पंजाबी सूबा, पृथ्वी राज कपूर तथा चाचा चंडीगढ़िया

ताज़ा लेख भूली-बिसरी यादों के बारे है। पंजाबी सूबे के लिए दी गई सिखों की कुर्बानियों के बदले प्राप्त हुए छोटे से राज्य बारे जिसे पंजाबी भाषी प्रदेश कहा जाता है। इसकी घोषणा 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद हो गई थी। एक नवम्बर, 1966 को। ताज़ा घटना 12 मई, 1967 की है जिसे गुरनाम सिंह तीर (चाचा चंडीगढ़िया) व्यंग्यकार ने कौमी एकता पत्रिका के नवम्बर, 1974 अंक के लिए कलमबद्ध किया था। यहां उसका संक्षिप्त रूप दिया जा रहा है।
व्यंग्य का आरम्भ फिल्मी हस्ती पृथ्वी राज कपूर की नया बना पंजाबी सूबा देखने की इच्छा से होता है। वह अपने यूनियर मित्र गुरनाम सिंह तीर को दिल्ली बुला लेते हैं ताकि हवाई जहाज़ से दिल्ली पहुंचने के बाद वह रेलगाड़ी से तीर के साथ का आनंद लेते हुए चंडीगढ़ पहुंच सकें। 
तीर साहिब से मिलने से पहले कपूर साहिब अपने निकटवर्ती फकीर सिंह टंडन के घर खाना खाते समय दो पैग व्हिस्की के लगा लेते हैं और आंखों में सरूर आने के बाद तीर को साथ लेकर गाड़ी में बैठ जाते हैं। पहला स्टेशन सब्ज़ी मंडी का आता है और फिर सोनीपत का। दोनों रेलवे स्टेशनों पर गाड़ी रुकती है तो चढ़ने-उतरने वाले मुसाफिरों तथा कुलियों की आवाज़ें सुन कर कपूर साहिब को प्रतीत होता है कि पंजाबी भाषी क्षेत्र आ गया है। कपूर साहिब इसे पंजाबी सूबे की आमद समझ कर अपने यूनियर साथी तीर से इसकी तस्दीक चाहते हैं तो तीर इस धारणा को नकार कर कपूर साहिब को सो जाने की सलाह देते हैं। 
जब पानीपत का रेलवे स्टेशन आता है, तब भी दोनों की वार्तालाप यही होती है और करनाल के रेलवे स्टेशन पर भी। यह सुन कर पृथ्वी राज कपूर के फकीर सिंह टंडन से पिये व्हिस्की के पैगों का नशा खत्म हो जाता है। उनका ध्यान बैग में पड़ी मोमबत्तियों की ओर चला जाता है, जो उन्होंने पंजाबी सूबे में प्रवेश करते समय जलानी थीं। उन्हें करनाल से चढ़ने-उतरने वाले मुसाफिरों तथा कुलियों की भाषा पीछे रह गए शेखूपुरा की भाषा जैसी लगती है, परन्तु उनका मित्र गुरनाम सिंह तीर अभी भी यही कह रहा है कि पंजाबी सूबे की सीमा दूर है। 
अम्बाला पहुंच कर भी यही उत्तर मिलता है तो कपूर साहिब उदास होकर अपनी सीट पर सो जाते हैं। चंडीगढ़ उतरते ही पृथ्वी राज कपूर एक बार फिर अपने यूनियर साथी से पूछते  हैं कि यह शहर तो पंजाब का है कि नहीं? 
तीर के यह बताने पर कि यह भी पंजाब में नहीं तो कपूर साहिब के मुख से निकल गया, ‘यदि चंडीगढ़ पंजाब में नहीं तो क्या श्रीलंका में है?’ अब चाचा चंडीगढ़िया निरुत्तर हो जाता है। वह लिखता है, ‘मेरे पास उनके प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था और उनके पास मेरे शिकवों का।’
चंडीगढ़ उतर कर जिस टैक्सी में बैठते हैं, उसे पुलिस का सिपाही रोक लेता है और तेज़ रफ्तार का चालान काटने की बात करता है। तीर के सीट से बाहर आकर यह कहने का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि टैक्सी की असल सवारी मुगल-ए-आज़म वाला पृथ्वी राज कपूर है। वह ड्राइवर को तब तक नहीं छोड़ता जब तक तीर उसकी हथेली पर पांच रुपये नहीं रख देता। पचास वर्ष पहले वाले पांच रुपये। अंत में कपूर साहिब संत फतेह सिंह को मिलना चाहते थे, यह जानने के लिए कि यदि उन्हें हिमाचल तथा हरियाणा से बाहरी क्षेत्र ही मिलना था तो उन्होंने इतने सारे पंजाबियों का उजाड़ा क्यों करवाया।  
राजकुमारी सोफिया दुलीप सिंह, तथा उसकी विचारधारा
राजकुमारी सोफिया दुलीप सिंह महाराज रणजीत सिंह की पोती तथा राजकुमार दुलीप सिंह की बेटी थीं। उनका जन्म 8 अगस्त, 1876 को हुआ और निधन 22 अगस्त, 1948 को। इस माह उन्हें याद करना बनता है, चाहे गुजरांवाला गुरु नानक खालसा कालेज लुधियाना वाले पहले बाज़ी मार गए हैं।
चाहे राजकुमारी सोफिया का स्थायी आवास यू.के. में था, परन्तु वह अपने दादा का पंजाब देखने दो बार हिन्दुस्तान भी आईं। उस समय पंजाब दिल्ली के आगे पलवल से लेकर अ़फगानिस्तान तक फैला हुआ था। उस समय के पंजाब में हिमाचल प्रदेश का कांगड़ा ज़िला होशियारपुर की एक तहसील होता था। 
1907 के लाहौर में उस समय से स्वतंत्रा सेनानी गोपाल कृष्ण गोखले तथा लाला लाजपत राय रहते थे। दमदार निवासी होने के नाते, सोफिया उनके ‘आवाज़ दो’ के नारे से बड़ी प्रभावित हुईं। लाहौर ही नहीं, अमृतसरियों ने भी उनका बहुत सम्मान किया और महाराजा रणजीत सिंह की दरिया दिल राजनीति के किस्से सुना कर उसे खूब निहाल किया। इनता कि वह स्वयं भी वापिस लंदन जाकर महिलाओं के लिए वोट का अधिकार मांगने वाली लहर में कूद पड़ीं। इसके बाद उन्होंने यू.के. में ‘नो वोट, नो टैक्स’ नामक अलग अभियान भी चलाया। 
फिर उन्होंने 18 नवम्बर, 1910 को 300 महिलाओं का जत्था लेकर संसद भवन तक मार्च भी किया जिसमें बहुत-सी महिलाएं पुलिस के लाठीचार्ज का शिकार हो गईं। आधी महिलाओं के चोटों आईं और उनमें से दो की मौत भी हो गई। उनमें से 200 को गिरफ्तार भी किया गया। यह कृत्य शुक्रवार के दिन घटित होने के कारण यू.के. के इतिहास में इस दिन को ‘ब्लैक फ्राईडे’ कहा जाता है।
राजकुमार सोफिया द्वारा आरम्भ इस अभियान ने वहां की महिलाओं को जनगणना में अपना नाम शामिल न करने के लिए भी उकसाया जिसके परिणामस्वरूप यू.के. की महिलाओं को 1918 में वोट का सीमित अधिकार मिल गया और अंत 30 वर्ष की आयु वाली जायदाद याफता महिलाओं को संसदीय चुनावों में मतदान का पूर्ण अधिकार दे दिया गया। सोफिया इससे भी संतुष्ट न हुई तो 1928 में प्रत्येक 21 वर्ष की महिला को पुरुष के समान मतदान का अधिकार देना पड़ा। 
राजकुमारी सोफिया के मन में महिला संबंधी अधिकारों की यह ज्योति जगाने वाले उसके पंजाब दौरे थे जिन्होंने उसके दिल व दिमाग में उसके दादा महाराज रणजीत सिंह वाली सोच एवं सूझबूझ को जन्म दिया। उनके नारीवादी प्रयासों से उनका अपना नाम ही रौशन नहीं हुआ, अपितु उनके दादा को भी पुन: याद किया जाने लगा।