ज़रूरत से अधिक विश्वास ही कांग्रेस की हार का कारण बना
हरियाणा बनने से लेकर आज तक हरियाणा में कोई भी पार्टी लगातार तीसरी बार सरकार नहीं बना पाई थी। भाजपा ने यह कारनामा भी कर दिखाया है। 2014 से पहले हरियाणा में जब कभी भी भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ा तो हमेशा दो से चार सीटें ही जीता करती थी। 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा ने कुलदीप बिश्नोई की पार्टी हजकां के साथ मिलकर लड़ा था और 8 सीटों पर भाजपा ने व 2 सीटों पर हजकां ने चुनाव लड़ा। देश में नरेंद्र मोदी की लहर के चलते भाजपा ने 8 में से 7 सीटें जीतीं और हजकां वाली 2 सीटें इनेलो ने और रोहतक की सीट कांग्रेस ने जीती थी। लोकसभा के तुरंत बाद हुए हरियाणा विधानसभा के चुनाव भाजपा ने अकेले लड़े और पहली बार 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा में स्पष्ट बहुमत हासिल करके सरकार बनाई। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने बलबूते प्रदेश की सभी 10 सीटें रिकार्ड मतों से जीतीं और उस चुनाव में भाजपा को 79 विधानसभा क्षेत्रों में लीड हासिल हुई थी। लोकसभा के तुरंत बाद हरियाणा में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा मात्र 40 सीटें ही जीत पाई और जजपा के 10 विधायकों व निर्दलीय विधायकों की मदद से उसने सरकार बना ली। साढ़े 4 साल तक गठबंधन की सरकार चलाने के बाद भाजपा ने जजपा से गठबंधन तोड़ दिया।
मुख्यमंत्री बदलने का लाभ
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा आलाकमान ने प्रदेश में सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी को देखते हुए मुख्यमंत्री मनोहर लाल को बदल कर उनके स्थान पर नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया। नायब सिंह के मुख्यमंत्री बनते ही प्रदेश में पहले लोकसभा चुनावों और बाद में विधानसभा चुनावों के चलते आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो गई और नायब सिंह सैनी को मात्र 2 महीने से कम समय ही अपनी सरकार चलाने का अवसर मिला। मुख्यमंत्री सैनी ने प्रदेश सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी को कुछ हद तक कम करने का प्रयास किया। भाजपा आलाकमान ने भी प्रदेश के कई मंत्रियों और विधायकों के न सिर्फ टिकट काटे, बल्कि कुछ मंत्रियों और विधायकों के विधानसभा क्षेत्र भी बदल दिए गए ताकि उनके प्रति लोगों की जो नाराजगी है, उसे कम किया जा सके। भाजपा ने लोगों को साथ जोड़ने और फिर से सरकार बनाने के लिए न सिर्फ धुआंधार प्रचार किया बल्कि कांग्रेस को दलित व पिछड़े वर्ग का विरोधी बताते हुए लगातार कांग्रेस पर प्रहार भी किए। दूसरी तरफ कांग्रेस के अधिकांश नेता विधानसभा चुनाव में पार्टी की सरकार बनने को लेकर इतने विश्वास में थे कि वे चुनाव जीतने के लिए नहीं बल्कि मुख्यमंत्री और मंत्री बनने के प्रयासों में लगे हुए थे। ज्यादातर कांग्रेसी नेता अपनी जीत पक्की मान कर चल रहे थे।
कांग्रेस मेें टिकटों की बंदरबांट
दूसरा कांग्रेस ने सिटिंग-गेटिंग के फॉर्मूले तहत प्रदेश के सभी विधायकों को फिर से टिकट दे दिया और बाकी टिकटों के बंटवारे को लेकर भी ऐसी बंदरबांट हुई कि टिकट चाहने के इच्छुक अनेक नेता पार्टी से नाराज होकर निर्दलीय रूप से चुनाव मैदान में उतर आए। प्रदेश कांग्रेस नेताओं की कार्यप्रणाली से नाराज होकर पूर्व मंत्री व पूर्व विधायक दल की नेता किरण चौधरी, जोकि पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल की पुत्रवधू हैं, लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चली गईं और भाजपा ने उन्हें न सिर्फ राज्यसभा सांसद बनाया बल्कि उनकी बेटी श्रुति चौधरी को तोशाम से विधानसभा टिकट भी दे दिया। अब श्रुति चौधरी भी भाजपा टिकट पर चुनाव जीत चुकी हैं। इस बार भाजपा टिकट पर चुनाव लड़े मुख्यमंत्री नायब सिंह, पूर्व गृह मंत्री अनिल विज और उद्योग मंत्री मूलचंद शर्मा व पानीपत ग्रामीण से राज्यमंत्री महिपाल ढांडा को छोड़ कर भाजपा के बाकी सभी मंत्री चुनाव हार गए हैं। भाजपा के चुनाव हारने वाले नेताओं में स्पीकर ज्ञानचंद गुप्ता, कृषि मंत्री कंवरपाल, वित्त मंत्री जेपी दलाल, स्वास्थ्य मंत्री कमल गुप्ता, बिजली मंत्री रहे रणजीत सिंह, स्थानीय निकाय मंत्री सुभाष सुधा, पूर्व वित्त मंत्री कैप्टन अभिमन्यु, पूर्व पंचायत मंत्री देवेंद्र बबली, पूर्व राज्यमंत्री संजय सिंह, पूर्व मंत्री कमलेश ढांडा, पूर्व मंत्री अनूप धानक भी शामिल हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष भी हारे चुनाव
अब की बार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष उदयभान सहित पार्टी के अनेक अन्य दिग्गज नेता भी चुनाव हार गए हैं। कांग्रेस के चुनाव हारने वाले नेताओं में पूर्व स्पीकर कुलदीप शर्मा के अलावा पिछली बार चुनाव जीते 15 कांग्रेस विधायक भी इस बार चुनाव हार गए हैं। चुनाव हारने वाले कांग्रेस के पूर्व विधायकों में मेवा सिंह, बलबीर बाल्मीकी, अमित सिहाग, प्रदीप चौधरी, बिशनलाल सैनी, शमशेर गोगी, सुभाष गंगोली, धर्म सिंह, जगबीर मलिक, सुरेंद्र पंवार, जयवीर बाल्मीकि, राजेंद्र जून, राव दान सिंह, चिरंजीवी राव और नीरज शर्मा शामिल हैं। इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में किरण चौधरी अपनी बेटी श्रुति के लिए भिवानी-महेंद्रगढ़ सीट मांग रही थीं, लेकिन कांग्रेस ने यह सीट राव दान सिंह को दे दी थी। इसी से नाराज होकर किरण चौधरी व श्रुति चौधरी कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में चली गई थीं।
उस समय राव दान सिंह महेंद्रगढ़ से विधायक थे और वह अपने विधानसभा क्षेत्र से भी बुरी तरह चुनाव हार गए थे। इस बार कांग्रेस ने उन्हें फिर महेंद्रगढ़ से विधानसभा की टिकट दे दी और वह विधानसभा चुनाव भी हार गए। चिरंजीवी राव बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के दामाद हैं और चिरंजीवी के पिता कैप्टन अजय सिंह कांग्रेस पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । वह हरियाणा में 6 बार विधायक और मंत्री भी रह चुके हैं। इस बार चिरंजीवी राव ने अपने क्षेत्र में यह कह कर वोट मांगे थे कि वह प्रदेश मंत्रिमंडल में उपमुख्यमंत्री बनेंगे इसलिए लोग उन्हें भारी बहुमत से जिताने का काम करें, लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनना तो दूर, वह अपना विधायक पद भी नहीं बचा पाए।
भजन लाल परिवार आदमपुर से हारा
इस बार चुनाव में सबसे बुरी भजन लाल परिवार के साथ बनी है। आदमपुर विधानसभा क्षेत्र भजनलाल परिवार का अभेद्य दुर्ग रहा है। पिछले 56 सालों से भजनलाल का परिवार ही इस विधानसभा सीट से चुनाव जीतता रहा है। इस सीट से भजन लाल के अलावा उनकी पत्नी जसमा देवी, बेटा कुलदीप बिश्नोई, पुत्रवधु रेणुका बिश्नोई और पौत्र भव्य बिश्नोई विधायक रह चुके हैं, लेकिन 56 साल के बाद पहली बार भजनलाल का परिवार आदमपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हार गया है। भव्य बिश्नोई को उनके परिवार के समर्थक रहे सेवानिवृत्त अधिकारी चंद्र प्रकाश ने हराया है। चंद्र प्रकाश आईएएस अधिकारी रहे हैं। यह भी एक दिलचस्प संयोग है कि भजनलाल चाहे फरीदाबाद से सांसद रहे, करनाल से रहे या हिसार से रहे अथवा जितने भी उन्होंने चुनाव लड़े, वह एक बार को छोड़ कर कभी चुनाव नहीं हारे थे। उन्होंने 1999 का लोकसभा चुनाव रिटायर आईएएस अधिकारी आईडी स्वामी के मुकाबले करनाल से हारा था। आईडी स्वामी भी किसी समय भजन लाल परिवार के बेहद करीबी होते थे। हालांकि भजन लाल के बड़े बेटे चंद्रमोहन स्पीकर ज्ञानचंद गुप्ता को हराकर चुनाव जीत गए हैं। इस बार विधानसभा चुनाव में देवीलाल परिवार के 8 सदस्य चुनाव लड़ रहे थे। उनमें से अर्जुन चौटाला रानियां से और आदित्य चौटाला डबवाली से विधायक बन गए हैं जबकि अन्य सभी सदस्य चुनाव हार गए हैं। रानियां का चुनाव बेहद दिलचस्प इसलिए भी था कि रानियां में दादा-पोता के बीच मुकाबला था। पोता अर्जुन चौटाला चुनाव जीत गया और दादा रणजीत सिंह न सिर्फ चुनाव हारे बल्कि तीसरे स्थान पर रहे। इसी तरह डबवाली में चुनावी मुकाबला चाचा-भतीजा के बीच था। चाचा आदित्य चौटाला चुनाव जीत गए और भतीजा दिग्विजय चौटाला चुनाव हार गए।
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