री को खुला हाथ दिया जाएगा, ताकि अगर परिणाम खराब निकलें (जिसका अंदेशा भी है) तो मुख्यमंत्री को हटाने की दलील और मज़बूत बनाई जा सके। शायद इन्हीं हालात का नतीजा है कि आम तौर पर आक्रामक मुद्रा में रहने वाले मुख्यमंत्री चेहरे से गुमशुदा जैसे लगने लगे हैं। 
प्रश्न यह है कि क्या यह लोकसभा चुनाव में हुई पराजय का ही परिणाम है या इसकी भूमिका पहले से बन रही थी? यह सही है कि आदित्यानाथजी अखिल भारतीय स्तर पर मोदीजी के बाद भाजपा के ‘स्टार प्रचारक’ बन कर उभरे हैं और उनके समर्थकों ने पिछले चार-पांच साल में उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन असलियत यह है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता की बागडोर पूरी दृढ़ता से कभी उनके हाथ में नहीं रही। 2017 में मुख्यमंत्री बने गोरखपीठ के इस महंत को अपनी पसंद के अ़फसर नियुक्त करने और अपने मन से टिकट बांटने की छूट शायद ही कभी मिली हो। ज़्यादातर अवधि में प्रदेश का मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक उनसे पूछ कर कभी नहीं रखा गया। लगातार दो उपमुख्यमंत्री सत्ता का दूसरा केंद्र बने रहे। उनकी सीधी डोर आलाकमान में बैठे हुए ‘चाणक्य’ से जुड़ी रही। सत्ता का तीसरा केंद्र संघ की तरफ से नियुक्त कराये गए कार्यकर्ताओं के पास रहा। तबादलों और ठेका-कांट्रेक्ट वगैरह के फैसले उनके द्वारा किये जाते रहे। सत्ता का चौथा केंद्र पीएमओ में रहा। यानी, उत्तर प्रदेश में सत्ता शुरू से बहुकेंद्रीय रही। मुख्यमंत्री की सत्ता को अस्थिर करने-करवाने की साज़िशों का आलम यह रहा है कि उनके पहले कार्यकाल में डेढ़ सौ से दो सौ विधायकों ने उनके खिलाफ अपनी मांगों के नाम पर लखनऊ से लेकर अन्य जगहों तक धरने दिये। मुख्यमंत्री लखीमपुर खीरी के अजय कुमार टेनी को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटवाना चाहते थे, लेकिन उनकी नहीं सुनी गई। मुख्यमंत्री चाहते थे कि पार्टी की सांगठनिक बागडोर स्वतंत्रदेव सिंह का हाथ में ही रहे। लेकिन, उन्हें हटा कर भूपेंद्र चौधरी को प्रदेशाध्यक्ष बना दिया गया। 
क्या मुख्यमंत्री कभी इस स्थिति के प्रति सहज रहे? नहीं। लेकिन, शिकायत करने के लिए उनके पास केवल दो ठिकाने थे। या तो वे सीधे प्रधानमंत्री से अपनी व्यथा कह सकते थे, या फिर सरसंघचालक डा. मोहन भागवत से गुहार लगा सकते थे। मोदीजी से वे यह शिकायत भी कर चुके हैं कि पंचायत चुनावों में भी उनकी नहीं सुनी गई। लोकसभा चुनावों में उन्होंने बारह टिकट अपने खाते में मांगे थे। धीरे-धीरे छंटते-छंटते यह संख्या कुल दो रह गई, जिसमें एक टिकट गाज़ियाबाद निर्वाचन क्षेत्र का था। अंत में ये दोनों टिकट भी उनकी मज़र्ी के उम्मीदवारों को नहीं मिले। संसदीय चुनावों में पूरी बागडोर अमित शाह के हाथ में रही। सारा प्रबंधन उन्होंने ही किया। अगर राजपूत मतदाताओं में नाराज़गी थी, तो उन्हें समझाने का दायित्व मुख्यमंत्री को देने के बजाय स्वयं गृहमंत्री ने ही यह ज़िम्मेदारी उठाई। क्या यह विडम्बना नहीं है कि चुनाव-मुहिम के दौरान केवल साम्प्रदायिक भाषण देने की ज़िम्मेदारी उठाने वाले मुख्यमंत्री पर हार की सीमित ज़िम्मेदारी डालने की कोशिश की जा रही है?
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।