विवादों में घिरी सरकार
एक तरफ प्रदेश बेहद संकटों में घिरा दिखाई देता है। इसकी आर्थिकता पूरी तरह डावांडोल हुई प्रतीत होती है। आशंका यह भी प्रकट की जा रही है कि आगामी कुछ मास में सरकार के लिए अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन देना भी मुश्किल हो जाएगा। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार से बिना कारण ही इसने अनेक विवाद छेड़ रखे हैं। उसकी ओर से भेजे जाते फंडों का उसकी योजना के अनुसार उचित उपयोग न करके अधिकतर केन्द्रीय योजनाओं के हज़ारों करोड़ों के प्रोजैक्ट अधर में दिखाई देते हैं। इस संबंध में प्रदेश सरकार की ओर से केन्द्र के साथ अच्छा तालमेल करके उसकी योजनाओं को समझ कर प्रदेश के हित के लिए उनका वैध ढंग से उपयोग करने की ज़रूरत है, परन्तु यदि इसकी बजाय सरकार की ओर से स्वयं ही उलझनें पैदा कर दी जाएं तथा एक तरह से अपने मार्ग पर स्वयं ही कांटे बिछा दिए जाएं तो उन मार्गों पर चलते हुए चुभन महसूस होना तो स्वाभाविक ही है।
प्रदेश प्रमुख की ओर से प्रतिदिन टकराव वाली बयानबाज़ी करने से हालात सुखद होने की आशा नहीं की जा सकती। अब तक शुरू की गई योजनाओं के पड़े बिखराव का भी ऐसा ही कारण कहा जा सकता है। ‘गल्लां दा कड़ाह’ बनाये जाने की बजाय योजनाओं को लागू करते समय उन पर क्रियात्मक रूप में गम्भीरता से पहरा देने की अधिक ज़रूरत होती है, अन्यथा ये योजनाएं आधी-अधूरी ही अधर में पड़ी रह जाती हैं। चिन्ताजनक स्थिति यह बन रही है कि आगामी मास में कोयले की कमी होने के कारण तथा बाहरी एजेंसियों को अदायगी न किये जाने के कारण बिजली का गम्भीर संकट सिर पर मंडरा सकता है। यदि पूरे प्रदेश की प्राथमिकताओं पर काम करने की बजाय मुख्यमंत्री की ओर से प्रदेश के एक उप-चुनाव या अन्य प्रदेशों के चुनावों में अपना अधिक ‘समय’ लगाया जाता है तो राज्य की योजनाओं को पूरा कौन करेगा? अब तक सरकार ने ठोस काम की बजाय अनावश्यक विवादों को ही जन्म दिया है। इसका एक उदाहरण विगत लम्बी अवधि से मुख्यमंत्री के पंजाब के राज्यपाल श्री बनवारी लाल पुरोहित के साथ भिन्न-भिन्न विषयों को लेकर चलते आ रहे विवाद भी हैं। पंजाब के राज्यपाल की ओर से यदि प्रदेश सरकार की कारगुज़ारी में रह गई त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाने का यत्न किया जाता है तो इसे सरकार के काम में अनावश्यक हस्तक्षेप बता कर अक्सर टकराव की स्थिति पैदा कर दी जाती है। प्रदेश के अब तक के इतिहास में शायद ही ऐसी सरकार आई हो, जिसने बात-बात पर राज्यपाल से उलझने की नीति अपनाई हो तथा लगातार आपसी विवाद पैदा किए हों। एक अन्य ताज़ा उदाहरण प्रदेश सरकार को देश की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू द्वारा विश्वविद्यालयों के चांसलर संबंधी बिल वापिस करने का भी लिया जा सकता है। पंजाब के सरकारी विश्वविद्यालयों की आज जो स्थिति है, वह सभी के सामने है। दूसरे शब्दों में ये हाल-ए-बेहाल हुई पड़ी हैं। इनमें से ज्यादातर बड़े विश्वविद्यालय आर्थिक तंगी में गुज़र रहे हैं। उनकी हालत को बेहतर बनाने के लिए यत्न किये जाने के स्थान पर मुख्यमंत्री संवैधानिक तौर पर प्रदेश के राज्यपाल की चांसलर के रूप में शक्तियों को चुनौती दे रहे हैं।
राज्यपाल प्रदेश के सरकारी विश्वविद्यालयों का चांसलर होता है। संवैधानिक तौर पर ऐसी परम्परा पहले से चली आ रही है। इस संबंध में पहले कभी भी कोई बड़ा विवाद सामने नहीं आया, परन्तु मुख्यमंत्री राज्यपाल के स्थान पर इन विश्वविद्यालयों के स्वयं चांसलर बनना चाहते हैं। इस बात पर हुए टकराव के बाद मुख्यमंत्री ने विधानसभा में अपनी पार्टी के बहुमत के बल पर विधानसभा का सत्र बुला कर पंजाब यूनिवर्सिटीज़ लॉज़ संशोधन बिल 2023 को पारित करवा लिया था। राज्यपाल ने पहले तो इस बिल को अपने पास रखा परन्तु जब विवाद बढ़ गया तो उन्होंने इसकी स्वीकृति के लिए इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया। अब राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू की ओर से इस बिल को वापिस भेज दिया गया है। इससे यह बात स्पष्ट हो गई है कि राज्यपाल ही विश्विद्यालयों के चांसलर होंगे। इस तरह पिछले लम्बे समय से सरकार को लग रहे झटकों तथा लगातार मिल रही नमोशियों ने इस की हालत पानी से भी पतली करके रख दी है। चाहे मुख्यमंत्री ‘सिलैक्टड’ एवं ‘इलैक्टड’ के बयान देते रहते हैं परन्तु ‘इलैक्टड’ गणमान्यों ने भी किसी संवैधानिक अनुशासन के अनुसार ही चलना होता है, इस बात का उन्हें एहसास नहीं हो रहा। ऐसी नीयत एवं नीति के कारण ही मौजूदा प्रदेश सरकार बड़ी नमोशियों से गुज़र रही है, जिससे इसका अक्स और भी धूमिल होता जा रहा है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द