आंकड़ों के हेर-फेर से प्रभावित है भारत की अर्थ-व्यवस्था

बजट के ज़रिये राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था का वार्षिक प्रबंधन किया जाता है। सारा आर्थिक बंदोबस्त ठीक तरीके से चले और संबंधित नीतियों के नतीजे योजना के अनुसार निकलें, इसके लिए ज़रूरी है कि आर्थिक प्रक्रियाओं और उनके नतीजों के आंकड़े सच्चाई से जमा किये जाएं, और बिना किसी पहलू को छिपाये या उसमें हेरफेर किये बिना बजट बनाया जाए। भारतीय लोकतंत्र के आर्थिक इतिहास पर नज़र डाली जाए स्पष्ट हो जाता है कि इस तरह की ईमानदारी आज़ादी के बाद से कम से कम 2009 तक अपनायी जाती रही। आम तौर पर किसी आर्थिक विशेषज्ञ को आंकड़ों या ‘डेटा’ के ऊपर संदेह करते नहीं सुना गया। ‘डेटा’ जमा करने का काम भी नियमित रूप से किया जाता रहा। चाहे बेरोज़गारी के आंकड़े हों, उत्पादन के आंकड़े हों, एनएसएसओ के आंकड़े हों या फिर दशवार्षिकी जनगणना के आंकड़े हों— सभी नियमित रूप से प्रकाशित किये गये। उन पर भरोसा कायम रहा। 
ऐसा लगता है कि 2009 के बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन गठजोड़ सरकार ने चीनी आर्थिक प्रबंधकों के रवैये से प्रेरणा लेकर अपने कुल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े कुछ बढ़ा-चढ़ा कर बताने के सिलसिले को शुरू किया। चीनी शासकों को लगता था कि अगर वे अपनी अर्थव्यवस्था का आकार बड़े से बड़ा बताएंगे तो उन्हें विश्व के मैन्युफेक्चरिंग मानचित्र में स्वयं को एक आकर्षक मुकाम के रूप में पेश करने में आसानी होगी। इसका चीन को स्पष्ट रूप से लाभ भी दिख रहा था। भारत के आर्थिक प्रबंधकों द्वारा किया गया यह शुरुआती हेरफेर बहुत कम था। इसलिए इसके कारण पैदा हुई विकृतियां भी मामूली थीं। लेकिन 2014 में मोदी सरकार ने विरासत में मिली यह आर्थिक तिकड़म पूरे जोश के साथ अपनायी। देखते-देखते आंकड़ों की हेराफेरी चरम पर पहुंच गयी। यह हथकंडा उस समय आर्थिक प्रश्न पर होने वाली बहसों को गहराई से प्रभावित करने लगा जब बेरोज़गारी के आंकड़े प्रकाशित करने से सरकार इन्कार करने लगी। कोविड के बहाने से जनगणना रोक दी गई। यह दशक आधा ़खत्म होने को है लेकिन 2021 की जनगणना के आंकड़ों का पता ही नहीं है। पिछली यूपीए सरकार ने जिस सामाजिक-आर्थिक जनगणना के हज़ारों एक्सिल शीट मोदी सरकार को थमाये थे, उन्हें भी तरह-तरह के बहानों के आधार पर सार्वजनिक नहीं किया गया। 
मौजूदा सरकार को लगता है कि वह आंकड़ों के मनचाहे एकत्रीकरण, मनमाने प्रकाशन और राजनीतिक उद्देश्यों से उनके इस्तेमाल के ज़रिये अर्थ-व्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश करती रहेगी। प्रधानमंत्री और उनके पैरोकार लगातार यह दावा करते रहेंगे कि उनके काल में अर्थ-व्यवस्था दुनिया में 5वें नम्बर पर आ चुकी है, और 2027 तक तीसरे नंबर पर आ जाएगी। स्थिति यह है कि चाहे रोज़गार के आंकड़े हों, कृषि उत्पादन हो, असंगठित क्षेत्र का उत्पादन हो, ़गरीबी या विषमता के आंकड़े हों— इन सभी में या तो हेर-फेर किया जा रहा है या इन्हें सार्वजनिक होने से रोका जा रहा है। हाल ही में महाराष्ट्र में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने दावा किया किया उनकी सरकार ने पिछले दस साल में आठ करोड़ रोज़गार दिये हैं। क्या यह हकीकत है? सरकार के ई-श्रम पोर्टल पर करीब तीस करोड़ लोगों ने रजिस्ट्रेशन करवा रखा है। इनमें से नब्बे प्रतिशत लोगों की आमदनी दस हज़ार रुपये से कम है। यानी वे ़गरीबी की रेखा पर हैं या उससे मिलीमीटर भर ही ऊपर हैं। यही कारण है कि सरकार को अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देना पड़ रहा है। हालत यह है कि जो पीएचडी कर चुका है, वह चपरासी की नौकरी के लिए लाइन में लगा है। अगर कहीं दो हज़ार निम्नस्तरीय नौकरियां (जैसे हवाई अड्डे पर लोडर की नौकरी) निकलती हैं तो पच्चीस हज़ार की भीड़ लग जाती है। अगर वास्तव में मोदी सरकार ने आठ करोड़ रोज़गार दिये होते, तो 2024 के चुनाव के दौरान किये गये सर्वेक्षणों में तीस प्रतिशत के आस-पास लोग यह न कहते कि बेरोज़गारी चुनाव का प्रमुख मुद्दा है। 
भारत में काले धन के प्रचलन के जितने भी अध्ययन किये गये हैं, उनके अनुसार यह अर्थ-व्यवस्था भारत के सम्पन्न लोगों के हाथ में है। अगर काले धन पर नियंत्रण का वायदा आंशिक रूप से भी पूरा किया जाता तो इस समय प्रत्यक्ष कर का दायरा बहुत बढ़ जाता। ऐसा नहीं किया गया। प्रत्यक्ष कर इस समय जीडीपी के 5.7 से 6.3 प्रतिशत के बीच ही है। कहा जा रहा था कि डिजिटलीकरण से भ्रष्टाचार को रोका जा सकेगा। यही भूमिका जीएसटी को निभानी थी। लेकिन ़फज़र्ी कम्पनियों के ज़रिये इनपुट क्रेडिट प्राप्त करने की परिघटना बहुत बढ़ चुकी है। जीएसटी की चोरी लाखों करोड़ में हो रही है। डिजिटलीकरण से बाज़ार में मुद्रा की परिचलन कम होना चाहिए था। लेकिन वह नोटबंदी के ज़माने से भी आगे निकल गया है। नकली आधारकार्डों और बैंक खातों की हैकिंग की परिघटना बहुत बढ़ चुकी है। सरकार साइबर ़फ्रॉड रोकने में असमर्थ है। 
नोटबंदी और जीएसटी ने अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र की कमर तोड़ दी है। भारत की नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा श्रमशक्ति इसी क्षेत्र से अपनी रोज़ी चलाती है। इस क्षेत्र के आंकड़े भी जमा नहीं किये जाते। जो जीडीपी के आंकड़े आते हैं, वे दरअसल केवल छोटे से संगठित क्षेत्र की नुमाइंदगी ही करते हैं। जब तक इन दोनों की प्रगति और अवनति का सही-सही त़खमीना न लगाया जाए तब तक सही जीडीपी का पता नहीं लगाया जा सकता। 2016 में नोटबंदी हुई थी। समझा जाता है कि तभी से असंगठित क्षेत्र पांच प्रतिशत की दर से गिर रहा है। यानी अगर सरकार सात प्रतिशत जीडीपी बता रही है तो वास्तव में उसकी बढ़ोतर ज़्यादा से ज़्यादा डेढ़-दो प्रतिशत ही है। अगर किसी अर्थ-व्यवस्था में जीडीपी वास्तव में 7-8 प्रतिशत है तो वहां इंसान के चेहरे पर कुछ न कुछ चमक तो होगी ही। लेकिन, भारत में आबादी का नीचे से पचास प्रतिशत हिस्सा अपने बुझे-बुझे और धुआं-धुआं चेहरों के साथ ज़िंदगी गुज़ार रहा है। 
संगठित क्षेत्र कॉरपोरेट पूंजी के हाथ में है। भारत के कॉरपोरेट घरानों की तिजोरी में लाखों करोड़ रुपयों की नकदी भरी हुई है। उनका कैश-क्रलो पहले के म़ुकाबले बढ़ा है। लेकिन वे अर्थ-व्यवस्था में अपना निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें लगता है कि बाज़ार को मंदी का अनीमिया हो चुका है, और यह लाइलाज है। वे देख रहे हैं कि उनकी फैक्ट्रियाँ 70-75 प्रतिशत की दर पर ही चल रही हैं। जो माल बना है, वह भी पूरा नहीं बिक रहा है। ज़ाहिर है कि वे नयी फैक्ट्रियां नहीं लगाएंगे। यानी, आर्थिक विकास के ज़रूरी निवेश की ज़िम्मेदारी सरकारी पूंजी पर ही रहेगी। जब तक निजी पूंजी विकास का इंजन नहीं बनेगी तब तक भूमंडलीकृत दुनिया में भारत का दर्जा नहीं बढ़ेगा। निजी क्षेत्र में एक और समस्या है। वह सत्ताधारियों की आंख में आंख डाल कर बात करने के लिए तैयार नहीं है। वह हमेशा साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में रहता है। कहा जाता है कि निजी क्षेत्र की रीढ़ की हड्डी की शक्ल-सूरत मैगी नूडल से मिलती-जुलती है। भला ऐसा निजी क्षेत्र भारत को दुनिया का मैन्युफेक्चरिंग हब कैसे बना सकता है?

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।