कोलकाता दुष्कर्म तथा हत्याकांड : अस्पतालों में ज़रूरी है सुरक्षा

कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज व अस्पताल में एक युवा डॉक्टर से दुष्कर्म व हत्या के विरोध में 12 अगस्त, 2024 को देश भर के अनेक सरकारी अस्पतालों में प्रदर्शन हुए, जिससे बड़े पैमाने पर बाह्य रोगी विभाग (ओपीडी) की सेवाएं व रूटीन सर्जरी प्रभावित हुईं। दिल्ली व कोलकाता के सरकारी अस्पताल सबसे अधिक प्रभावित हुए, क्योंकि यही दोनों शहर विरोध-प्रदर्शनों का केंद्र बने हुए हैं। फैडरेशन ऑफ आल इंडिया मेडिकल एसोसिएशन (फाइमा) के प्रवक्ता का कहना है कि 13 अगस्त से और भी अस्पताल विरोध-प्रदर्शन में शामिल हो गये हैं और उन्होंने ओपीडी व इलेक्टिव सर्जरी स्थगित कर दी हैं। प्रदर्शनकारियों की मांग है कि घटना की सीबीआई द्वारा जांच करायी जाये और हेल्थ केयर वर्कर्स के विरुद्ध हिंसा को रोकने के लिए तुरंत केंद्रीय कानून लागू किया जाये। दूसरी ओर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 31 वर्षीय पीड़िता पी.जी. ट्रेनी डॉक्टर के परिवार से भेंट करने के बाद राज्य पुलिस को 18 अगस्त तक जांच मुकम्मल करने का अल्टीमेटम दिया है और अगर ऐसा नहीं होता है, तो जांच सीबीआई को सौंप दी जायेगी। 
गौरतलब है कि यह घटना गत 9 अगस्त की है और इसके दो दिन बाद इस मामले में संदिग्ध पुलिस वालंटियर संजय रॉय (33) को गिरफ्तार किया गया। यह केस गहन तफ्तीश मांगता है। सोचने की बात है कि जब नर्स व अन्य लोग वहां मौजूद थे, तो यह भयावह घटना कैसे हो गई? क्या कोई ‘अंदरूनी’ व्यक्ति भी इसमें शामिल था? इन सब सवालों के जवाब तो जांच पूरी होने के बाद ही सामने आ सकेंगे। फिलहाल संदिग्ध संजय रॉय के संदर्भ में कुछ चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में आये हैं। नियमित पुलिसकर्मी न होने के बावजूद वह खुद को कोलकाता पुलिस का अधिकारी बताता था और अपनी टी-शर्ट पर के.पी. (कोलकाता पुलिस) लिखकर घूमता था। वह अनेक विवाह कर चुका है, जो सभी असफल रहे। पुलिस को उसके मोबाइल फोन पर पोर्न कंटेंट मिला है। पुलिस वैल्फेयर बोर्ड में वालंटियर होने के कारण वह अस्पताल में बिना रोकटोक घूमता रहता था।
बहरहाल, इस कोलकाता हॉरर के कारण अस्पतालों में महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर से फोकस में आ गया है। हेल्थ वर्कर्स की सुरक्षा के लिए एक केंद्रीय कानून की मांग की जा रही है। अनेक राज्यों में पहले से ही इस संदर्भ में सख्त कानून मौजूद हैं। इसलिए यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या हेल्थ वर्कर्स पर हमलों के लिए विशिष्ट कानून का अभाव ज़िम्मेदार है? फिर इस बहस में वह खतरा पूर्णत: लुप्त है जिसका सामना महिला रोगियों को करना पड़ता है। प्रदर्शनकारी डॉक्टर जो ‘याचिका’ सर्कुलेट कर रहे हैं, उसे देखने के बाद एहसास होता है कि केवल कानून आवश्यक सुरक्षा प्रदान नहीं करा सकता। इस याचिका में मार्च 2022 की सूरत की एक घटना का संदर्भ दिया गया है कि इमरजेंसी वार्ड के एक रोगी ने लोहे की मेज़ से नर्स पर हमला कर दिया था। नर्स को तीन टांके लगवाने पड़े थे। याचिका में कहा गया है, ‘नर्स ने एफआईआर दर्ज करायी और रोगी पर आईपीसी की धारा 332 के तहत मुकद्दमा लिखा गया, लेकिन इसके बाद कोई सूचना नहीं है कि अस्पताल या पुलिस ने क्या एक्शन लिया।’ अगर कोई व्यक्ति सरकारी कर्मचारी को अपनी ड्यूटी करने से रोकने के लिए चोट पहुंचाता है तो इस धारा के तहत उसे तीन वर्ष तक की कैद और/या जुर्माना से दंडित किया जा सकता है। यह संज्ञेय अपराध है यानी आरोपी को बिना वारंट के गिरफ्तार किया जा सकता है। यह गैर-ज़मानती व गैर-शमनीय (वह प्रावधान जो आमतौर से जघन्य अपराधों में लगाया जाता है) भी है यानी अदालती प्रक्रिया तब भी जारी रहेगी जब पीड़ित व आरोपी निजी तौर पर समझौता कर लेते हैं। 
सूरत मामले में सख्त कानून का इस्तेमाल किया गया था। लेकिन इस मामले में आगे क्या हुआ, इसकी कोई सूचना न होने का अर्थ यही है कि अस्पताल की तरफ से अपर्याप्त फालो-अप हुआ या न्यायिक व्यवस्था की परम्परागत सुस्ती जारी रही। अगर नया केंद्रीय कानून आ जाता है तो भी यह दोनों समस्याएं बरकरार रहेंगी क्योंकि मसला कानून का नहीं बल्कि उसे लागू करने का है। अधिकतर राज्यों में पहले से ही मेडिकेयर सर्विस पर्संस एंड मेडिकेयर सर्विस इंस्टीच्यूशंस (प्रिवेंशन ऑफ वायलेंस एंड डैमेज/लोस टू प्रॉपर्टी) एक्ट मौजूद हैं, जिसके तहत अस्पतालों में हेल्थकेयर वर्कर्स व हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर को सुरक्षित रखने व आरोपियों को दंड देने के प्रावधान हैं, लेकिन अध्ययनों से मालूम होता है कि इन राज्यों में भी इस कानून के तहत अदालत में पहुंचने के बावजूद भी 10 प्रतिशत से कम मामलों की ही पैरवी की गई। क्या नये कानून से इस सबमें परिवर्तन आ जायेगा?
हालांकि याचिका में सभी हेल्थ वर्कर्स की सुरक्षा की बात कही गई है, लेकिन जिस किस्म का गुस्सा व विरोध-प्रदर्शन कोलकाता की पीड़ित रेजिडेंट डॉक्टर के लिए है (जोकि सही भी है) वैसा उस समय दिखायी नहीं देता जब नर्सों व निचले क्रम के अस्पताल स्टाफ  पर हिंसक हमले होते हैं। अनेक नर्सें भयावह दुष्कर्म व हत्या की शिकार हुई हैं, लेकिन उनके लिए न्याय हेतु लड़ाई उनके परिवारों के लिए छोड़ दी गई। स्वास्थ्य व्यवस्था में सबसे कमज़ोर नर्स होती हैं, उन्हीं पर ही सबसे ज्यादा खतरा मंडराता रहता है। उन्हें रोगियों के तीमारदारों की गालियां व धक्कामुक्की बर्दाश्त करनी पड़ती हैं और यौन उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ जाता है। उन्हें सुरक्षित रखने के लिए कोई विशेष कानून नहीं है। उनके पास केवल सामान्य कानूनों का सहारा है जो कार्यस्थल पर सभी महिलाओं के लिए हैं।
नर्सों से भी अधिक कमज़ोर स्थिति में महिला रोगी हैं। अस्पतालों में 2024 में अस्पतालों में यौन हमलों की जो घटनाएं रिपोर्ट हुईं, उनमें हर पांच मामलों में से चार महिला रोगियों से संबंधित थे। पिछले दस वर्षों में भारत के अस्पतालों में दो दर्जन से अधिक महिला रोगियों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं प्रकाश में आयी हैं।  यह सही है कि ग्लोबली सामान्य कार्यस्थल के प्रोफेशनल्स की तुलना में हेल्थ वर्कर्स के विरुद्ध चार गुना अधिक हिंसा होती है और रोगियों के खिलाफ इससे भी ज्यादा, जिनकी न सिर्फ पीड़ा बढ़ सकती है बल्कि वह मर भी सकते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हेल्थ वर्कर्स की सुरक्षा के लिए कदम न उठाये जायें, बल्कि बात यह है कि अस्पतालों में सभी के लिए सुरक्षित वातावरण उत्पन्न करने के लिए कानूनों को सख्ती से लागू करने के अतिरिक्त कुछ आउट-ऑफ-द-बॉक्स उपायों पर भी मंथन किया जाये।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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