विधवा व तलाकशुदा महिलाओं के प्रति नज़रिया बदलने की ज़रूरत
जब समाज में घटी घटना यह सोचने को विवश करे कि क्या आधुनिक और टेक्नोलॉजी सम्पन्न परिवेश में ऐसी परम्परा का अभी भी अस्तित्व है, जो हमें सदियों पीछे ले जाये? समझना चाहिए कि कहीं तो गड़बड़ है और ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ चरितार्थ हो रहा है। लकीर के फकीर की राह पर चलते हुए परिवर्तन का ढोंग हम और हमारा समाज कर रहा है। मज़े की बात यह कि डंके की चोट पर हो रहा है।
विधवा की हैसियत
घटना यह है कि सन् 2023 में सियाचिन क्षेत्र में अपने साथी सैनिकों की रक्षा करने के प्रयास में 23 वर्षीय कैप्टन अंशुमन सिंह की शहादत हो जाती है। उनकी अदम्य वीरता के लिए कीर्ति चक्र से सम्मानित करने का निर्णय लिया जाता है। यह सम्मान जुलाई 2024 में राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया जाता है। इसे लेने के लिए पिता रवि प्रताप सिंह, मां मंजु सिंह और पत्नी स्मृति सिंह सम्मान स्थल पर उपस्थित होते हैं। विशेष बात यह है कि अंशुमन और स्मृति का विवाह पांच महीने पहले ही हुआ था। कह सकते हैं कि वह अभी अपनी गृहस्थी जमा ही रहीं थीं कि यह वज्रपात हो गया। इसी तरह अंशुमन के माता-पिता के लिए भी इस घटना को कभी न पूरा होना वाला घाटा कहा जा सकता है। कीर्ति चक्र प्राप्त करना दोनों पक्षों के लिए गर्व करने वाला अनुभव था।
चिंता की बात
अब स्थिति ऐसी बनती है जो बहुत ही चिंताजनक है। होता यह है कि पिता अपनी विधवा बहू पर आरोप लगाते हैं कि उसे जो सम्मान और धनराशि मिली, वह उसे नहीं मिलनी चाहिए। इसके लिए रक्षा मंत्री तक गुहार लगाते हैं कि निकटतम संबंधी की परिभाषा में सबसे पहले जो पत्नी आती है, उसे बदला जाये। माता-पिता का ही अधिकार हो। पुत्र को जो कुछ सम्मान और धन मिले, उस पर पहला अधिकार उनका हो, पत्नी का नहीं। सोशल मीडिया के कारण दोनों ओर से सफाई और अपना-अपना पक्ष भी रखा जा रहा है जिसका महत्व हो सकता है, लेकिन इतना नहीं कि मुख्य मुद्दा गायब हो जाये और वह यह कि विधवा के क्या अधिकार हैं और उनकी सुरक्षा का क्या प्रबंध है?
हमारे समाज में और दुर्भाग्य से लगभग सभी धर्मों में विधवा को लेकर सदियों से यह नियम या कहें कि परम्परा रही है कि वह सामान्य स्त्री की तरह जीवन नहीं जी सकती। सादगी, भिखारियों जैसा जीवन, बिना किसी प्रकार की उम्मीद रखते हुए, ईश्वर का भजन और एकाकी जीवन ही उसकी नियति है। यहां तक कि यदि कोई उसके साथ दुष्कर्म भी करे तब भी उसका ही दोष माना जाता है। उसके लिए परिवार की सम्पत्ति, पति की छोड़ी सम्पदा या किसी भी वस्तु का उपयोग वर्जित और गलती से कर लिया तो अपराधी, कुल को डुबोने वाली, कुलटा, संस्कारहीन घोषित करने में समाज तनिक देर नहीं करता। सबसे पहले इसमें परिवार शामिल होता है।
समाज से दूरी बनाया जाना, आरोप लगाना, तिरस्कार करना, शक और सुलभ वस्तु का नज़रिया रखना जिसके साथ चाहे हिंसा करें, गाली गलौज हो, कहीं बाहर जाये तो लांछन और किसी भी समारोह में जाने की मनाही, यहां तक कि अपने ही बच्चों से दूरी बनाये रखने की हिदायत मामूली और दैनिक क्रिया बन जाती है। यह सब शायद किसी व्यक्ति या वर्ग को अजब गज़ब लगे, लेकिन चाहे ग्रामीण हो या शहरी समाज, यही वास्तविकता है। दु:ख तथा अफसोस इस बात का है कि आज भी यह सब प्रचलन में है। यह महिला का सम्मान या उत्थान तो कतई नहीं है।
हालात क्यों नहीं बदलते?
ऐसा नहीं है कि इस स्थिति को बदलने के प्रयास नहीं हुए हैं, सदियों और दशकों से होते रहे हैं लेकिन उनका कुछ असर हुआ होता तो स्मृति सिंह जैसी घटना देखने को नहीं मिलती। अंग्रेज़ों द्वारा बनाये कानून, विधवा का फिर से विवाह कर सकने का आंदोलन और उसकी सफलता तथा स्त्री के प्रति केवल उपभोग की दृष्टि न रखकर उसे जीवन संगिनी का वास्तविक दर्जा देने की मुहिम तथा और भी बहुत कुछ इस संबंध में हुआ है, लेकिन आज भी केवल ढाक के तीन पात का ही चलन दिख रहा है।
अंग्रेज़ों के कानून बदले, विधवा पुनर्विवाह का रास्ता खुला और उसे अपना जीवन अपनी तरह से जीने की स्वतंत्रता की राह दिखी, पति और पारिवारिक सम्पत्ति में उसके अधिकार को मान्यता दी गई। आज जो नया कानून है वह बहुत ही स्पष्ट है कि अब विधवा का दोबारा शादी कर लेने के बाद भी पहले पति की विरासत में उसका अधिकार है, वह अपनी सुविधा और मज़र्ी से जीवन जी सकती है, लेकिन कानून की सुनता कौन है? स्त्री और पुरुष की बराबरी की हैसियत के दावे पर पुरुष पर अपनी मर्दानगी दिखाने की सोच या अहंकार हावी है। हमारे देश में दुर्भाग्य से अधिकतर कानून सब पर लागू नहीं होते, वे अपने धर्म के अनुसार चलते हैं। विरासत का कानून भी उनमें से एक है, जो धर्म के अनुसार चलता है।
हालांकि हिंदू, मुस्लिम, ईसाई तथा अन्य धर्मों में यह कुछ न कुछ अलग है, लेकिन एक बात सब में समान है कि औरत को उसका जायज़ हक न मिल सके, इसकी पूरी व्यवस्था है। हिंदू स्त्री को गोद लेने का अधिकार है, उसे गुज़ारे की राशि मिलना तय है, स्वर्गीय पति की तरह अपना स्टेटस बना कर रहने और उसकी सम्पत्ति में से हिस्सा लेने का कानून है, जितने भी दावेदार हैं, उनमें वह भी है और परिवार तथा विशेषकर ससुर पर यह ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी विधवा बहू को अच्छी तरह रखे, अपनी बेटी मानकर व्यवहार करे और उसकी रज़ामंदी हो तो उसका दोबारा घर बसाने की पहल करे। इसका प्रावधान है कि उसे उसका हिस्सा उसे मिले। कानून के अनुसार कार्यवाही हो। मुस्लिम स्त्रियां शरीयत की व्यवस्था पर निर्भर हैं। इसी तरह ईसाई, पारसी, सिख तथा अन्य धर्मों में है। उनमें भी स्त्री की स्थिति निर्भरता की ही है, बात चाहे उनकी रवायतों की हो या परिवार के दबाव की हो।
ज़रूरत क्या है?
भारत में विधवा होने के अभिशाप से नारी को मुक्त किया जाए और जो उसे समाज और परिवार के बंधनों में जकड़ कर रखना चाहते हैं, उन्हें सज़ा मिलने का कानून हो। गांव-देहात में अभी भी पति की किसी भी कारण से मृत्यु होने पर विधवा को घर से निकालना, उसे प्रताड़ित और बहिष्कृत करना सामान्य बात समझी जाती है जबकि उसकी ऊर्जा, क्षमता, बुद्धि, शिक्षा और कार्य कुशलता का उपयोग घरेलू काम धंधों से लेकर कृषि तक में किया जा सकता है। इसी तरह शहरों में उन्हें घर की चारदीवारी से निकलकर अपने लिए कुछ नया करने तथा आत्मनिर्भर होने का आधार दिया जा सकता है। बहुत बड़ा समाज है जहां स्त्रियों को पति की मृत्यु पर बेसहारा नहीं समझा जाता और उन्हें नफरत से न देख कर प्यार से रखा जाता है, लेकिन यह सब अपवाद की श्रेणी में आते हैं। उस समाज का आकार चाहे छोटा हो लेकिन स्त्री को पैर की जूती या दहलीज़ की चौखट मानने की मानसिकता रखने वालों की कमी नहीं है।
ज़रूरी है कि सब से पहले सामूहिक रूप से पति की मृत्यु के बाद पत्नी के बेचारी होने की सोच बदले। यही नहीं बल्कि उन महिलाओं के प्रति भी नज़रिया बदले जो किसी कारण से अपने पति से तलाक ले चुकी हों और वे परित्यक्त की तरह जीवन बिताने को मज़बूर हों। हमारे देश में विधवा और तलाकशुदा स्त्री का जीवन किसी भी तरह से आसान नहीं होता। वे चाहकर भी अपनी ज़िंदगी की राह नहीं चुन सकतीं। समस्त सांसारिक बंधन तुरंत उन पर लाद दिए जाते हैं। उन्हीं को कुसूरवार ठहराया जाता है। हर बात के लिए अपने और ससुराल के परिवार की सहमति ज़रूरी कर दी जाती है।
जहां तक कानून की ताकत की बात है तो जैसे ही रवि प्रताप सिंह रक्षा मंत्री के पास अपनी बहू के अधिकार छीन लिये जाने की बात लेकर गये थे, उन पर तुरंत कार्यवाही होनी चाहिए थी और हिरासत में लिया जाना चाहिए था। अगर ऐसा होता तो यह शहीद सैनिक का सम्मान होता और दकियानूसी सोच रखने वालों के मुंह पर तमाचा होता। यह किसी एक व्यक्ति के किए नहीं होने वाला। इसमें सबसे बड़ी भूमिका उनकी है जो परिवार, समाज और देश की दशा और दिशा निर्धारित करने का काम करते हैं।