जम्मू-कश्मीर में किसी भी पार्टी को बहुमत मिलने के आसार नहीं
केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर की विधानसभा के लिए आगामी 18 सितम्बर से 1 अक्तूबर तक तीन चरणों में चुनाव होंगे। विधानसभा की सभी 90 सीटों के लिए नैशनल कांफ्रैंस, कांग्रेस व माकपा ने गठबंधन किया है। यह फैसला कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे व लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी के दो-दिवसीय कश्मीर दौरे के दौरान लिया गया, जिसमें उन्होंने नैशनल कांफ्रैंस व माकपा के नेताओं से मुलाकात की। फारूक अब्दुल्ला का कहना है कि उनके गठबंधन के द्वार सबके लिए खुले हुए हैं। उनका इशारा संभवत: पीडीपी की महबूबा मुफ्ती की तरफ था, लेकिन फिलहाल ऐसा लगता नहीं कि महबूबा मुफ्ती इस गठबंधन का हिस्सा बनेंगी, क्योंकि वह पहले से ही आठ सीटों पर अपनी पार्टी के प्रत्याशी घोषित कर चुकी हैं, जिसके लिए उन्हें अपनी पार्टी के भीतर से ही ज़बरदस्त विरोध का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उन्होंने पीडीपी के लिए सुरक्षित समझी जाने वाली सीट श्रीगुफवाडा-बिजबेहरा पर अपनी बेटी इल्तिजा मुफ्ती को उम्मीदवार बनाया है।
मालूम हो कि 37 वर्षीय इल्तिजा मुफ्ती ने सक्रिय राजनीति में उस समय कदम रखा था, जब अगस्त 2019 में धारा 370 को निरस्त किये जाने के बाद महबूबा मुफ्ती को नज़रबंद कर दिया गया था और वह पीडीपी की प्रवक्ता बन गई थीं। इल्तिजा मुफ्ती ने 2024 लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के लिए जमकर चुनाव प्रचार भी किया था। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव से पहले अजीब किस्म की ख़ामोशी और असमंजस की स्थिति है। हालांकि मतदान से पहले जिज्ञासा भी है और गठबंधन बनाने के प्रयास हैं। इस संदर्भ में घोषणाएं भी हुई हैं, लेकिन फ़िलहाल कोई भी पार्टी चुनावी मोड में नज़र नहीं आ रही है। मतदाताओं में भी चुनाव को लेकर उत्साह का अभाव है। यह ठंडापन मलिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी की प्रेस कांफ्रैंस में भी दिखायी दिया। राहुल गांधी ने लापरवाह अंदाज़ में यह अवश्य कहा कि कांग्रेस यह उम्मीद कर रही थी कि चुनावों से पहले जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जायेगा, लेकिन इसे अकारण दी गई टिप्पणी नहीं कहा जा सकता। धारा 370 निरस्त करने के बाद भाजपा ने कहा था कि वह उचित समय पर राज्य का दर्जा बहाल कर देगी।
बहरहाल 10 साल पहले जब जम्मू-कश्मीर में आखिरी बार विधानसभा चुनाव हुए थे, तब से चुनावों का अर्थ और राज्य का दर्जा बहाली का अर्थ बहुत अधिक बदल गये हैं। अब लेफ्टिनेंट गवर्नर को आवश्यकता से अधिक अधिकार व शक्तियां दे दी गई हैं, जिनमें कुछ समय पहले वृद्धि भी की गई है। यह इस बात का संकेत है कि केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा जल्द देने की इच्छुक नहीं है। चूंकि लगभग सारी शक्ति लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास ही रहेगी, इसलिए भी विधानसभा चुनावों में पार्टियों की दिलचस्पी कम प्रतीत हो रही है। जम्मू-कश्मीर में धारा 370 निरस्त करने, उसका राज्य का दर्जा खत्म करने व उसे अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने के बावजूद आतंक पर विराम नहीं लगाया जा सका है। उधर लद्दाख में भी असंतोष है कि मोदी सरकार ने वादा किया था कि लद्दाख को संविधान के छठे शिड्यूल में रखा जायेगा और अनुच्छेद 371 के तहत विशेष दर्जा दिया जायेगा ताकि उसके पर्यावरण और उसकी आदिवासी देशज संस्कृति को सुरक्षित रखा जा सके, लेकिन यह वायदा भी अभी तक पूरा नहीं किया गया है। लद्दाख पर केवल चीन ही नज़रें नहीं गड़ाये बैठा, बल्कि उसके नाज़ुक इकोलॉजिकल इकोसिस्टम पर औद्योगिक व खदान लॉबियों का भी खतरा मंडरा रहा है। सोनम वांगचुक इन्हीं का विरोध करने के लिए अनेक बार अनशन कर चुके हैं।
गौरतलब है कि जम्मू के हिलकाका क्षेत्र में ऑपरेशन सर्प विनाश 21 अप्रैल, 2003 को लांच हुआ और 1 मई, 2003 को सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। इस ऑपरेशन के बाद कम से कम जम्मू क्षेत्र में, छुटपुट घटनाओं को छोड़कर, लम्बे समय तक शांति रही। अब जम्मू में आतंक की फिर से वापिसी हो गई है। यहां गौर करने की बात यह है कि ऑपरेशन सर्प विनाश जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार के सहयोग व अनुमति से लांच किया गया था और उसकी सफलता का यह प्रमुख कारण था, लेकिन इस समय जम्मू-कश्मीर के पास न राज्य का दर्जा है और न ही चुनी हुई राज्य सरकार। अत: यह ज़रूरी है कि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा जल्द बहाल किया जाये, जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट का भी आदेश है ताकि जनता को अपनी चुनी हुई सरकार मिल सके और लोकतांत्रिक मूल्यों में उसका विश्वास मज़बूत हो सके। जम्मू-कश्मीर की दोनों प्रादेशिक पार्टियां महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और अब्दुल्ला की नैशनल कांफ्रैंस (एनसी) 2014 के बाद से बहुत कमज़ोर हो गई हैं। दोनों में से किसी के पास इतना दम नहीं बचा है कि अकेले इतनी सीटें जीत लें कि सरकार बनाने की स्थिति में आ सकें। पीडीपी ने 2014 में भाजपा के साथ मिल कर राज्य में सरकार बनायी थी। पीडीपी के पैरों के नीचे से अब ज़मीन खिसकती जा रही है कि उसे दोनों एनसी व भाजपा के विरुद्ध लड़ना पड़ रहा है।
अगर भाजपा की बात करें तो घाटी में उसने अपने पांवों पर ख़ुद कुल्हाड़ी मारी है। घाटी में अनेक लोगों ने उसकी सदस्यता ग्रहण की, उसके लिए अपनी जान की कुर्बानी तक दी, लेकिन लोकसभा चुनाव में उसने किसी को भी अपना प्रत्याशी नहीं बनाया। उसे कम से कम अपने उम्मीदवार तो खड़े करने ही चाहिए थे ताकि मालूम होता कि उसकी नीतियों को कितना पसंद किया जा रहा है, लेकिन भाजपा को यह डर अधिक था कि हिंदी पट्टी में जो वह कश्मीर नैरेटिव पेश कर रही है, कहीं उसकी हकीकत सबके सामने न आ जाये। बहरहाल, जम्मू क्षेत्र में भाजपा की मजबूत पकड़ बरकरार है, जैसा कि लोकसभा चुनाव के नतीजों से स्पष्ट है कि जम्मू की दोनों सीटें उसके खाते में गईं। घाटी में मतदाता अनेक पार्टियों में विभाजित हैं, जिनमें अति स्थानीय पार्टियां भी हैं जैसे यूएपीए के आरोपी इंजीनियर राशिद की पार्टी। इंजीनियर राशिद ‘बुलेट पर बैलट को वरीयता’ का पोस्टर बॉय हैं। बारामुला लोकसभा सीट से उसकी अप्रत्याशित जीत (18 में से 15 विधानसभा क्षेत्रों में विजय) इस बात का उदाहरण है कि अलगाववादी सोच वाले राजनीतिज्ञ भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पसंद कर रहे हैं, लेकिन उनकी जीत मुख्यधारा के नेताओं से लोगों की नाराज़गी को भी व्यक्त करती है।
यह लगभग निश्चित है कि 46 सीटों का बहुमत किसी पार्टी को नहीं मिलेगा। जोड़-तोड़ करके सरकार तो बन जायेगी, लेकिन भाजपा को लगता है कि वह सरकार में शामिल हो या न हो, वह ही जीत की स्थिति में है, क्योंकि जुलाई में उसने लेफ्टिनेंट गवर्नर को पुलिस, पब्लिक आर्डर, ट्रांसफर व पोस्टिंग से संबंधित सभी मामलों में अंतिम शब्द बना दिया था। इसलिए जम्मू-कश्मीर को जब तक राज्य का दर्जा नहीं मिलता, तब तक नई सरकार व लेफ्टिनेंट गवर्नर के बीच टकराव की आशंका तो रहेगी।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर